अरुणाभ सौरभ



युवा कवि अरुणाभ सौरभ को मैथिली में बेहतर रचनाधर्मिता के लिए इस वर्ष का साहित्य अकादमी युवा लेखक पुरस्कार प्रदान किया गया है। सम्मान गुवाहाटी में 22 मार्च 2013 को प्रदान किया  गया । इस अवसर के लिए अरुणाभ ने अपना जो वक्तव्य तैयार किया वह पहली बार के लिए पाठकों के लिए प्रस्तुत है। एक बार फिर हम अपने युवा साथी अरुणाभ को इस महत्वपूर्ण पुरस्कार के लिए बधाई देते हुए उनके रचनात्मक जीवन के लिए शुभकामनाएं व्यक्त कर रहे हैं। एक युवा कवि किस तरह अपनी बोली-बानी से जुड़ कर महत्वपूर्ण रचनाएँ लिख सकता है, वह इस आलेख को पढ़ने से स्पष्ट होता है।  तो आईये रूबरू होते हैं सीधे-सीधे अरुणाभ के वक्तव्य से।  

अपनी रचनाशीलता के विषय में
                                                
अपने लिखने को ले कर हर रचनाकार को एक संशय एक द्वंद्व हमेशा बना रहता है। मेरे साथ भी यह गंभीर सवाल है,पर जिसके एवज मे मैं इतना ही कह सकता हूँ कि लिखना मेरे लिए एक चुनौती की तरह है। हर युग मे जितनी चुनौतियाँ गंभीर होंगी उतनी ही रचनात्मक जिम्मेदारियाँ भी बढ़ती जाएंगी। मैं अपनी मातृभाषा मैथिली और हिन्दी मे समान रूप से लिखता हूँ। स्पष्ट है कि यहाँ मुझे मेरी मातृभाषा के लिए सम्मान मिला है जो मेरे लिए बहुत गौरवपूर्ण है। मैं उस भाषा की रचनाशीलता से जुड़ा हूँ जो जनकवि विद्यापति की रचनात्मक भाषा है। जिसमे विद्यापति ने अपना सर्वोत्तम दिया है।जिसको कालांतर मे भी आधुनिक काल मे नवजागरण के बाद हरिमोहन झा, मणिपद्म, यात्री, राजकमल चौधरी, फणीश्वर नाथ रेणु आदि ना जाने कितने महत्वपूर्ण रचनाकारों ने अपनी भाषिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है।

                  मैथिली एक जनभाषा है। जो अपनी विशिष्ट क्षेत्रीय संस्कारों, विशिष्ट संस्कृतियों के कारण मशहूर है। मैं उस क्षेत्र से हूँ जो क्षेत्र प्रतिवर्ष प्रलयंकारी बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं का साक्षी रहा है, जिस क्षेत्र ने न जाने कितने संताप को अपने अंदर समाहित किया है। अविकास की पीड़ा, उद्योग धंधों का अभाव,बढ़ते हुए पलायन, और उन सब के बीच गाँव और देहात के प्रति बार-बार मोह, आस्था, मुझे अपने उस क्षेत्र की तरफ खींच ले जाती हैं जो दुख-दर्द मे भी गीत गाने का  अभ्यस्त है। मिथिलाञ्चल के भी अत्यंत हाशिये के क्षेत्र कोसी अंचल का मैं हूँ जो मेरी जन्मभूमि भी है और रचनाभूमि भी। वही बाढ़, उससे उपजे विस्थापन की पीड़ा और उस सबके बीच पनपे गरीबी का मैं भुक्तभोगी हूँ जाहिर सी बात है कि मेरी रचनाओं मे वही बातें आएंगी जिसका मैं प्रत्यक्षदर्शी हूँ। इसीलिए मैथिली मेरे लिए सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है, मैथिली मेरे लिए उस जीवन की तरह है जिसके जीने का मैं आदी रह चुका हूँ। जो जीवन अपनी उपलब्धियों और सीमाओं मे एक पहचान है।


         आज भूमंडलीकरण के बढ़ते प्रभाव ने समस्त भारतीय जीवन को एकांगी बनाने पर मजबूर कर दिया है। इसीलिए आज इस युग मे ग्लोबल बनाम लोकल का संघर्ष भी तेज़ हुआ है।इस ग्लोबल बनाम लोकल के संघर्ष मे लोकल की जीत हो स्थानीय संघर्षों की जीत हो ,जीत हो उस विराट सामासिक संस्कृति की जो अपनी प्रचुरता मे ना जाने कितने लोक की पीड़ा को आत्मसात कर रही है। इसीलिए मेरी कवितायें उस लोक-जीवन का हिस्सा है,जो हर स्तर पर उस वैश्वीकृत ग्राम की अवधारणाओं को चुनौती दे रहा है, स्थानीय संघर्षों को अभिव्यक्ति देने की मुहिम मे शामिल है।उस लोक गीत की तरह है जिसे जीवन गा रहा है।

