गायत्री प्रियदर्शिनी




गायत्री प्रियदर्शिनी का जन्म 30 जून 1973 को उत्तर प्रदे के बदायूं में हुआ। एम. ए. करने के पश्चात प्रियदर्शिनी ने भीष्म साहनी के साहित्य में जनजीवन की अभिव्यक्ति विषय पर अपना शोध कार्य पूरा किया। सम्प्रति आजकल बदायॅू के ही एन. एम. एस. एन. दास पी. जी. कॉलेज के हिन्दी विभाग में अस्थायी प्रवक्ता के रूप में अध्यापन कार्य कर रही हैं। कथ्यरूप, कल के लिए, वागर्थ आदि पत्रिकाओं में समय-समय पर कविताएं प्रकाशित हुई हैं।


गायत्री प्रियदर्शिनी की छोटी-छोटी कविताओं में भावों की गझिन अभिव्यक्ति सहज ही दिखायी पड़ती है। आज के जमाने के मोबायली इण्टरनेटी युग में नगर पालिका की टोंटी में बहते पतले से पतले होते जा रहे प्यार के खूबसूरत से बिम्ब में गायत्री ने जैसे बहुत कुछ कह डाला है। हमारे पास और सब कुछ के लिए समय तो है लेकिन जीवन के लिए जरूरी प्यार के लिए वक्त नहीं है। जीवन के लिए एक और जरूरी जरूरत आग को अलाव कविता में बेहतरीन ढंग से व्यक्त किया है जिसमें चूल्हे पर फदक रही दाल है। दिसम्बर की ठण्ड में जिन्दगी अनायास ही अलाव के पास अपने मैले कुचैले हाथों को सेकने के लिए चली आती है। संभावनाओं के साथ इस बार प्रस्तुत हैं गायत्री प्रियदर्शिनी की कविताएं.





रीत गया सब कुछ



चॉदनी रातें
नरम-नरम बातें
अलसाई दोपहरें
रमाई सी रंगीन शामें
सितारों जड़े आसमान में
बौराया सा चॉद
अलमस्त हॅसी
बिना बात के ही
ऑखों में चमकती खुशी
धूप में नहाई
वासन्ती छटा



ऐसे ही न जाने कब
रीत गया
समय की मुट्ठियों से
प्यार जैसे
ई-मेल, इण्टरनेट
मोबाइल के इस दौर में
नगर पालिका की पाइप लाइन में
पानी की धार।



खरगो हुए दिन



खरगो हुए दिन
ठहर गयीं हैं रातें
गहरी-गहरी
खामोशी में
अपनों से
अपनों की बातें



हथेलियों की महक
और होठों की छुअन में
घुलने लगीं हैं रातें



मद्धम मद्धम
चॉदनी में
लगी सुलगने
लम्बी रातें।





अलाव



सिंक रही हैं रोटियॉ
सुलग रही है आग
रगड़ी जा रही है
सिल पर चटनी
फदक रही है
चूल्हे पर दाल
दिसम्बर की
सर्द कुहरीली सनसनाती हवाएं 
और  ठिठुरती दोपहरी


झुग्गियों के पास
छोटे-छोटे अलावों में सुलगती
ऑच के पास
सिमट आयी है जिन्दगी
तापने के लिए
अपने मैले
खुरदुरे हाथ।



सॉझ



क्षितिज रेख पर
ढलती सॉझ



फगुनाए
पीले खेतों में
बौराई सी फिरती
सॉझ



पंछियों के
कलरव से
झूम उठी
मदमाती सॉझ



रात के काले
ऑचल में
चॉदी जैसी
घुल गयी सॉझ



सुबह



बन्द कमरे में
रोनी की लकीरों सी
पूरब में फैली लाली
होली के गुलाल सी



पल-पल बदलती
सुन्दर सी
मन्दिर की पवित्र मधुर
घण्टियों सी



उतर रही है सुबह
धीरे-धीरे
बच्चों की सपनीली
पलकों पर
मासूम ख्वाब सी।





बिदेशिया



धूप भरी दिसम्बर की
सड़क पर तिर रहे हैं
सुख दुख आशा निराशा


धूप-छाव के तन्तुओं में
उलझते सुलझते दिन



और चारो ओर से उठते वाहनों के शोर को
अपने में डुबोती जा रही है
दूर कहीं से
बिदेशिया की आवाज




सम्पर्क- गायत्री प्रियदर्शिनी

द्वारा श्री मनोज कुमार गुप्त
विरूआबाड़ी मन्दिर के पास
रघुवीर नगर, बदायॅू, उ0प्र0
पिनकोड- 243601

टिप्पणियाँ

  1. जीवन की सूक्ष्मतर चीजों को संवेदना के धरातल पर देखने और उसे महसूस करने का आपका अंदाज प्रशंसनीय है ...बधाई स्वीकार करें...

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  2. bahut pyari bhasha me bahut pyari kavitayen. ek-ek pankti padhate hue ek-ek chitra ubharta chala jata hai.badhai!

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  3. achhi kavitayen hain.kavitayen chitra ubharne ke sath hi sukhad anubhutiyon ka ehsas karati hain.

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  4. kavitayen pasand karanai kai liaya shurika.

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