एस आर हरनोट



 (चित्र  : एस. आर. हरनोत)

  एस. आर. हरनोत हमारे समय के ऐसे चर्चित कहानीकारों में से एक हैं जिन्होंने बिना किसी शोरोगुल के अनेक महत्वपूर्ण कहानियां लिखी हैं। आज जब चारो तरफ 'दलित-विमर्श' का बोलबाला है और लेखकों के बीच इसे जबरन कहानी का विषय बनाने का फैशन सा चल पड़ा है ऐसे समय ने हरनोत जी ने 'हक्वाई' कहानी लिख कर साबित कर दिया है कि हमारे दृश्य-जगत की उन घटनाओं को बारीकी से उद्धृत कर इस विषय पर बेमिसाल कहानियाँ लिखी जा सकती हैं। भागीराम को जिस जातिगत अपमान का सामना हमारे इस लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में करना पड़ता है वह उसका प्रतिकार अपने तरीके से करने का साहस जुटाता है और नगर निगम के उस अधिकारी के खिलाफ धरने पर बैठ जाता है, जो उसे जातिगत द्वेष के कारण प्रताड़ित करता रहता है। यद्यपि हरनोत जी ने इसे अपनी कहानी में उद्घाटित नहीं किया है फिर भी यह बात तो स्पष्ट है ही कि हमारी यह व्यवस्था भी दलितों और पिछड़ों के विरुद्ध ही है। तो आईये पढ़ते हैं हरनोत जी कहानी 'हक्वाई'। 
   
हक्वाई

(‘हक्वाई‘ पहाड़ी बोली का शब्द है। जूता बनाने या गाठने वाले कामगार जिस लोहे की त्रिभुजी पर जूतों को बनाते या गांठते हैं उसका एक नाम ‘हक्वाई‘ भी है यानि जो हक की कमाई दे। यह नाम उसी कथा-पात्र का दिया हुआ है जो इस कहानी में भागीराम के किरदार में है।
-एस आर हरनोट)



भागीराम अचानक बे-जगह हो जाएगा, उसने कभी सोचा नहीं था।

आज भी पुलिस के दो सिपाही सुबह से उसकी फिराक में थे। मानो उन्हें इसी काम के लिए तनख्वाह दी जा रही थी कि वे भागीराम के आने-जाने का पता रखें। जैसे ही अपनी जगह थड़ा जमाए, उसे वहां से भगा दें। भला-बुरा कहें। मां-बहन करें। जब तक वह अपना बक्सा और हक्वाई हाथ में उठा कर गलियों में ओझल न हो जाएं, उसका पीछा करते रहें। किसी सीढ़ी या पेड़ की ओट में बिठा दें और तलाशी लें। बोरी से एक-एक करके टूटे हुए चप्पल, सैंडिल और बूट निकलवाएं। उन्हें बारी-बारी झड़वाएं कि जैसे उनके भीतर अफीम, सुल्फा, भांग न छुपा रखी हो। जब कुछ न मिले तो बक्से के बजाए हक्वाई पर अपने भारी-भरकम पुलसिए बूट रखें और आदेश दें कि उन्हें ऐसे चमकाए कि उनके तुरले वाली मोर-पगड़ी उसमें दिखने लगे।

     पुलिस वाले जान बूझ कर हक्वाई को जमीन पर गड़वा कर उस पर जूता पहने पैर इसलिए रखते कि भागीराम खूब चिढ़े, कुढ़े ओर खीझता रहे, पर बोल कुछ न सके। वे जानते थे भागी कभी हक्वाई पर जूता पालिश नहीं करवाता, केवल जूते गांठता था। पालिश के लिए हमेशा बक्से के ऊपर लगी फुट भर लम्बी और छः इंच चैड़ी तख्ती का इस्तेमाल ही किया करता। हक्वाई उसकी रोजी-रोटी थी, पूजा थी, और इज्जत-परतीत थी।

     भागीराम बेचारा करे तो क्या करे? पुलिस वालों के आदेश सिर माथे। वह मन मसोस कर उनके जूतों में पालिश करने लग जाता। भारी-भरकम पैर, मानो पैर न हो, भैंसे के खूर हों। जब तक पालिश की पूरी डिब्बी न खत्म हो जाए, पुलिस वालों को चैन नहीं आता। उस पर क्रीम और बूटों के रंग के मुताबिक पॅालिश। कई बार तो दो पैरों के लिए एक घण्टा लग जाता। कितना भी अच्छा न हो, पुलिस वाले कोई न कोई खोट जरूर निकाल देते।.....

