विजेन्द्र जी का पत्र

मित्रों, वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी ने मेरी एक लम्बी कविता मोछू नेटुआ पर एक लम्बा पत्र भेजा है जिसे मैं बिना किसी भूमिका के पूरी विनम्रता के साथ आप सबके लिए ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसी क्रम में आप विजेन्द्र जी की एक चर्चित कविता 'मुर्दा सीने वाला’ भी पढेंगे। हमेशा की तरह हमें आप सबकी बहुमूल्य टिप्पणियों का इन्तजार तो रहेगा ही।


विजेंद्र                                                                                         सी - 133 वैशालीनगर

                                                                                                   जयपुर

                                                                                                   14 नवम्बर , 2012

प्रिय संतोष

मुझे खेद है कि मेरा पत्र तुम्हें नहीं मिला। फिर से लिख रहा हूँ। तुम्हारी कविता को बड़े ध्यान से पढ़ा ।

मुझे लगा तुम्हारा कथ्य अछूता है। इधर लोगों का ध्यान जाता ही नहीं। क्यों नहीं जाता यह हमारी चिंता का विषय क्यों न हो! ऐसे चरित्र अत्यंत जीवंत तथा प्राणवान होते हैं। नितांत अभावों और कष्ट में जी कर भी उसे जीते हैं। कठिनाइयों को झेल कर स्वयं कठोर बनते हैं। ऐसे चरित्र हमारी कविता में क्यों न आयें इससे सामाजिक यथार्थ के नये पहलू उजागर होंगे। मोछू नेटुआ एक जीवंत चरित्र है। यही है वह लोक जिसे दिल्ली के लोग अपनी अज्ञता से पिछड़ी संवेदना का वाहक मानते हैं। वे आज भी यह मानने को तैयार नहीं है कि लोक भी कोई महत्वपूर्ण काव्य कथ्य है। या हो सकता है । मध्य वर्ग अपने से बाहर जाने के लिये कतराता रहा है । पिछले दिनों हमारे यहाँ ‘जलेस’ राज्य कार्यकारिणी की बैठक थी। एक उच्च पदाधिकारी पर्यवेक्षक बनकर दिल्ली से आये थे। जब लोक की बात चली तो बोले कि लोक में तो बिड़ला टाटा भी आते हैं। मैं अवाक रहा। हतप्रभ भी। यदि लोक में बिड़ला टाटा आते हैं तो फिर 'भद्र लोक' या 'प्रभु लोक' में कौन आता है। क्योंकि 'लोक' है तो 'भद्र लोक' भी है। अंग्रेजी में जिसे 'एलीट' कहते हैं। मैं लोक को सामान्य - अतिसामान्य -अर्थ में लेता रहा हूँ। यानि जो भद्र लोक का उलट है। खैर, मोछू जो सदियों से उपेक्षित है। वह कविता में कहता भी है कि भद्र लोक ने हमें अपराधी घोषित किया है। आज यह वर्ग सत्ता का विरोध करता है तो उसे प्रतिबंधित संगठन का आदमी बता कर उसे कारावास में ठेल दिया जाता है। इस बात को मोछू तक चली आ रही है। लोकतंत्र के 65 साल बाद भी वह अछूत और उपेक्षित है। इतिहास में उसे भुलाया है। साहित्य में भी उसे दरकिनार किया। क्योंकि इतिहास लिखवाया भद्र और कुलीन लोगों ने अपनी सुविधा के लिये। साहित्य में भद्र और कुलीन आज भी अपना वर्चस्व बनाये हुये हैं। उन्होंने जो प्रतिमान रचे वे हमारे ऊपर थोपे गये हैं। मोछू नेटुआ के श्रम सौंदर्य को वे नहीं सराह पायेंगे। मार्क्स ने भी सबसे बड़े अपराध को गरीबी से ही जोड़ कर देखा है। मोछू नेटुआ सही कहता है कि -

'आज के समय में सबसे बड़ा अपराध है  गरीबी'

