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मई, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

शैलेन्द्र जय

युवा कवि शैलेन्द्र जय का पूरा नाम शैलेन्द्र कुमार श्रीवास्तव है. इनका जन्म ४ फरवरी १९७१ को प्रयाग में हुआ. इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से विधि स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की. और आजकल इलाहाबाद के सिविल कोर्ट में कार्यरत हैं. इन्होंने कविताओं के अलावा कुछ नाटक भी लिखे हैं. इनकी कवितायें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं. आकाशवाणी इलाहाबाद से समय समय पर इनकी कविताओं का प्रसारण होता रहता है. अभी तक इनका एक काव्य संग्रह ‘स्याही की लकीरें’ प्रकाशित हुआ है. न तो शैलेन्द्र जय को नया कवि कह कर नजर अंदाज किया जा सकता है और न तो इनकी कविताओं को कवि का पहला प्रयास कह कर एक झटके में फैसला दिया जा सकता है. क्योंकि शैलेन्द्र की कविताओं में आदमी और कविता की भरपूर संवेदना रची-बसी है. अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों स्तर पर ये कविताएँ पूरी तरह से खरी उतरती हैं और अपने रचनाकार को सम्पूर्ण बनाती हैं. शैलेन्द्र की कवितायें हारे थके, टूटे और बिखरे आदमी को उसके परिवेश से, जहां कोसो दूर दिखायी देती हैं वहीं ये कवितायें नए समाज की संरचना में लगे आदमी के लिए सहायक साबित होती हैं.        

भगवत रावत: एक बार फिर आऊँगा

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  'अनहद' जनवरी २०१२ अंक में समालोचन स्तंभ के अंतर्गत कवि भगवत रावत पर आलेख और उनकी नवीनतम कविता प्रस्तुत की गयी थी. भगवत दादा की कविता आप पहले ही पढ़ चुके हैं. श्रद्धांजली के क्रम में आज प्रस्तुत है कवि केशव तिवारी का भगवत दादा पर लिखा गया आलेख.     केशव तिवारी भगवत रावत के कवि पर विचार करते समय एक प्रश्न सबसे पहले उठता है- आखिर इस कवि के अपने लोक और जनपद के पीछे जुड़ाव का आधार क्या है? वह क्या बात है जो कवि को अपने परिवेश से इस तरह बांधती और मुक्त करती है. इसे मात्र अपने जन और धरती के प्रति कृतज्ञता कह कर बात नहीं समझी जा सकती. इतने वादों और नारों के बीच भी यह कवि यदि डंटा रहा तो कोई तो बात होगी ही.  यह हिंदी आलोचना की बंदरकूद का ही परिणाम है कि वह सीधे केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन से कूदती है तो बीच के कवियों को छूते नकारते, नवें दशक में प्रवेश करती है. इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ गंभीर कवि छूट गए जिसमें भगवत रावत प्रमुख हैं. जबकि शुरुआती दौर में ही यह कवि कविता की जमीं को पहचान चुका था और इसका यह अटल विश्वास था कि देर-सबेर आलोचना यहीं लौटेगी. भगवत रावत उन व