        ग्लोबल हस्तक्षेप मे लोकल को बचाना मेरी नैतिक ज़िम्मेदारी है, अपने विचार संस्कृति, कला, दर्शन को बचाना भी मेरी रचनाशीलता का अनिवार्य हिस्सा है। जाति, धर्म, लिंग, नस्ल, संप्रदाय से ऊपर उठ कर विराट सामासिक संस्कृति का हिस्सा होना ही मेरी रचनात्मक पहचान है। इसके साथ-साथ प्रगतिशील कला मूल्यों की सर्जना करना एक रचनात्मक कार्य है। यह सब कुछ मेरी ज़िंदगी और कविताई दोनों का हिस्सा है। उस भाषा मे जहां अभिव्यक्ति का स्थानीय स्वरूप वही है जो मेरे आस-पास की बनती-बिगड़ती दुनिया है। उस दुनिया मे हम सब जी रहे होते हैं,पल-बढ़ रहे होते हैं। इसीलिए उस दुनिया मे प्रवेश करने, उसकी विसंगतियों से जूझने, उसके अंदर पसर रही विद्रूपताओं की पहचान करने, उसमे उठ रहे सवालों से जूझने, और उसकी बारीक समझ रखने की जब-जब कोशिश करता हूँ कविता बनती जाती है। इसीलिए मैथिली मेरे लिए प्रतिरोध की ही भाषा है। जो मिथिला के संघर्षशील आमजन की भाषा है, जिस भाषा मे पला-बढ़ा और शिक्षा-रोजगार हेतु उस क्षेत्र से पलायन को अपनी नियति मान लिया पर दिल के कोने मे पल रही भाषा मुझे लिखने पर विवश करती रही। जब-जब मैथिली मे लिखता हूँ अपने आस-पास के लोगों से जुड़ता हूँ। अपने गाँव को जीता हूँ, बार-बार विस्थापित होकर भी अपना गाँव जाता हूँ। वहाँ के लोकगीतों मे, लोककथाओं मे, और अपने गाँव के खेतों मे, खलिहानों मे बगीचों मे खो जाता हूँ। किसानी जीवन मे पाला गया हूँ और आज गाँव मे भी शहरी जीवन के ताम-झाम पसर रहे हैं। उस गाँव की संवेदना को बचाने की पूरी कोशिश मे ताक़त के साथ जुट जाता हूँ। फणीश्वर नाथ रेणु का ‘मैला आँचल’ हिन्दी उपन्यास मेरे लिए प्रेरणा स्रोत की तरह है, जिसमे आज़ादी के बाद अभाव मे पल रहे ग्रामीण जन की पीड़ा को सार्थक, और कलात्मक अभिव्यक्ति दी गयी है। इतना ही नही गाँव की कलाओं, लोकगीतों, लोककथाओं और संघर्षों का जीवंत दस्तावेज़ है- मैला आँचल’. फिर हरिमोहन झा, यात्री,राजकमल चौधरी और आज के मैथिली के लेखकों की रचनाओं से जुड़ना सुखद अनुभूति की तरह रहा। इसके अलावा अंग्रेजी, और रूसी साहित्य को गंभीरता से पढ़ते हुए मैंने अपने साहित्यिक ज्ञान का परिष्कार किया।



                  शुरुआती दौर में यानि इंटरमीडिएट तक मैं विज्ञान का विद्यार्थी रहा, जिस विज्ञान ने चीजों को समझने की वैज्ञानिक दृष्टि दी। मैं हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी रहा हूँ, अभी भी हूँ पर हिन्दी और अंग्रेजी नहीं पढ़ा होता तो शायद मैथिली भी नही लिख पाता। इसीलिए मेरा हिन्दी और अंग्रेजी से कोई विरोध नहीं है, बशर्ते भाषिक राजनीति में प्रवृत्तियाँ साम्राज्यवादी नहीं हो। साथ ही आरंभिक दौर मे छात्र आंदोलन, वैकल्पिक समाजवाद मे आस्था आदि मेरे लिए जीवन जीने का तरीक़ा बन गया। इसी सब के बल पर आज निर्भ्रांत होकर आपके सामने हूँ।

                इसके अलावा साहित्य को पढ़ने की एक आदत  बचपन से ही रही। बी.ए करते-करते पत्र-पत्रिकाओं से नियमित रूप से जुड़ गया। हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं को पढ़कर मेरी चेतना की निर्मिति हुई है। इसीलिए बी.ए करते समय ही मैथिली की पत्रिकाओं को पुस्तकों को पहली बार देखा, एक आकर्षण अपनी मातृभाषा के प्रति हो गया सोचा क्यूँ ना इस अपनी भाषा को भी अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बानाऊ। और फिर हिन्दी और मैथिली मे समान रूप से रचने लगा। पर शुरू से ही मैं स्पष्ट था कि जो चीज़ हिन्दी मे लिखूँ वो सिर्फ हिन्दी मे लिखूँ पर जो मैथिली मे लिखूँ वो भी सिर्फ मैथिली मे ही हो। जिस चीज़ को मैथिली मे नहीं लिख सकता उसे ही हिन्दी मे लिखता हूँ और जिसको हिन्दी मे नहीं लिख सकता उसे मैथिली मे लिखता हूँ। मैथिली मेरी उस माँ की तरह है जिसने मुझे अपना दूध पिला कर पाला है, तो हिन्दी मुझे दो वक़्त की रोटी खिलाने तैयार होने और जिम्मेदारियाँ सिखलाने वाली माँ की तरह है। दोनों ही भाषाएँ मेरी अभिव्यक्ति का माध्यम इसीलिए है। पर अपनी मौलिकता मे पूरी ऊर्जा के साथ मैथिली मेरे संस्कार की भाषा है।