उसका चरित्र यह भी बताता है कि हमारे समस्त सामाजिक संबंधों का आधार भी आर्थिक है। वे उसी से प्रभावित होते है। नियंत्रित भी। माछू नेटुआ सजग है। उसे उसके हुनर ने ही उसे सचेत बनाया है। वह जानता है कि सुविधाजीवी कुलीन वर्ग बहुत ही परजीवी तथा डरपोक होता है। वह साँप से डरता है। यही वजह है मोछू नेटुआ अपने काम का पारिश्रमिक ठौंक बजा कर तय करता है। अपनी शर्तों पर। यही है श्रम का सिद्धांत जब कोई श्रमिक उसे बाज़ार में बेचता है। वह उसे अपनी शर्तों पर ही बेचता है। खरीदने वाला उसे अपनी शर्तो पर खरीदता है। इसीलिये मोल भाव होकर किसी एक बिंदु पर बात तय होती है। क्योंकि मोछू नेटुआ जानता है कि श्रम खरीदने वाला उसके श्रम के बिना रह नहीं सकता। तुमने उसे सजग दिखा के अपने पक्ष को भी साफ किया है। यानि लेखक उसके साथ है। यह कविता की ध्वनि संकेत की बारीक लय है। उसकी ताकत भी। मोछू नेटुआ राजनेताओं की कुटिलता और उनके छद्म पर तीखे व्यंग्य करता है। ‘जहरीली होती जाती इस दुनिया’ में से‘बेज़हर लोगों को’ वह कैसे सामने लाये। यह आज की राजनीतिक त्रासदी है। हम विकल्पहीन सिथति में अपने पथ को कैसे सुनिश्चित करें। पर नई पीढ़ी सामाजिक विकास पक्रिया में अपने लिये मुख्यधारा खोज लेती है। इसीलिऐ उसके बच्चे अपना पुश्तेनी काम छोड़ कर नया विकल्प चुनते हैं। मोछू नेटुआ जानता है कि साँपों को वैज्ञानिक तकनीकों से पकड़ कर बड़ी बड़ी कंपनियाँ उनके जहर का बंज व्यापार कर रही हैं।वनस्पतियों को उजाड़ा जा रहा है। उसकी श्रमसाध्य आजीविका अब खजरे में है। पूँजीकेंद्रित व्यवस्था उसके अर्जित हुनर का महत्व न समझ कर उसे मरने जीने को छोड़ देती है। अतः कविता अपने अतीत का विकास व्यक्त कर वर्तमान के द्वंद्व से अन्वित होती है। इन अनेक सूत्रों की वजह से कथ्य संलिश्ष्ट और रोचक हुआ है। पूरी कविता आज की कुलीन संवेदना तथा जड़ बुर्जुआ सौंदर्य पर तीखा प्रहार भी है। मैं इस अछूते कथ्य पर रची इस कविता के लिये अपने प्रिय युवा कवि संतोष को हार्दिक बधाई देता हूँ। यह विनम्र निवेदन भी करता हूँ कि इस लोकधर्मी काव्य संवेदना को गंभीरता से उत्तरोत्तर व्यापक और विस्तृत करें। यही नहीं बल्कि ‘अनहद’ तथा ‘पहली बार’ से इसे अपने समय के युवा कवियों के चित्त में बीज की तरह सहजता से बोयें ।यह काम ऐतिहासिक होगा । बाद में लोग सत्य को सराहेंगे ।एक नई फसल नये विज़न के साथ सामने आयेगी ।

एक बात ध्यान देने की है। कविता में चरित्र सृष्टि सबसे कठिन काम है। क्यों कि यहाँ कवि को अपने लिये ‘तटस्थ सम्बद्ध’ बनाना पड़ता है। यही है कविता में ‘तटस्थ सम्बद्धता’ का सिद्धांत। यानि चरित्र या घटना से दूर होकर उससे जुड़ा रहना। और जुड़ कर भी अलग रहना। मार्क्स इसे विपरीत तत्वों की एकरूपता कहते हैं। दूसरे, हमें चाहिये कि चरित्र को उसकी पृष्ठभूमि के अनुसार स्वतः विकसित हेने दें। जो भाषा वह बोलता है वह उसी की लगे। इस कविता में एक जगह पंक्ति है -

