वन्दना शुक्ला




हमारे समय के कहानीकारों में वन्दना शुक्ला अब एक सुपरिचित नाम है। इधर की पत्र-पत्रिकाओं में वन्दना ने अपनी कहानियों के जरिये अपनी एक सुस्पष्ट पहचान बना ली है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है वन्दना शुक्ला का की लम्बी कहानी 'किस्सों में कोलाज' का एक अंश।  

चौथा किस्सा  

मै चला जा रहा था एक अनजान से रास्ते पर निहायत नामालूम सडकों पर से होता हुआ। मै इस वक़्त मनुष्य के जीवन की आदिम अवस्था में था बिलकुल एक खानाबदोश जिसे खुद नहीं मालूम कि उसका अगला ठिकाना कहाँ होगा? वैसे भी एक किस्सागो और खानाबदोश में बहुत कम फर्क होता है। हाडतोड़ जाड़ा, धूसर बेरंग ऊंघता आकाश, हर चीज़ अपने में धुंधलाहट लपेटे हुए कहीं जंगल, कहीं खेत, कहीं इमारतों की भीड़ जिनकी चिमनियों से मटमैला गाढा धुआं बलखाता हुआ निकल रहा था। तब मुझे याद आई उस बुद्धिजीवियों के देस की ...जो उस दुकान वाले आदमी ने मुझे बताया था और मैं अपने किस्सों की पोटली लिए चल पड़ा उस दिशा में। लडकी की गीली स्मृति मेरे किस्सों की गठरी में सबसे ज्यादा भारी थी। उस वक़्त मुझे महसूस हुआ कि कुछ चीज़ें खो जाने के बाद अधिक बोझिल हो जाती हैं। जीवन में कुछ दिन खुशियों भरे पा लेना भी तो चमत्कार से कम नहीं होता? पता नहीं वो लडकी की याद थी या मेरे प्रायश्चित जिनकी अँधेरी सुरंग में मै प्रवेश कर रहा था या शायद लडकी अपनी ख़ूबसूरत आँखों की घनी बरौनियाँ झुका कर मुस्कुरा रही थी। मेरा शरीर रोमांच से भर गया। मै चलता गया चलता गया उसकी यादें जो मेरी उदासी के घुप्प अँधेरे में लालटेन लिए मेरे आगे आगे चल रही थीं। मेरे किरमिच के जूते घिस गए तलवे धुप में सुलगने लगे पर मै चलता गया। मेरे बाल दाड़ी और नाख़ून बढ़ गए मुझे खुद से कोफ़्त होने लगी। सडकें युगों से लम्बी थीं। रास्ते के जंगल में लगे शहतूत, आंवले, अमरुद जैसे पेड़ों के फल खा कर मै अपना पेट भरता और किसी भी पेड़ के नीचे पोटली सर के नीचे रख कर सो जाता और आखिरकार मै वहां पहुँच ही गया। वहां के लोगों की पोशाकें कुछ अलग किस्म की थीं। लम्बे कुरते और पाजामे कंधे पर झोला और चेहरा बालों से भरा हुआ। कुछ लोग नदी किनारे बैठे नदी पहाड़ों व् आसमान में उड़ते पक्षियों की तरफ एकटक देख रहे थे और फिर कुछ लिख रहे थे। मैंने अपना किस्सों का झोला टटोला शायद इन्हें पक्षियों या बारिश के किस्सों की ज़रुरत है मै किनारे बैठ कर उन्हें ध्यान से देखने लगा। मुझे प्यास लगी थी जब तक मैंने अंजुली में नदी से भर कर पानी पीया वो मनुष्य गायब हो गए।