              जब से मैथिली में लिखना शुरू किया उस समय मैथिली मे पत्र-पत्रिकाओं का अभाव तो था ही, वैसे यह अभाव आज भी है। मैथिली मे लिखने वालों की कमी नहीं है, कमी है पत्रिकाओं की, प्रकाशकों की, पाठकों तक पहुचाने वाले नेटवर्क की। मैथिली मे हर युग मे अच्छी रचनाएँ लिखी गयी है, पर व्यापक पाठक वर्ग का अभाव, उचित प्रकाशन तंत्र के अभाव मे और वहाँ के लोगों के अंदर मैथिली को लेकर, मिथिला की संस्कृतियों को ले कर निष्क्रियता ने मैथिली मे काम करने के विश्वाश को बढ़ा दिया। एम.ए करने के दौरान 2008 मे बी.एच.यू से ही ‘नवतुरिया’ नामक मैथिली पत्रिका की शुरुआत किया अपने मित्रों से चंदा ले-ले कर और अपने खर्च के पैसों से जैसे-तैसे। मित्रों को छोड़ दिया जाय तो आम पाठकों तक पहुँचाने मे असफल रहा। पर इससे मित्रों का एक नेटवर्क ज़रूर तैयार हुआ बी.एच.यू में। ये वे मैथिली भाषी थे जो पढ़ने के लिए बनारस आए थे। उन्हें लिखना और मैथिली मे लिखी हुई चीजों को देखने का बहुत शौक था।


     सवाल मेरे लिए लिखने और मातृभाषा मे लिखने को लेकर है तो मैं स्पष्ट कर दूँ कि पूरी समझदारी और विवेक से लिया गया यह व्यक्तिगत निर्णय है, ताकि मैं लोकल होकर अपने आपको बचाए रखूँ। हमेशा बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ ही निर्णायक नहीं होती है कभी-कभी गुरिल्ला वार से भी कई लड़ाइयाँ जीती गईं हैं। साहित्य-संस्कृति का काम ही जीवन को बचाना और बेहतर बनाना है इसीलिए। आज उपनिवेशवादी ताक़तें जीवन को बेचने की मुहिम मे शामिल है,और साहित्य बचाने का संकल्प लेकर चलता है, इसी विसंगतियों से लड़ने मे एक छोटा सा हस्तक्षेप मैं लिख कर, नाटकों में अभिनय कर, बेहतर मानुषी प्रवृत्तियों को आत्मसात कर पूरा करना चाहता हूँ। मेरी मातृभाषा मे लिखने की प्रक्रिया भी यही है, मेरी मंशा भी यही है। विश्व के महान लेखक रसूल हमज़ातोंव ने ‘मेरा दागिस्तान’ मे अपनी मातृभाषा आवार के संदर्भ मे एक कविता लिखी है जिसकी ये पंक्तियाँ मुझे बहुत प्रभावित करती हैं-

‘’मैंने तो अपनी भाषा को, सदा हृदय से प्यार किया है
बेशक लोग कहे कहने दो, मेरी यह भाषा दुर्बल है,
बड़े समारोहों मे इसका, हम उपयोग नहीं सुनते हैं
मगर मुझे तो मिली दूध में, माँ के, वह तो बड़ी सबल है।‘’


अंततः मैं यही कहना चाहता हूँ कि मेरी मैथिली मेरे संघर्षशील आम-जन की, अंतिम जन की भाषा है जो अपनी मिठास मे कोयल की कूक की तरह, मिश्री की तरह मीठी है जिसमे लिखना उस जीवन मे शामिल होना है जिस जीवन का साक्षी हूँ, भोक्ता हूँ और जो जीवन मुझे मिला है उसे पूरी गंभीरता से जीते हुए अपना हिस्सा तय कर रहा हूँ। अपने लोकजीवन में गहराई से जुड़ना ही अब मेरी रचनात्मकता भी है और रचनात्मक पहचान भी।
        

(इस वक्तव्य में प्रयुक्त पेंटिंग्स 'मधुबनी पेंटिंग्स' हैं जिसे हमने गूगल से साभार लिया है।)

संपर्क-
ई-मेल: arunabhsaurabh@gmail.com
मोबाईल:  09957833171

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