'दरअसल अपने समय की हँस मुख दुनिया का ही
एक उदास चेहरा  हैं हम
अपनी उदासी के लिये हमेशा से अभिशप्त'

यहाँ मुझे कवि संतोष बोलते दिखाई पड़ते है। मोछू नेटुआ नहीं। ‘अभिशप्त’ शब्द अस्तित्ववादी बौद्धिक लोगों का अति व्याख्यायित शब्द है। मोछू नेटुआ का शब्द होगा, ‘सराप’ जो शाप का अपभ्रंश तथा तद्भव है। दरअसल हमें रचनाशील भाषा सिरजने का कठिन प्रयत्न करना होगा। तुम पूछोगे यह क्या है। ध्यान दो कि रचनाशील भाषा वह है जिसके शब्द पूर्व निश्चित अर्थों का अनुधावन नहीं करते। गैररचनाशील भाषा में शब्द पूर्व निर्धारित अर्थों का अनुगमन करते हैं। रचनाशील भाषा में कवि द्वारा रचित अर्थों का शब्द स्वयं अनुधावन करते हैं। इसीलिये कविता में शब्दों के अर्थ वे नहीं होते जो कोश में दिये होते हैं। यहाँ अपनी बात साफ करने के लिये मैं अपनी एक कविता ‘मुर्दा सीने वाला’ को दे रहा हूँ -



मुर्दा सीने वाला

काला स्याह अधेड़ खड़ा
धरे हाथ कमर पर
आँखें लाल चमकीली
अंधकार में तपा हुआ ताँवा जैसे
बड़ी अदा से पान चबाता
देता अपनी महरारू को गाली
खड़ी पास में
जो झाड़ू ले कर
कहता आँखें तरेर कर
नहीं गई यहाँ से
छिनाल ...कुत्ती ...
रोज मने करती है पीने को
ठर्रा का पउआ
तो कैसे सिऊँगा
मरे मुर्दों को
कहता फिर बुद बुद कर

ससुरी बैठी रहती
सड़क बुहार सफाई कर
दिन भर तू करती क्या है
जरा बता तो
वह नहीं तनिक डर लाती मन में
कहती गर्दन टेढ़ी कर
पी ....
चाहे मर
मेरे जाने
कैसे पाँलू कुनवा
कहता वह .. चुप्प सुअरिया
चुप्प ....जुबान निकाली
तो पेट चाक कर दूँगा
नहीं रहा डर
मुझे मरने से
पिछले बीसों बरसों से
जाने कितने  कितने मुर्दों को
सीं सीं कर
नक्की किया
अभी तक
तू किस खेत की
मूली ठहरी
चक्कू मेरा सगा दोस्त है

मैं और ऊषा
खड़े खड़े एस0एन0 अस्पताल के आगे
वाट जोहते
कब खुले बाज़ार आगरे का
व्यास मार्केट से
लेना है चश्मा

फिर देखा घुन्ना कर उसने
थूका बहुत जोर से थू ... थू ... थू ..
उस पर ...
जा, चली हियाँ से जा
नहीं पार कर दूँगा चक्कू
लगातार बुदबुदा रही है
सूखी पिण्डली चमक रहीं हैं उसकी
चेहरे पर कमज़ोरी की है
सूखी कालिख
जाने कब से झेल रही है
चक्कू की अगिन को
बोली फिर
कड़ा बोल जी भर कर
देख क्या रहा भड़ुए
जो करना है कर
देखूँ कैसा मर्द बना है
मैं मुर्दा थोड़े ही हूँ
जो सीं देगा मुझको

अजब हाल है
रंग गेंहुआ
ढली जवानी
कत्थई किनारेदार
ऊँची ऊँची धोती
फटा सटा सा पहने ब्लाउज़
आँखें गड्ढे में धँसती
बाँहों पर कबरे निशान
जले कटे के
क्या जीवन की इच्छा
बलवती बनी है