‘यहाँ के लोगों के पास वक़्त की बहुत कमी है। ये मेरी पहली राय थी इस देश के नागरिकों के बारे में। |मैंने अपने छोटे किस्सों को गठरी में ऊपर की तरफ सहेजकर रख लिया।
कुछ दूरी पर एक समूह में लोग खड़े हुए कुछ चर्चा कर रहे थे। |मैं उनके पास गया ...मैंने कहा
‘’जनाब ...मै किस्सों के देस से आया हूँ किस्सागो हूँ किस्से बेचता हूँ क्या आप खरीदेंगे मेरे किस्से? हलाकि मै बहुत भूखा था और उनसे घिघिया कर अपनी हालत बयान और किस्सा खरीदने का अनुरोध करना चाहता था मुझे यकीन था कि मेरी हालत पर वो पिघल जाते और कुछ भोजन की व्यवस्था करा देते लेकिन अपनी पुश्तैनी खुद्दारी का क्या करूँ बताइए जो वक़्त-बेवक्त कहीं भी ढीठ बालक की तरह अड़ जाती थी! वो लोग कुछ देर मुझे घूरते रहे उन्होंने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा ...अब मुझे इस प्रतिक्रिया की आदत हो चुकी थी।
ठीक है खरीद सकते हैं।

मैंने देर से बचाई अपनी अधूरी सांसें पूरी कीं और दबोची हुई भूख को ज़रा खुला छोड़ दिया।
निस्संदेह तुम हमारी ही बिरादरी के हो। हम लिखते हैं तुम उन्हें कहते हो बस विधा का ही फर्क है श्रीमान। वैसे आपके साहित्य रचने का उद्देश्य क्या है?
साहित्य शब्द मेरे लिए उतना ही आक्रान्तक और नया था जितना उद्देश्य।
मुझे असमंजित  भाव-मुद्रा में देख उन्होंने कहा
‘हमारा तात्पर्य कौन सी विचारधारा के किस्से हैं आपके पास?  मार्क्सवादी या दक्षिण पंथी? प्रगतिशील किस्सागो हो या जनवादी? प्रेमचन्द से प्रभावित हो या अज्ञेय से? उनमे से एक ने जिसके चेहरे पर सयानेपन का तेज़ दिपदिपा रहा था कहा
ये क्या होता है जनाब... हम तो केवल जीवनधारा समझते हैं विचारधारा का मतलब भी नहीं जानते सरकार। हम तो बस यूँ ही सुने सुनाये किस्से  ....



अरे आप कैसे किस्सागो हैं भाई? विचारधारा का मतलब तक नहीं जानते?
मैं आत्म ग्लानी से बुझा सा आँखों से ज़मीन खोदने लगा।
बिना विचारधारा के आखिर जिंदा कैसे हैं आप और क्यूँ? उनके चेहरे पर हिकारत के भाव देख कर मेरी रही सही आशा भी टूटती दिखाई देने लगी।
मै फिर मुहं बाए उनकी और देखता रह गया।  काश पहले पता होता कि इस प्रश्न से दो चार होना पड़ेगा  तो दादी से बचपने में ही पूछ लिया होता विचारधारा का मतलब ..वही तो हैं मेरी सबसे पहली गुरु थीं ...किस्सों की खदान मेरी दादी ..दुनियां की सबसे बड़ी किस्सागो...
अचानक उन साहित्य मनीषियों में से एक स्वर फिर गूंजा
चलो कोई बात नहीं ...कई लेखक भी सौन्दर्य बोध को विचारधारा से ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं। वैसे भी सोवियत संघ के टूटने के बाद अब तो विचारधाराओं की चौखटें भी तड़क रही हैं। अमेरिकी विद्वानों ने तो इस दौर को एंड ऑफ़ आईडीयोलोजी तक कह ही दिया है!.....

अच्छा ठीक है (एक पांडित्य पीड़ित ने कहा )-....तो ये बताइए कि किर्केगाद और एलेन की तरह आप आस्थावादी दार्शनिक हैं अथवा  सार्त्र कामू की तरह अनीश्वरवादी? फेंटेसी या यथार्थवादी ...कवि भी हैं साथ में तो छायावादी हैं या मुक्त छंद की कवितायेँ लिखते हैं? ये तो पता ही होगा कि आज के ज़माने में लेखक सिर्फ एक विधा का खूंटा पकड लेखक नहीं बन सकता वो कवी/कथाकार /आलोचक/निबंधकार/दार्शनिक/ प्रकाशक,संपादक आत्म कथाकार अगड़म-बगड़म अल्लम वल्लम सब का कॉकटेल होता है ...नहीं तो टुच्चा लेखक कहाता है।
मैं किंकर्तव्य विमूढ़ता की हदों को लांघता भोंचक ...।

