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चंद्रकांत देवताले

जो रास्ता भूलेगा मैं सुन रहा हूँ किसी के पास आने की आहट मेरी देह बता रही है  कोई मुझे देख रहा है  जो रास्ता भूलेगा  मैं उसे भटकावो वाले रास्ते ले जाऊँगा  जो रास्ता नहीं भूलते  उन में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं  बेटी के घर से लौटना   बहुत जरुरी है पहुँचना सामान बांधते बमुश्किल कहते पिता बेटी जिद करती  एक दिन और रुक जाओ न पापा  एक दिन  पिता के वजूद को  जैसे आसमान में चाटती  कोई सूखी खुरदुरी जुबान बाहर हँसते हुए कहते कितने दिन तो हुए सोचते कितने दिन चलेगा यह सब कुछ  सदियों से बेटियाँ रोकती होंगी पिता को  एक दिन और  और एक दिन डूब जाता होगा पिता का जहाज  वापस लौटते  में बादल बेटी के कहे के घुमड़ते होती  बारिश  आँखों से टकराती नमी भीतर कंठ रुंध जाता थके कबूतर का सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते दुनिया में सबसे कठिन है शायद बेटी के घर से लौटना