रणविजय सिंह सत्यकेतु


रणविजय सिंह सत्यकेतु हमारे समय के चर्चित कहानीकार हैं।  सत्यकेतु का एक कहानी संग्रह 'अकथ' भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है। इनकी कहानियों में हम वह देख सकते हैं जिसके बारे में हम आम तौर पर कल्पित तक नहीं कर पाते। अपनी सूक्ष्म दृष्टि से ऐसे छोटे-छोटे विषयों को  कहानी में ढाल कर सत्यकेतु हमें अनायास ही आकर्षित करते हैं। इसी तरह की इनकी एक कहानी  प्रस्तुत है आप सब के लिए। 
  
रिक्शेवाला
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पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाये जाने के खिलाफ बस और टेम्पो वाले हड़ताल पर थे. तागों और बैटरी चालित बसों में लदकर लोग किसी तरह ढलान तक पहुंचे थे. आगे का सफ़र यानी मोहल्ले तक की दो किलोमीटर की दूरी पैदल नापने के सिवा कोई चारा नहीं था. ऊपर से अनवरत बारिश ने पांवों को ठिठका दिया था. ढलान के ठीक नीचे पेड़ की आड़ में एक रिक्शा लगा था. अच्छी छतरी के साथ बरसाती पन्नी चढी थी रिक्शे पर. एक उम्मीद लेकर लोग वहां तक पहुंचते जरूर लेकिन किराया सुनकर बिदकते, छिटकते और दूर जा खड़े होते.

तेज बारिश और हवा के झोकों से बचने के लिए ढलान से नीचे उतरे लोग आसपास के पेड़ों के नीचे खड़े थे. कोई छाता लगाये, कोई बरसाती ओढ़े. कोई दुम दबाये, कोई मुंह लटकाए. किसी ने बैग को सर पर रख लिया था, किसी ने पन्नी में लपेटी किताबों को छाती में भर लिया था. किसी की आँखें सवारी तलाश रही थीं, किसी के कान सावधानी में खड़े थे.

ढलान से नीचे उतरता पानी सड़क पर सैलाब की शक्ल धारण किये हुए था. रिक्शे का आधा पहिया पानी में डूब चुका था. धार इतनी तेज थी कि रिक्शेवाला ऊपर बैठा न होता तो शर्तया बारिश का पानी रिक्शे को बहा ले जाता. पेड़ों की जड़ें पूरी तरह डूब चुकी थीं, इसलिए बचते-बचते भी वहां खड़े लोगों के घुटनों तक पानी की पहुँच हो गयी थी.



एकरस बारिश के बीच पानी को चीरती और छितराती एक कार रिक्शे के करीब आकर रुकी. गंदे पानी के छींटे पड़ने से ढलान पर खड़े लोग हिकारत और नाराजगी से कारवाले की तरफ देखने लगे. इन सबसे अलग रिक्शेवाला अखबार पढ़ने में मगन था.

कारवाले ने पहले तो बैठे-बैठे हांक लगायी लेकिन आवाज अनसुनी होती देख उतर कर रिक्शेवाले तक आया. रिक्शेवाले की ढिठाई से चिढ़कर बोला, 'तुम्ही को बोल रहा हूँ. सुनाई नहीं दे रहा क्या?'

अखबार में आँखें गडाए रिक्शेवाला बोला, 'जरूरतमंद को ही पुकारना पड़ता है जनाब.'

'बोल तो ऐसे रहे हो जैसे प्रोफेसर के पोते हो', कार वाले ने व्यंग्य किया.

'जो भी हूँ ईमान पर हूँ. औरों की तरह दलाली नहीं करता.' रिक्शेवाले ने भी उसी अंदाज में जवाब दिया.

कार वाले को गुस्सा तो बहुत आया लेकिन जज्ब कर पूछा, 'भाई की बगिया जाओगे?'

'कार तो है ही, चले जाओ.' रिक्शेवाला सहज भाव से बोला.

'रास्ता न सुझाओ', कारवाले ने मतलब समझाने के अंदाज में कहा, 'मुझे जाना होता तो पैदल चला जाता. मेरे साथ की मैडम को पहुँचाना है.'

रिक्शेवाले ने कार की तरफ नजर घुमाई. कार में बैठी महिला घूरती आँखों से उसकी तरफ ही ताक रही थी. रिक्शे वाले को समझते देर नहीं लगी कि मामला डेटिंग-सेटिंग का है. बारिश में मोहतरमा पैदल जायेंगी नहीं और कारवाला उसे घर तक छोड़ेगा नहीं. फिर निश्चिन्त भाव से बोला, 'दो सौ रुपये लगेंगे.'

