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मार्च, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अमीर चन्द वैश्य

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गीतकार सुभाष वशिष्ठ का अभी हाल ही में एक नवगीत  संकलन बना रह ज़ख्म तू ताजा आया  है। वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द्र वैश्य ने इस संकलन पर एक समीक्षा लिखी है जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।   निजी अनुभूतियों का साधारणीकरण    मेरे सामने एक नवगीत  संकलन है। ‘ बना रह ज़ख्म तू ताजा ‘। गीतकार हैं सुभाष वसिष्ठ । मेरे अंतरंग मित्र और परम आत्मीय। पारिवारिक सम्बन्धों से जुड़े हुए। अपने नाम के अनुरूप मधुर भाषी और निर्भीक वक्ता। महान् नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के समान। अपना जीवन-पथ स्वयं निर्मित करने वाले। ऐसे सुभाष  वसिष्ठ से मेरा मौन साक्षात्कार  सन् 1974 में हुआ था, जब वह ने0मे0शि0 ना0 दास (पी0जी0) कालेज, बदायूँ में हिन्दी प्रवक्ता पद के लिए प्रत्याशी थे। उस समय विभाग में प्रवक्ता पद के लिए दो स्थान रिक्त थे। मैं भी प्रत्याशी था। विभिन्न वेश-भूषा में सजे हुए अनेक प्रत्याशी। मैं सबके चहरे पढ़ रहा था। उनकी बातें सुन रहा था। एक सुदर्शन युवक हँसमुख शैली में सभी से बतिया रहा था। बातें नई कहानी के बारे में हो रही थीं शायद। वह सुदर्शन युवक आकर्षक मु

कैलाश बनवासी

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         जन्म- 10 मार्च 1965, दुर्ग शिक्षा- बी0एस-सी0(गणित),एम0ए0(अँग्रेजी साहित्य) 1984 के आसपास लिखना शुरू किया। आरंभ में बच्चों और किशोरों के लिए लेखन। कृतियाँ- सत्तर से भी अधिक कहानियाँ देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। बहुतेरी कहानियाँ चर्चित,किंतु कहानी ‘बाजार में रामधन’ सर्वाधिक चर्चित। अब तक तीन कहानी संग्रह प्रकाशित-‘लक्ष्य तथा अन्य कहानियाँ’(1993),‘बाजार में रामधन’(2004) तथा ‘पीले कागज की उजली इबारत’(2008) कहानियाँ गुजराती,पंजाबी,मराठी,बांग्ला तथा अँग्रेजी में अनूदित। पहला उपन्यास ‘लौटना नहीं है’ शीघ्र प्रकाश्य।  सम-सामयिक घटनाओं तथा सिनेमा पर भी जब-तब लेखन। पुरस्कार- कहानी ‘कुकरा-कथा’ को पत्रिका ‘कहानियाँ मासिक चयन’(संपादक-सत्येन कुमार) द्वारा 1987 का सर्वश्रेष्ठ युवा लेखन पुरस्कार। कहानी संग्रह ‘लक्ष्य तथा अन्य कहानियाँ’ को 1997 में श्याम व्यास पुरस्कार। दैनिक भास्कर द्वारा आयोजित कथा प्रतियोगिता ‘रचना पर्व’ में कहानी ‘एक गाँव फूलझर’ को तृतीय पुरस्कार। संग्रह‘पीले कागज की उजली इबारत’ के लिए 2010 में प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान। संप्रति- अ