लगता है ये महाशय आधुनिकता और विकास का ककहरा भी नहीं जाते ...अरे श्रीमान आपने बाजारवाद, ग्लोबल कल्चर , विश्व ग्राम, यानी ग्लोबल विलेज जैसे नाम सुने हैं ? दूसरा स्वर मेरे कानों में आ कर गिरा
उनके उलाहने मूर्खता बन मेरे चेहरे से टप-टप निचुड़ रहे थे।

अब मुझसे प्रश्न करने वाला खीझ गया बोला -अरे भाई कोई तो विषय होते होंगे तुम्हारे किस्सों के ...कोई ख़ास जैसे वामपंथी आन्दोलन,स्त्रियों पर अत्याचार के ,सर्वहारा वर्ग और दलितों की दुर्दशा के साहित्यिक संगठनों या फिर राजनैतिक अव्यवस्थाओं के ,पर्यावरण,भूमंडलीकरण और उसका प्रभाव या निखालिस प्रेम के किस्से। जैसे इन दिनों यहाँ दलितों ,स्त्री विमर्शों ,पर्यावरण ,के किस्से खूब बिकाऊ हैं ऊँची कीमत में बिक रहे हैं। फिर तुम जैसे दलित साहित्यकारों को तो आजकल ख़ास नोटिस किया जाता है।

‘जनाब ..हम आदमी की नहीं किस्सागों की संतानें हैं और किस्सों का कोई मज़हब कोई जात नहीं होती। हम लोग मेहनत करते हैं अपने किसान भाइयों,और अन्य पेशे वालों का सहयोग करते हैं और किस्सागोई तो मुख्य काम है ही हमारा !
"ठीक है, ठीक है कोई बात नहीं आजकल साहित्य में जाति के अलावा और भी कई ज्वलंत मुद्दे हैं’’ उस आदमी ने माहौल को शांत करने के लिए एक वाक्य जड़ा।
मुझे लग रहा था जैसे मै किसी पौराणिक हडप्पा मोहनजोदड़ो जैसी गुफाई सभ्यता से सीधा यहाँ आ गया हूँ और मेरे और इनके बीच में हजारों युगों का अंतराल है।
‘लगता है अभी तक महाभारत रामायण काल के झाड पर ही अटके हुए हो श्रीमान' एक आदमी ने मखौल किया
तो उस काल को फोलो करने में बुराई ही क्या है? (एक बुजुर्ग, बकरी कट दाढ़ी होठ पान से रंगे हुए, लखनवी कुरता पजामा पहने जिनका पहनावा और रंग रूप चीख चीख कर उनके उर्दू शायर होने का एलान कर रहा था)  पान की पीक थूक कर उन्होंने जो सांकेतिक तीन बिंदु अपने वाक्य के आगे छोड़ दिए थे जो बात के अभी अधूरी होने के धोतक थे उनके आगे उन्होंने अपने शब्द फिर टिका दिए (चरित्रगत पोस्टमार्टम यानी चीर फाड़ के अनुभव जीवन में पहली मर्तबा ही हो रहे थे मुझे।)