'किराया मांग रहे हो या खैरात?' बौखला गया कार वाला, 'इतना किराया तो संगम जाने का भी कोई नहीं मांगेगा, भाई की बगिया तो एक किलोमीटर से भी कम है.'

'अपना तो यही रेट है भैया, इस पर कोई समझौता नहीं. कोई बहस नहीं.' दीर्घ स्वर में बोला रिक्शे वाला.

'चलाते हो रिक्शा और दिमाग रखते हो आसमान पर ..' फुंफकार उठा कार वाला.

लेकिन रिक्शेवाले को जरा भी तैश नहीं आया. बेतकल्लुफी से बोला, 'वो क्या है न कि रिक्शे और आसमान के बीच कोई दीवार नहीं होती, इसलिए दिमाग यहाँ-वहां विचरता रहता है. अब देखने वाले उसे आसमान पर देखें या फिर रिक्शे के करीब, उनकी बला से.'



तेज बिजली कड़की और बादलों ने भयानक हूँकार भरी. सबने आँखें बंद कर लीं, कानो पर हाथ रख लिए. बारिश की बौछार के बीच लगभग चीख पड़ा कारवाला, 'तुमलोग कभी सुधरनेवाले नहीं हो. यही हाल रहा तो कल को रिक्शा बेच कर खाना पड़ेगा. कोई सवारी नहीं मिलेगी.'

रिक्शे वाला पहले मुस्कुराया, फिर बोला, 'कल को किसने देखा है बरखुरदार..क्या पता इस रिक्शे की हेंडल कल आपके हाथ में हो और उस कार की स्टेयरिंग मेरे हाथों में.'

'बात तो झापड़ खाने वाली कर रहे हो लेकिन दिल की तसल्ली के लिए ख्वाब अच्छा है.' वापस होते कार वाले ने बद्दुआ दी, 'जा करमघटे, इस किराये पर कोई सवारी तो मिलेगी नहीं. अखबार चाट कर ही पेट भरना.'

एक झटके में कार स्टार्ट हुयी और पानी छितराती हुयी आगे बढ़ गयी. रिक्शे वाला भी थोडा बडबडाया, फिर अखबार पढने लगा.

बारिश धीमी हो गयी थी लेकिन छूटी नहीं थी. थोड़ी दूर खड़ा ब्रीफकेश वाला आदमी हौले-हौले रिक्शे वाले के पास आया. उसे वह थोडा अजीब मगर दिलचस्प व्यक्ति लगा. तहकीकात का मन हुआ. बोला, 'सुनो!'

'सुनाओ..' उसी लय में बोला रिक्शेवाला.

ब्रीफकेश वाले को उसके अंदाज पर हंसी आयी. सोचा, जरूर यह किसी नाटक-नौटंकी वालों के साथ जुडा होगा. फिर पूछा, 'बातें तो तुम पढ़े-लिखों वाली करते हो बल्कि समझदार और दानिश्वर की तरह करते हो. मेरा दिल कहता है कि तुम रिक्शा चालक नहीं हो सकते. तुम्ही बताओ, तुम कौन हो?'

'भुवनेश्वर का भूत...प्रभात रंजन की आत्मा. हा..हा..हा..हो..हो..' ठठा कर हंस पड़ा रिक्शेवाला. बड़ी-बड़ी आँखें निकाल कर भारी आवाज में ब्रीफकेश वाले से सवाल किया, 'क्या, मेरे जिस्म से तुम्हें जीतेन्द्र झांकता नजर आ रहा है? या मेरी ओज मुक्त से मिलती है? कैसा लग रहा है तुम्हें?

ब्रीफकेश वाला घबरा कर दो-चार कदम पीछे हट गया. आढत के कारोबार के साथ ब्रीफकेश वाले का साहित्य से भी जुडाव था. रिक्शे वाले की हडकत देख और उसके मुंह से मरे हुए दानिश्वरों के नाम सुन कर वह सकते में आ गया. उसे लगा, हो न हो रिक्शे वाले की शक्ल में किसी दबाये-सताए गए हुनरमंद की रूह आ बैठी है. वह बिना कुछ बोले रिक्शे वाले को निहारे जा रहा था. टोका रिक्शे वाले ने ही, 'ऐसे बदहवाश क्यों हो गए प्यारे! ये कहीं लिखा है कि जो रिक्शा चलाये वो मूर्ख और लाचार ही हो? पढ़ने-लिखने से उसका कोई वास्ता न हो? भई, शौक अपना-अपना है. जैसे जिन्दगी जीने का मेरा अपना अंदाज है और लोगों को ठगने का तुम्हारा अपना अंदाज.'