अरुणाभ सौरभ

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युवा कवि अरुणाभ सौरभ को मैथिली में बेहतर रचनाधर्मिता के लिए इस वर्ष का साहित्य अकादमी युवा लेखक पुरस्कार प्रदान किया गया है। सम्मान गुवाहाटी में 22 मार्च 2013 को प्रदान किया  गया । इस अवसर के लिए अरुणाभ ने अपना जो वक्तव्य तैयार किया वह पहली बार के लिए पाठकों के लिए प्रस्तुत है। एक बार फिर हम अपने युवा साथी अरुणाभ को इस महत्वपूर्ण पुरस्कार के लिए बधाई देते हुए उनके रचनात्मक जीवन के लिए शुभकामनाएं व्यक्त कर रहे हैं। एक युवा कवि किस तरह अपनी बोली-बानी से जुड़ कर महत्वपूर्ण रचनाएँ लिख सकता है, वह इस आलेख को पढ़ने से स्पष्ट होता है।  तो आईये रूबरू होते हैं सीधे-सीधे अरुणाभ के वक्तव्य से।    अपनी रचनाशीलता के विषय में                                                  अपने लिखने को ले कर हर रचनाकार को एक संशय एक द्वंद्व हमेशा बना रहता है। मेरे साथ भी यह गंभीर सवाल है,पर जिसके एवज मे मैं इतना ही कह सकता हूँ कि लिखना मेरे लिए एक चुनौती की तरह है। हर युग मे जितनी चुनौतियाँ गंभीर होंगी उतनी ही रचनात्मक जिम्मेदारियाँ भी बढ़ती जाएंगी। मैं अपनी मातृभाषा मैथिली और हिन्दी मे समान रूप से लि

रमाकान्त राय

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मार्कंडेय जी की पुण्यतिथि विशेष के क्रम में प्रस्तुत है रमाकांत की मार्कंडेय जी के नाम पाती। अपनी इस पाती में रमाकांत ने मार्कंडेय जी की रचनाओं को आधार बनाकर कई ज्वलंत मुद्दों की ओर इशारा किया है, जो सहज ही हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। तो लीजिये आप भी पढ़िए रमाकांत की यह पाती।  आदरणीय श्री मार्कंडेय  जी, सोस्ती  श्री उपमा योग्य पत्र लिखा इलाहाबाद के एक अदना से पाठक की ओर से आपके चरणों में  सादर प्रणाम पहुंचे. कैसे हैं? आने वाले १८ मार्च को तीन साल हो जायेंगे, जब आप यहाँ अपना पार्थिव शरीर छोड़ कर चले गए. हम सब बहुत रोये, आपके जाने के बाद! सारा इलाहाबाद शोक में डूब गया था. हम सब आपकी याददाश्त के मुरीद थे. सबको हमेशा इल्म रहता था कि आप नए और अपरिचित पाठकों का भी हमेशा ख्याल रखते हैं, छोटी-छोटी बातें भी ध्यान में रखते हैं . फिर आप अपनी लम्बी छरहरी, गौर वर्ण की काया पर सदैव सुशोभित सफ़ेद कुरता-पायजामा वाला शरीर कैसे भूल गए!! सबलोग बहुत निराश हुए और हताशा और निराशा में ही सबने उस शरीर को पंचतत्व में मिला दिया. आप चले गए तो सबको बहुत दुःख हुआ ! सबने अपने-अपन

दुर्गा प्रसाद सिंह

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मार्क ण्डेय जी की पुण्यतिथि पर विशेष प्रस्तुति के क्रम में आज प्रस्तुत है दुर्गाप्रसाद सिंह का आलेख 'प्रेमचंद की परम्परा के विस्तार हैं कहानीकार मार्क ण्डेय.' दुर्गाप्रसाद मार्क ण्डेय जी के आत्मीय रहे हैं और इन दिनों उनके अप्रकाशित कार्यों के प्रकाशन का दायित्व निभा रहे हैं.     प्रेमचंद की परम्परा के विस्तार हैं कहानीकार मार्क ण्डेय आज जबकि गाँव और किसान दोनों बाजारवादी प्रसार के बीच बेतरह पीछे छूटते जा रहे हैं और विकास की वेदी पर उनको होम किया जा रहा है मार्क ण्डेय को याद करना ज्यादा मार्के का काम लगता है। क्योंकि मार्क ण्डेय की कहानियों के केन्द्र में यही गाँव और किसान हैं। मार्क ण्डेय का जन्म खुद एक किसान परिवार में १९३० ईस्वी में हुआ था। जो जौनपुर जिले के बराई गाँव में पड़ता है। छठवीं कक्षा के बाद वे अपनी बुआ के यहाँ प्रतापगढ़ चले गये जहाँ इण्टर तक की पढ़ाई के बाद उच्चशिक्षा के लिए इलाहाबाद पहुँचे और वहीं जीवनपर्यन्त रहे। इस किताबी ज्ञानशालाओं की यात्र