ऊषा को नहीं पता
यह गुज़र रहा चुपचाप
ठीक वहीं
कहाँ ध्यान है जाने
देर हो रही
घर जा कर धोना करना है
सोच रही  -मुझे क्या बदलाव यहाँ  आ कर
जो करना वहाँ भरतपुर में
वही यहाँ करना है
सबको जहाँ जरूरत
जिस सुविधा की
वह वह देनी है
सुबह नाश्ता नहीं किया
दिखाई नहीं पड़ा कुछ ऐसा
जो चल सके खड़े खडे
देखे तब भुने चने
लाई का ठेला
आ लगा वहीं पर
मन ही मन बिन कहे बताये
ताड़ लिया मैंने
यह चल सकता है
समय काटने को

नहीं वार्तालाप थमा था उसका
चलता था नाटक
रोष भरा
बार बार तहमद सँभालता
खड़ा हुआ था
अधेड़ काला धुत्त नशे में

मैं डरा- डरा निडर
कनछेर ले रहा भीतर घुस कर
कहता था तरेर भर के
हो असल बाप से अपने
तो चली कहीं जा
चाहे साथ किसी के
मुझे नहीं जरूरत तेरी
रोज़ रोज़ सींता हूँ
तुझ सी जाने कितनी
मरी जहर से
या मरी लुटा कर अपनी इज्जत
थू ... थू ...
फाँस लगा कर
बडे बड़े भीम दादा डकैत
अबूझ अग्यानी ग्यानी
थू ... थू ...
जाते सब इसी रास्ते
कर के देख जरा तू
क्या ... कोई बिना पिए
पउआ ठर्रा का ....
होंगे साले नब्बाब अपने घर के
.... देखा मेरी ओर घुमा के
अपना विकृत चेहरा
जैसे अब तक सुना किया
मैं उसकी रामकहानी
छिप छिप कर
नहीं दिया भाव मैंने कोई
जैसे और और
वैसे ही मैं राहगीर
इस बड़े शहर में
कहने लगा सुना कर मुझ को
यह पूरा बाज़ार मेरा है
मुर्दा घर मेरा है
चाहे जो हो अपराधी
आएगा अंत
इसी चक्कू के नीचे
नहीं हिलेगा पत्ता बिन मेरे

मुर्दा सींना
नहीं काम गुदड़ी सीने का
इसको कर सकता है
कोई मरद दिलावर
कभी देखता आ कर कोई
क्या हालत है अंदर ....
फिर घूरा उसको
नहीं गई तू डायन हिन सै
मुझे पढ़ाती कथा राम की
समझा उनको
जो दिनों रात जिंदा इनसानों को
बना बना मुर्दा
अस्पताल में भेज रहे हैं
कोई हो चाहे सड़ी लाश
चिथड़े चिथड़े
साफ सिडौल हुलिया
गठी देह हो चाहे
नहीं रहा करता कुछ भी
हो जाता सब चीर चीर
उस टैम आये कोई
कौन कितना बडा मरद है
तू क्या ......
कुत्ती
सुअरिया ब्यांत की
क्या जाने ....
फिर चीर चीर को बैठाना
जोड़ना गाँस गाँस को सीं कर
फिर से सड़े मास की चीरें
कोई आये ....
गर हिम्मत होय किसी में ...
चखे मजा इसका भी
फिरते हैं जाने कितने
जूते चटकाते
ऐसा कुछ है
तो हुनर दिखायें
हुआ होगा आजाद मुलक ....
मुर्दों की कमी नहीं है
पिछले चालीस बरस से
देख रहा हूँ
बढ़ा भौत है
लावारिस लाशों का नम्बर
कटे फटे तेज धार से
गुम सुम चोटों से मर कर
लुटी इज्जतें जिनकी
ऐसी निरी औरतें
लेकिन तनखा बित्त बित्त बढ़ती है
जा .... चली जा हियाँ से... जा
मूँह काला कर
चाण्डाल कहीं की ...
तु क्या बेचे