भगवत रावत

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२५ मई २०१२ का मन हूस दिन. हम सबके अजीज कवि भगवत रावत आज नहीं रहे. हमारे अग्रज कवि मित्र केशव तिवारी ने जब यह सूचना मुझे दी तो मैं हतप्रभ रह गया. विगत कई वर्षों से जिस जीवट से वे जिंदगी के लिए मौत से जूझ रहे थे वह अप्रतिम था और इसीलिए जब यह खबर मुझे सुनायी पडी तो मैं सहसा विश्वास नहीं कर पाया. एकबारगी मुझे लगा जैसे मेरा सब कुछ खत्म हो गया. भगवत दादा बातचीत में कभी भी अपने दर्द का एहसास सामने वाले को नहीं होने देते थे. मैं जब कभी उन्हें फोन करता उनका आत्मीय स्वर तुरंत सुनायी पडता ‘बोलो बेटा.’ मैं पूछता कैसे हैं दादा? वे तपाक से बोलते ‘बढ़िया हूँ.’ हालांकि मुझे पता होता था कि वे काफी तकलीफ में हैं. फिर बढ़िया कैसे होंगे. लेकिन एक अभिभावक के तौर पर वे हमें आश्वस्त करते बढ़िया होने का. साथ ही लिखने के लिए लगातार प्रेरित करते रहते. बीच-बीच में उनके स्वास्थ के बारे में मैं उनकी बेटी प्रज्ञा रावत जी से पता करता रहता. दादा से जब मैंने ‘अनहद’ के लिए कुछ लिखने का आग्रह  किया तो वे तुरंत तैयार हो गए. खराब स्वास्थ के बावजूद उन्होंने ‘अनहद’ के लिए कमला प्रसाद जी पर एक आत्मीय संस्मरण और हम

अमीर चंद्र वैश्य

अपने गाँव धरमपुर में कवि विजेंद्र समकालीन हिन्दी कविता में लोकधर्मी कवियों में विजेंद्र का नाम अग्रगण्य है. अब तक उनके १८ काव्य संकलनों, २ काव्य नाटकों के अलावा २ चिंतन प्रधान पुस्तकें एवं ३ डायरियां प्रकाश में आ चुकी है. आज भी अपने सर्जनात्मक कर्म में वह लीन हैं. ऐसे कवि से मेरा साक्षात्कार उनकी पहली लंबी कविता ‘जन शक्ति’ ने कराया था. जो जनभाषा प्रकाशन, जोधपुर से १९७४ में प्रकाशित हुई थी और कवि मोहदत्त शर्मा साथी के सौजन्य से प्राप्त हुई थी. बात ९० के दशक की है. उन दिनों मैं त्रिलोचन के सोनेट काव्य का अध्ययन कर रहा था और विजेंद्र ‘ओर’ पत्रिका का संपादन कर रहे थे. पता चला कि ‘ओर’ में निराला जी की एक कविता ‘हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र’ पर त्रिलोचन का व्यंग-आलेख छपा है. अभीष्ट अंक पढ़ने के लिए मैंने मनीऑर्डर भेज दिया, लेकिन अंक नहीं मिला. लंबे इंतजार के बाद मैंने विजेंद्र को एक कटु पत्र लिख कर भेज दिया. उनका पत्रोत्तर पढ़ कर मैं ग्लानि से ग्रस्त हो गया. विजेंद्र ने अपने १२-१२-१९९२ के पत्र में लिखा था. प्रिय भाई, आपका आक्रोश भरा पत्र पा कर भी मुझे आपके स्नेह का अन

अल्पना मिश्र

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हिन्दी के नए कहानीकारों में अल्पना मिश्रा ने अपने कहन के ढंग, छोटी छोटी चीजें जिस पर आम तौर पर हमारा ध्यान नहीं जाता के सूक्ष्म वर्णन और किस्सागोई के द्वारा हमारा ध्यान सहज ही आकृष्ट किया है. अल्पना को कहानी लिखने के लिए अतीत की खोह में नहीं जाना पडता बल्कि वे हमारे समय की घटनाओं को ही लेकर इस अंदाज में कहानी की बुनावट करती हैं कि हमें यह एहसास ही नहीं होता कि हम कहानी के बीच से गुजर रहे हैं या हकीकत से. अल्पना के यहाँ यह एहसास हकीकत में बदल जाता है. ऐसा लगता है जैसे हम स्वयं ही पात्र हों कहानी के. या जैसे बिलकुल आस-पास ही कोई घटना घटित हो रही हो. बीच-बीच में कुछ पंक्तियाँ हमें उनके कवि मन का दर्शन करातीं हैं. सूक्तियों सी लाईनें आती हैं. लेकिन कुछ भी अटपटा नहीं लगता. ‘उनकी व्यस्तता’ एक ऐसी ही कहानी है जिसमें लडकी के जन्म को लेकर तमाम आग्रह पालने वाला पिता पहले तो अपनी बेटी के साहस पर मुग्ध होता है. उसे बढ़ावा देता है. फिर शादी के बाद उसके ‘एडजस्ट’ न कर पाने पर मानसिक रूप से परेशान होता है. यह हमारा सामाजिक चेहरा है- विकृत सामाजिक चेहरा, जिससे शायद ही कोई इनकार कर सके. पति के घर