‘गालिबन ये जनाब ऋग्वेद के रचयिताओं के खानदान से ताल्लुक रखते हैं या फिर कबीर रैदास की परिपाटी के क्यूँ कि उस वक़्त में लेखक कडा श्रम भी करते थे और खाली वक़्त में ऋचाएं या साखियाँ /दोहे लिखा करते थे। सूरदास तो थे ही ‘सूरदास’ लिख पढ़ भी नहीं पाते थे और नियति (हम गरीब लेखकों की विडंबना की तर्ज़ में)  देखों कि सैकड़ों वर्षों बाद आज भी उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में ठाठ से जमे बैठे हैं। बताओ.ज़रा ..उसने दूसरे विद्वान् की और करुना से देखा ..सहमति का दुःख जिसके चेहरे पर खेल रहा था...फिर अचानक स्वर बदल कर कहा जो मुझसे सम्बंधित था ‘लेकिन बरखुरदार आपको इत्तला दे देवें कि अब ऐसा नहीं है ज़माना करवट ले चूका है। अब राइटर साहित्य का फुल टाईमर है। वैसा श्रम नहीं करता सिर्फ लिखता है।..वो बुद्धिजीवी है ... वैसे आपकी सूचनार्थ श्रमजीवियों का हमारे यहाँ एक अलग वर्ग है जिन पर साहित्य रचना अब किसी ख़ास विचारधारा को मानने का संकेत भी है और उस पर बड़े बड़े आयोजन लेखन और बहस मुहाव्से करना एक फैशन भी ...समझे के नहीं?

मैंने कहा -जनाब आप लोग क्या कह रहे हैं हमें सचमुच कुछ समझ में नहीं आ रहा है। हम तो आप जितने पढ़े लिखे विद्वान नहीं सधारण से गंवई किस्सागो हैं। कल्पना के पंखदार घोड़े उड़ाते हैं। उसी के पीछे बिठा लेते हैं। अपने हुन्कारियों (किस्से सुनने वालों) को खिला आते हैं एकाध चक्कर यथार्थ से दूर किसी सपने की दुनिया का बस लोग भी खुश हम भी। भरे पेट में ये हलके फुल्के किस्से मन को ठंडक देते हैं और खाली पेट में भूख को राहत। जहाँ तक मुझ जैसे किस्सागो का सवाल है पेट भर खाना और देह पर कपडे के लिए इतना बहुत है। ज़िंदगी और सपनों में फर्क रखते हैं हम श्रीमान एक दूसरे पर अतिक्रमण नहीं करने देते। कद से ऊंचे सपनों का ज़िंदगी में दाखिल हो जाना बहुत डराता है हमें दरअसल हमारा मकसद आप बड़े पढ़े लिखे बुद्धिमानों जैसा कोई समाज सुधार या अन्याय से मुठभेड़ ,या कोई पर्दाफ़ाश करना नहीं।

 (अरे स्टिंग ओपरेशन की बात कर रहा है ...एक ने अपने निकटस्थ साथी को कुहनी मारते फुसफुसाते हुए कहा।)  मैंने अपना कहना जारी रखा .'सच पूछिए सरकार तो हमारे देस में इन सबकी ज़रुरत ही नहीं पड़ती। सब अपना काम करते हैं मेहनत मजदूरी करके पेट पालते हैं। कोई छोटा बड़ा नहीं। एक दूसरे की फ़िक्र करते हैं। जब कभी कोई तनाव या दुःख होता है तो हमसे हलके फुल्के किस्से सुन संतुष्ट हो जाते हैं। ज़िंदगी जैसी भी मिली है खुशी २ जीते हैं और मौत को प्रकृति का एक ज़रूरी नियम मान उसका स्वागत करते हुए विदा होते हैं न ज़िंदगी पा लेने की खुशी ना मौत पर हाहाकार। हमारे किस्से ‘’भाषाई कुसंस्कार, स्त्री मुक्ति आन्दोलन, या विचारधाराओं की माथापच्ची से मुक्त जादुई कालीन, बोलने वाली नदी, बेताल पचीसी, रूप बसंत, केतकी और कुंवर भान की कहानी, सिंहासन बतीसी विक्रमादित्य का न्याय जैसे सीधे साधे होते हैं।