अब चुप जा
भौत हाँक ली
डींग सड़क पै
मुझे नहीं डर चक्कू
सूजे का
खाती हूँ झाड़ू का
यह सड़ा शहर है
नहीं अंत कींचड़ का
मुझ पर क्या भभक मारता
उतर ज़ा नीचे अरबी घोड़े से
लगे पता भाव तब
दाल आटे का ।
 --0--

यह कविता मेरे संकलन, ‘घरती कामधेनु से प्यारी’ में संकलित है। मुझे डर था हिंदी के लोगों की प्रतिक्रिया बड़ी खराब होगी। पर सबसे पहले हिंदी के प्रतिष्ठित समीक्षक रेवतीरमण जी ने अपनी समीक्षा कृति, ‘कविता में समकाल’ मेरी कविता पर एक पूरा अध्याय दिया है। उसमें इस कविता पर टिप्पणी करते हुये कहा है, ‘मुर्दा सीने वाला’ तो सर्वहारा कला के इतिहास की बड़ी घटना हे। इसमें नायक नायका का जो संवाद है, वह अपूर्व है। कहना चाहिये, इस कविता की मार्फत, हिंदी की प्रबंध काव्य परंपरा में जो परिशिष्ट में भी उल्लेखनीय नहीं था।, केंद्रीय स्थान पा गया है। ‘मुर्दा सीने वाला’ भी कविता का, उसमें भी प्रबंध कविता का, विषय हो सकता है, विजेंद्र से पहले शायद किसी ने नहीं सोचा।’ इस टिप्पणी को पढ़ कर मुझे थोड़ी तसल्ली हुई। नये और अछूते कथ्य चुनने को साहस करना पड़ेगा। जोखिम भी उठाना पड़ सकता है। कुलीन -भद्र -तथा प्रभु वर्ग ऐसी कविता की उपेक्षा करेगा। अधिकांश कवि इस  जोखिम को नहीं उठा सकते। फिर जब हम चुनौती देते हैं तो हमें उस पर दृढ़ रहने के लिये शकित भी अर्जित करनी होगी। यह शक्ति सर्वहारा के पक्ष में खुल्लम-खुल्ला खड़े होने से ही अर्जित की जा सकती है। तभी हम प्रचलन से अलग और भिन्न अपनी काव्य यात्रा का पथ निर्मित कर पायेंगे। प्रभुवर्ग के समीक्षकों की उपेक्षा से सर्वहारा के समर्थक कवि को कभी भयभीत नहीं होना चाहिये। वर्ग समाज में वर्ग मित्र होते हैं। पर वर्ग शत्रु भी। तो संघर्ष दुर्निवार सत्य है। जिस कवि कोई संघर्ष काव्य यात्रा नहीं वह कभी प्रभावी नहीं हो सकता। खैर, ये सब बातें मैंने ‘मोछू नेटुआ’ को ध्यान में रख कर ही कहीं हैं। ध्यान दो जब वर्ग शत्रु हमारी तारीफ के गीत गाये तो समझो हम पथभ्रष्ट हो चुके हैं। हमारी कविता की तारीफ कौन किसा मकसद से कर रहा है कवि को समझ लेना जरूरी है। मेरा विनम्र सुझाव है कि कविता को अपेक्षित ऊँचाइयों तक ले जाने के लिये एक किसान की तरह ही तैयारी करनी पड़ती है। किसान धूप - ताप,शीत, वर्षा तूफान कुछ नहीं देखता। उसका एक ही लक्ष्य है धरती को कमा के बेहतर फसल लेना। यह काम आकस्मिक नहीं है। बल्कि पूर्णकालिक है। मुझे उम्मीद है तुम मेरी बातों को सही परिप्रेक्ष्य समझोगे। ‘मोछू नेटुआ’ यदि नहीं पढ़ी होती तो कदाचित् तुमसे इतना गहन और विस्तृत संवाद न हो पाता। इस कविता को पढ़ कर मैं तुम्हारे कवि के और करीब आया हों। तुम्हारा संग और प्रगाढ़ हुआ है। कब तक रहेगा यह तो समय ही बता पायेगा।