'क्या मतलब..?' एकदम से झटका खा गया ब्रीफकेश वाला.

'मतलब की छोडो, सिगरेट है तेरे पास तो बोलो.' रिक्शेवाले ने बात बदली.

'हाँ..है, मगर माचिश नहीं है.' ख़ुफ़िया नज़रों से ब्रीफकेश वाले ने उसे घूरा.

'कोई बात नहीं. वो है मेरे पास.' रिक्शे वाले ने ब्रीफकेश वाले से सिगरेट लेकर जलाई. भरपूर कश लगा कर बोला, 'वैसे भी, जलाने वाले माचिश रखते कहाँ हैं हुजूर. रखते तो फिर मुकदमों से बरी क्योंकर हो जाते.'

'क्या मतलब?' अब ब्रीफकेश वाले को चिढ होने लगी थी. साथ ही बेचैनी भी हो रही थी कि जाने उसका कौन सा राज जानता है यह आदमी.

'इतने बेचैन क्यों हो रहे हो?' रिक्शे वाले ने जैसे उसका चेहरा पढ़ लिया था. कुरेदा, 'ऐसी कोई दुखती रग है क्या तुम्हारी भी?'

'न..नहीं तो!' अकबका गया ब्रीफकेश वाला, 'मैंने तो सिर्फ माचिश रखने का तुम्हारा मतलब पूछा था.'

होठों को सिकोड़ कर धुंए का छल्ला बनाते हुए बोला रिक्शे वाला, 'मतलब ये कि माचिश तो हम जैसे लोग रखते हैं. जो तसल्ली के दिन न गुजरे तो रातों के ख्वाब ही जला लेते हैं.'

इससे पहले कि ब्रीफकेश वाला कुछ बोलता, किताबों को छाती से लगाये खड़ा व्यक्ति धम्म से गिर पड़ा. छपाक की आवाज पर सबके कान चौंके, सबकी आँखें विस्फारित हुयीं और सबके पैर उस व्यक्ति की तरफ दौड़ पड़े.

रिक्शे वाले के मुंह से अफसोस निकला, 'लगता है वशिष्ट नारायण गिर पड़े.'

'व्हाट???' ब्रीफकेश वाले का दिमाग चकरा गया. पूछा, 'कौन वशिष्ट नारायण? क्या तुम उस आदमी को जानते हो?'

'यह समय जानने-बूझने का नहीं है दोस्त, आफत में फंसे इन्सान की मदद करने का है.'

इतना कह कर रिक्शे वाला बिना देरी किये रिक्शा लेकर वहां पहुँच गया. बाकी लोग उसे घेरे हुए थे. कोई उसका नाम जानने की कोशिश कर रहा था, कोई उसकी तबीयत पूछ रहा था. कोई उसका चेहरा हिलाकर होश में लाने की कोशिश कर रहा था तो कोई किताबों पर से उसकी पकड़ ढीली करने की जुगत में लगा था.

रिक्शे वाला सबको लगभग धकियाते हुए पानी में निढाल पड़े व्यक्ति की ओर झुका. उसे उठाया और रिक्शे पर लाद लिया. इकहरी काया के रिक्शेवाले का साहस और उसकी फौरी कार्रवाई के सब कायल हो गए. कुछ देर पहले तक रिक्शे वाले का बेतुका और मुंहमांगा किराया सुन कर उसे पागल और मेंटल समझने वाले लोग उसकी इंसानियत और दिलेरी पर रीझ गए. सबने अपनी- अपनी जेब से दस-बीस रुपये निकाले और रिक्शे वाले की ओर बढाया. लेकिन उसने हाथ जोड़ कर सबको मना कर दिया और रिक्शा लेकर अस्पताल के लिए निकल पड़ा.

सम्पर्क

मोबाईल-  09532617710

ई-मेल ranvijay.satyaketu@facebook.com

टिप्पणियाँ

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  2. संध्या नवोदिता-- बहुत दिलचस्प किरदार हैं.. ऐसा दिलेर और स्वाभिमानी रिक्शावाला तो नही ही मिलते , ऐसे ब्रीफकेस वाले भी कहाँ दीखते हैं जो रिक्शावाला से इतनी दिलचस्पी से बात करें. आपकी कहानी का मुख्य पात्र बहुत बढ़िया है, ये किस्से कहानियों के पात्र इस धरती की रूह हैं...
    इतनी संवेदनशील कहानी लिखने वाले सत्यकेतु जी और पढने का मौक़ा देने वाले संतोष जी दोनों का शुक्रिया..

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