मेरी बात सुन कर वो लोग कुछ देर एक दूसरे की और देखते रहे। फिर एक ने कहा अरे भैये एक ही बात है। लो मिलाओ हाथ ...। हम तो समझे थे कोई बड़ा फर्क है हम्मे तुममे ...। अरे तुम जो किस्से सुनाते हो उन्हें हमारे यहाँ फेंटेसी कहते हैं। ‘क्लौड ईथरली और ब्रम्हराक्षस का शिष्य का नाम तो खैर पहुंचा नहीं होगा तुम तक। काफ्का का ‘’मेतामोर्फोसिस’’तो क्या ही सुना होगा इन्होने! एकाध हालीवुडाना फिल्म भी देखे होते तो हमारा मंतव्य भांप लेते ये.... है के नहीं! आदमी ने अपने साथियों की और कन्खियाते हुए कहा। फिर मेरी और मुखातिब होते हुए बोला ‘खैर बस इतना जान लो कि साहित्य के बाज़ार में आजकल लेटेस्ट इन्ही की मांग है लेटेस्ट फैशन जानते हो न बस वही ...इसे इनोवेटिव फिक्शन भी कह सकते हैं। आज मुक्तकों, व्यंजनाओं, क्षेपकों का युग है। खैर अभी आप ये जटिल शब्द नहीं समझेंगें। आप तो महाशय साहित्य के खुदरा उत्पाद हैं वो क्या कहते हैं उसे !...हाँ ... प्रतिभा का कच्चा माल ...आपके प्रोडक्ट को तराशना ,बेचना मोल भाव लगाना हम साहित्य के महाजनों का काम है ...। हीरा जब तक तराशा ना जाये ज़मीन के पेट में सोया कोयला ही तो होता है किस काम का बताइए तो ज़रा? उसने शायद कोई लतीफा कहा था क्यूँ कि बाकी सब लोग इस बात पर हो हो हो हो करके हंसने लगे थे। न जाने मुझे ऐसा क्यूँ लग रहा था कि उन विद्वानों का हर हंसना मुझ पर ही ख़त्म हो रहा था खैर।

मै कुछ कहता इससे पहले ही उस बुजुर्ग ‘’मॉनीटर’’ टाइप बुद्धिजीवी ने कहा जो संभवतः उस ‘जमात’ का ‘’वेदव्यास’’ था।   
‘’श्रीमान वैसे आपकी भाषा में काफी वाग्दोष (व्याकरण संबंधी दोष )भी हैं, यू नो साहित्यकार की भाषा में एक कसावट होनी चाहिए एक सधी हुई सम्प्रेश्नीय भाषा होनी चाहिए ...एक 'मेटालिक इफेक्ट’ समझ रहे हैं ना आप?

जी नहीं कुछ नहीं समझ रहे ना समझना चाहते ..मैं बिफर पड़ा .। हम जो हैं वही बने रहना चाहते हैं। हमें नहीं चाहिए आपकी वो विचारधारा ,मेटालिक इफेक्ट,सधी हुई भाषा? मैंने खीझकर कहा ...अपने देश वापिस जाना चाहते हैं बस। हमें जाने दीजिये ...? मै सचमुच बहुत भूखा और थका हुआ था।

कुछ देर वहां एक आक्रान्त सी चुप्पी छाई रही। अब वो सुती देह का लंबा बुज़ुर्ग व्यक्ति जो धोती कुर्ता पहने आँखों पर ऐनक लगाये सबके बीच में खड़ा था जिसकी प्रसिद्धि के कसीदे कुछ देर पहले ही पढ़े गए थे यही कि लेखक /आलोचक/विमोचन कर्ता भाँती २ से ख्यात है कि इन्होने दो ढाई दशक पूर्व साहित्य में अपने पराक्रम का झंडा गाढ दिया था लेकिन बरसों पहले लिखना छोड़ चुके हैं (निहितार्थ- बुढापे में अपनी ‘पूर्व –प्रसिद्धि’ की उपलब्धि कमाई खा रहे हैं और अब भी साहित्यिक राजकुमारों के द्रोणाचार्य हैं) उसने कहा।