वंदना शर्मा

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कविता की दुनिया में वंदना शर्मा एक सुपरिचित नाम है. वंदना शर्मा की कविताएँ अपने अलग तेवर और शिल्प के चलते सहज ही पहचान में आ जाती हैं. वे ‘ कहने के असीम साहस के साथ ’ अपनी बातें रखती हैं और अपनी कविताओं में स्त्री समाज की विडंबनाओं को इस बेबाकी से उजागर करती हैं कि वे महज स्त्री समाज की विडम्बना या समस्या न हो कर पूरे शोषित-दमित समाज की समस्या बन जाती है. कहना न होगा कि आज भी स्त्रियाँ दमितों में दमित और शोषित हैं. आखिर क्यों ऐसा होता है कि स्त्री कुछ बोले, विद्रोह करे तो बेलगाम कह दी जाती है. आखिर एक लडकी के व्यक्तित्व को किन-किन प्रतिमानों द्वारा कब तक तौला जायेगा. शरीर की नाप-तौल, रंग, रसोई, ड्राईंग रूम, डिग्री. क्या-क्या प्रतिमान होंगे उसे मापने जांचने के? क्या यह समाज का दोयमपना नहीं. लड़कों यानी पुरुषों के लिए दुनिया की सारी बेहिसाब छूटें और लड़कियों के लिए जगत के सारे बंधन. यह कहाँ का न्याय है, कैसा समाज है जो अपने को आधुनिक कहते-कहलाते नहीं अघाता. लेकिन अपना सामंती व्यवहार किसी कीमत पर छोडना नहीं चाहता. क्या स्त्री का का अपना व्यक्तित्व ही उसे बताने के लिए काफी नहीं? वं

महेश चन्द्र पुनेठा

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अटूट और असंदिग्ध जनपक्षधरता के कवि: विजेंद्र कोई अगर मुझसे कविवर विजेंद्र की एक और सबसे बड़ी विशेषता के बारे में पूछे तो मेरा एक वाक्य में उत्तर होगा- विजेंद्र अटूट और असंदिग्ध जनपक्षधरता के कवि हैं। उनकी जनपक्षधरता का परिचय इस बात से ही चल जाता है कि जब अज्ञेय की जन्म शताब्दी वर्ष में तमाम प्रगतिशील वामपंथी अज्ञेय की कला से मुग्ध होकर उनकी प्रशंसा में कसीदे पढ़ रहे थे विजेंद्र ने ’असाध्य वीणा’ पर साहस और विवेक से लिखते हुए अज्ञेय की लोक से दूरी और जनविमुखता को रेखांकित किया। उन्होंने बताया कि क्यों यह कविता एक बड़ी व अर्थवान कविता नहीं कही जा सकती है? विजेंद्र इस आलेख में कहते हैं -  'जब कवि जनता से-अपने लोक से-एकात्म होता है-उसके संघर्ष में शरीक होता है तभी वह शिवेतरक्षतये की बात सोच सकता है। आध्यात्म और रहस्योन्मुखता से वह जनता के संघर्ष में न तो शरीक हो सकता है। न वह शिवेतरक्षतये की बात सोच सकता है।’ कविता का सबसे बड़ा प्रयोजन यही है। यही उसकी सार्थकता है। विजेंद्र मानते हैं कि यह कविता शिवेतरक्षतये की कसौटी में खरी नहीं उतरती है। वे अपने इस आलेख में इस