     नाजि़म लगभग पूरा है। उसे एक दो बार देख कर भेज दूँगा।

     प्रसन्न रहो। मेरा आशीर्वाद तथा ढेर शुभ कामनायें।

                                                              सस्नेह,

                                                              विजेंद्र



टिप्पणियाँ

  1. 'लोक'या कहिये आम आदमी ,आज कविता/कहानी से ही नहीं;पूरी सामाजिक व्यवस्था से ही उखाड़ कर हासिये से बाहर फेंक दिया गया है!
    आप दोनों की उपरोक्त कवितायेँ उसे मुख्य धारा में वापस लाने का एक संकल्प -पत्र सी लगती हैं !

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत आत्मीयता से भरा पत्र जो वरिष्ट पीढ़ी में केवल विजेंद्र जी जैसा प्रतिबद्ध रचनाकार ही युवा पीढ़ी के कवि ही लिख सकता है . यहाँ विजेंद्र जी की प्रतिबद्धता के साथ -साथ संतोष भाई की इस कविता की ताकत भी कही जाएगी जिसने उनसे यह पत्र लिखवा लिया. माछो नेटवा कविता मुझे भी बहुत पसंद है . उस कविता पर विजेंद्र जी की राय से मैं भी पूरी तरह सहमत हूँ.संतोष भाई को बहुत -बहुत बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  3. पूरा पत्र पढ़ा भाईजी...मार्गदर्शक पत्र - मुझे भी कुछ सीखने को मिला ..पोस्ट करने का शुक्रिया...

    जवाब देंहटाएं
  4. जरुरी संवाद करता एक आत्मीय पत्र कहूँगा इसे जो सिर्फ संतोष जी को नहीं बल्कि देशकाल को भी संबोधित है .. लोक की व्याख्या के आलोक में श्री विजेंद्र की कविता को 'लोक कविता' कहना पसंद करूँगा जहाँ शब्द और परिदृश्य में अपना आम आदमी अपने निजी संवाद में समय की नीम हकीमी सच्चाई की दर्जबयानी चाहता है ..

    ' मोछू नटुआ ' पढने की इच्छा अब जोर मार रही है ..

    जवाब देंहटाएं
  5. कई मायनों में यह पत्र एक धरोहर की तरह है ..इसमें न सिर्फ लोक की प्रासंगिकता और उससे जुडाव झलकता है , वरन एक वरिष्ठ कवि द्वारा अपनी कनिष्ठ पीढ़ी को दिया जाने वाला मार्गदर्शन भी उद्घाटित होता है ...आप सौभाग्यशाली हैं , कि विजेंद्र का यह आत्मीय पत्र आपको मिला ..बधाई |

    जवाब देंहटाएं
  6. santosh ji ki mochunatuva kavita lokjeevan ke atishay gumnaam charitra ka pramanik chehra hai. yadi charitra pradhan kavitayen likhna kathin hai to pramanik charitron se bhari kavitayen likhna aur bhi kathin. santosh ji ki anek lambi kavityen apne vishay ki bahuaayami arthvatta ka adhikaar poorvak udghatan karti dikhyee dikhyee deti hain. maan ka ghar , bhabhakna , jaisi kavityen , is lambi kavita se alag ek naye arth ko swar deti najar aati hain. sirf moochu natuwa kavita ko hi dekhkar yakin kiya ja sakta hai ki santoosh ji bhavishya men aisi aur charitra pradhan pramanik kavitayen likhenge jismen ati upeshit hindustaani apna chehra dekhkar aatm-samman ka anubhav karega. bharat prasad

    जवाब देंहटाएं
  7. Iss post ke liye haardik dhanyavaad. Vijendra jaise bade lokdharmee kavi kee aatamiyata dekh kar tathakathit pragtisheel mathadheesh kavion ko sabak lena chahie jo nayi peedee se samvaad ko apnee toheen samajhte hain.bahoot kuch sikhne ko mila..santosh jee ka abhaar!

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'