श्रीमान किसी ने लिखा है अपने को और भाषा को बचाने के लिए हो सकता है तुम्हे उस आदमी के पास जाना पड़े जो इस वक़्त नमक भी नहीं खरीद पा रहा है।  ‘...वो आदमी तुम हो ...सिर्फ तुम ..’ उसके साथ खड़े सभी विद्वान उसकी हाँ में हाँ मिलाने लगे। न जाने क्यूँ लगा कि मै किन्ही आदिवासियों के गिरोह में फंस गया हूँ और मुझे बलि पर चढाने की कोशिशें की जा रही हैं भांति २ के प्रलोभन दिए जा रहे हैं ...। उन लोगों ने अपने वाक् बाणों के तीर मुझ पर तान लिए हैं और मै एक निरीह पशु सा उनके बीच खड़ा थरथरा रहा हूँ। (अपने अद्रश्य सींगों का प्रहार कर मैंने खुद को उनके चंगुल से बचाने का अंतिम प्रयास किया।)

नहीं सरकार ...हमें जाने दीजिये ...हमारे देशवासी परेशान हो रहे होंगे ...मैंने पीछा छुडाने की गरज से कहा
अरे आप तो नाहक बुरा मान गए जी।
पहला आदमी (फिर से ) -अरे ये आपकी बुराई नहीं कर रहे बंधूवर बल्कि आपका भाषाई परिष्कार करने की चेष्टा कर रहे हैं। आप अभी साहित्य में नए नए मौलवी हैं जानते नहीं न उनके कील औजार। जनाब एक बेसिक पाठ पढ़ाये दे रहे हैं आपको कि अब आपके पुराने किस्सों की तरह यहाँ रचना के कथानक पर जोर आज़माइश/ कसरत नहीं की जाती बल्कि भाषा के चमत्कारों में अपने कमज़ोर कथानक को भी खोटे सिक्के की तरह चला दिया जाता है। याद रखो चाहे संगीत हो,साहित्य या कला नए फैशन का पल्लू कस कर पकड़े नहीं चलोगे तो पल्लू खुद से तुम्हे छुडा लेगा। बहुत पीछे छूट जाओगे ...समझ रहे हो न! अब मै वहां खड़ा नहीं रह सका खुद को अब इससे ज्यादा मूरख सिद्ध होते हुए देखते जाने का माद्दा ख़त्म हो चूका था मुझमे अब। वहां बड़े बड़े पुरोधा थे उनके हाव भाव चेहरे मोहरे से पांडित्य टप टप टपक रहा था उनके सामने मै अपनी खंडहर ठेठ किस्सागोई को लटकाए घूम रहा था ...। मै अकेला था ... मै अक्षौहीनी (चतुरंगी सेना ) से घिरा था। मै बड के पेड़ के नीचे बैठकर सुस्ताने लगा। वो कुछ दूरी पर एक गुट बनाकर खड़े हो गए ...मैंने ऑंखें बंद कर लीं।



मैं भी बुद्धिमान होना चाहता हूँ।
शास्त्रों में बताया गया है बुद्धिमत्ता क्या होती है।
संसार के झमेलों से बच कर रहना
जो थोडा समय बचा है उसे ठीक से गुजार देना
किसी से डरे बिना, बिना हिंसा किये
हर बुराई का ज़वाब अच्छाई से देना
कामनाओं को पूरी करने के बजाय भुला देना
यही सब बुद्दिमत्ता के लक्षण हैं
इनमे से कोई चीज़ मेरे बस की नहीं
सचमुच मैं अँधेरे दौर में जीता हूँ (बर्तोल्ड ब्रेख्त-अनुवाद असद जैदी )

मैं अब वापिस अपने देस, अपने घर लौटने का मन बना चुका था और जल्दी से जल्दी लौटना चाहता था  सो मैंने अपनी पोटली कंधे पर रखी और फिर चलना शुरू किया लेकिन मैंने बहुत जल्दी ये महसूस किया कि भटक गया हूँ ...दिशा ज्ञान खो चुका हूँ। भूख और थकान के मारे निढाल था। मै कुछ दूर चला लेकिन थकावट के कारण लडखडाने लगा और वहीं छाया दार पेड़ के नीचे बैठ गया। मुझे पता ही नहीं पड़ा कि कब मैंने अपने किस्सों की पोटली सर के नीचे रखी और कब चेतना खो बैठा। मै सपनों की एक अजीब और रहस्यमयी दुनियां में पहुँच गया जहाँ मै एक निर्जन सुनसान रास्ते पर चला जा रहा था।  मेरे कन्धों पर किस्सों की पोटली नदारत थी मै घबरा गया। परदेस जा रहा हूँ किस्से खो गए तो क्या खाऊंगा पीऊंगा कहाँ कैसे रहूंगा उस अनजान देस में? मैंने पीछे मुड़ कर देखा वो धूप में चौंधियाता हुआ सिलवटी रेत का अथाह समुद्र था दूर दूर तक जीवन का कोई चिन्ह नहीं। मै एक ऐसे रेगिस्तान में घुस गया था जिसका वापसी का कोई मार्ग नहीं था। विशाल अपरिमित रेगिस्तान। रेत ही रेत...धूप में जलती देह से नमी की एक एक बूँद पीती ..मेरे पीछे छूटती जा रही वो अंतहीन सडक जिस पर मै चला जा रहा था उस पर किस्से बिखरे हुए थे मेरी पोटली में शायद छिद्र हो गया था मुझे पता ही नहीं चला और वो पोटली में से रिसते गए। मै पसीने से तरबतर हो गया। प्यास से मेरा गला तडक रहा था। काश कोई मुझे नींद से जगा देता ...मेरे सपनों को छिन्न भिन्न कर देता मै आत्मा में तडप रहा था एन उसी वक़्त मुझे लगा कि मेरे भीतर किसी परकाया ने प्रवेश किया ...एक झटका लगा जैसे स्पीड ब्रेकर आ जाने पर गाडी में लगता है।

मैंने मिचमिचाते हुए ऑंखें खोलीं जैसे बच्चा माँ के गर्भ से बाहर आकर किसी नई दुनियां में ऑंखें खोलता है।
दो आदमी मेरे सामने खड़े थे। वो लोग मेरे सामने अलादीन के चराग की तरह नमूदार हुए। मैंने ऑंखें मीडीं और उठ बैठा। 



सम्पर्क-
ब्लॉग-: http://vandanapilani.blogspot.com/ 
ई-मेल: shuklavandana46@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - रविवार - 22/09/2013 को
    क्यों कुर्बान होती है नारी - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः21 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra





    जवाब देंहटाएं
  2. Vandana ko unke upanyas ke liye badhai. we nirantar badhiya likh rahi hain. unki kahaniyan to padhin thin..kavitaen bhi idhar blogs par padhti rahi. upanyas ka ansh rochak hai.
    shubhkamnaon ke saath..Aparna

    जवाब देंहटाएं
  3. शुक्रिया अपर्णा..ये आधार से आने वाला उपन्यास ''मगहर की सुबह '' का अंश नहीं है ...ये एक लम्बी कहानी ''किस्सों के कोलाज़'' का अंश है ...

    जवाब देंहटाएं
  4. दुःख होता है .मुहदेखी बात कहना हिंदी में कितना बढ़ गया है .खासकर अपर्णा मनोज तक झूठे तारीफ किये जा रही है .यह बहुत ही उथले समझ वाली रचना है .वैचारिकता के पार्टी घृणा से भरी हुई .अपनी अल्पज्ञ व्यंग्य शैली में मुर्खता को रचनात्मकता का आदर्श बताती हुई . पढना लिखना गुनाह नहीं .अंगूर खट्टे हैं .अगर फूको देरिदा और मुक्तिबोध समझ में नहीं आते तो आपकी संवेदना और बुद्धि का आयतन कम है इसमें विचारको का दोष नहीं है .विचारधारा नहीं जीवनधारा में विश्वास करते हैं --का उद्घोष भी लफ्फाजी से अधिक कुछ नहीं . विचारधारा जीवनदृष्टि और विश्वदृष्टि के सिवा क्या है ? यह अभी सामंती अबोध काल के सपने देखती है तो इनकी बुद्धि तरस खाने लायक है .sentimentalism इनका आदर्श होना चाहिए .रजनीश को पढ़े और अमृता प्रीतम जैसा लुगदी जजबातीपन को कहानी के रूप में बरतें

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'