     ‘ओए भगेया ? क्या करता है बे ? .........रंग बूट पर चढ़ा नहीं अभी। पगड़ी नहीं दिखती इसमें।‘

     पहला अजीब तरह से अपनी आंखे मिचमिचाता और बंाईं आंख पास खड़े अपने साथी को मार देता। इस पर दूसरा मंद-मद मुस्कराता और शुरू हो जाता,

     ‘जोर से रगड़ बे कपड़ा। मूछ जूते में दिखनी चाहिए।‘

     यह कहते वे दोनों बारी-बारी नीचे झुक जाते और अपनी पगड़ी और मूछें बूट के ऊपरी हिस्से में देखने लगते, मानो भागी बूटों पर शीशा मढ़ रहा हो।

     यह खेल उस समय तक चलता जब तक जूते चमक न जाते। सचमुच यह चूहा-बिल्ली का ही खेल था। भागी उन दोनों के लिए उसी तरह का शिकार था जैसे बिल्ली जि़न्दा चूहे को घर-आंगन में तब तक खिलाती-नचाती रहती जब तक अधमरा न हो जाए।

     कई बार उनके जूतों पर ब्रश रगड़ते-रगड़ते उसकी आंखों से आंसू झरने लगते। पल भर के लिए पुलिस वालों का दिल पसीज जाता। तब प्यार से भागीराम को समझाते,

     ‘देख भागी ! हम भी क्या करें यार। म्हारी नौकरी साली कुत्ते की नौकरी है। हम अफसरों के कुत्ते हैं न। हमारे गले में भी पट्टे बंधे हैं, पर दिखते नहीं रे भागी। आदेश माने तो जनता से बुरे, नहीं माने तो लाइन हाजिर।‘

     दूसरा पुलिस वाला जो थोड़ा दूर बीड़ी सुड़क रहा होता, उसी भाषा में बोलने लगता,

     ‘अब तैने इतने बड़े अफसर से पंगा लिया है तो भई भुगतना तो पड़ेगा ही। हम नहीं होंगे तो कोई और होगा। मेरी बात मान, छोड़ दे शहर। बेवकूफ आदमी कोई और जगह देख। अब तैने कोई फैक्ट्री-वैक्ट्री तो चलाणी नहीं। जुत्ते ही रगड़ने है। जहां तू बैठेया करता है, क्या उस जगह का तेरे को इंतकाल चढ़ा है भाई। तू भी सुखी, हम भी सुखी।‘

     उपदेश देकर पुलिस वाला मुंह में ठूंसे पान की खूनी लार नीचे की तरफ इतनी जोर से थूकता कि हवा के रुख के साथ कई झींटे भागी के सर-माथे और कुर्ते पर पड़ जाते। इस धृष्टता पर वह मन मसोस कर रह जाता।

     पुलिस वाले जाते तो वह सबसे पहले हक्वाई को कन्धे पर रखे परने से साफ करता। मथा टेकता और किनारे रख देता। फिर अपना बक्सा देखता, कभी पालिश की खाली डिब्बियां। कभी क्रीम और रंग की खाली शीशियां। मानो उसने पूरे शहर के जूते पालिश कर दिए हो। बोरी में मरम्मत के लिए रखे लोगों के जूते, चप्पलें और सैंडिल जो जगह-जगह, नीचे ऊपर बिखरे होते, उन्हें समेटने लगता। रखते हुए नाम और चेहरे याद करता कि किस-किस ने दिए हैं। याद करते हुए उन्हें बोरी में ठूंस कर कुछ पल यूं ही बैठा रहता। सोचता रहता कि उसने ऐसा क्या गुनाह किया है कि उसे इस उम्र में यह सजा मिल रही है। इन पुलिस वालों के बाप-दादा की उम्र का ठहरा मैं..........दो पैसे की लिहाज नहीं करते...........ऐसे चिपके रहते हैं जैसे मालरोड़ पर टहलते कुत्ते किसी पठान के पीछे मांस की गंध सूँघते चिपके रहते हैं।

     थका-हारा वह अपने सामान को सहेजता। फिर किसी पैराफिट या पेड़ की ओट में ऐसे छुपा देता मानो वह चोरी का सामान हो। हक्वाई वह हमेशा अपने साथ रखता। उठने लगता तो दोनों टांगो के जोड़ों में ऐसे जकड़न महसूस होती कि वह महीनों का यहीं बैठा हो। पैर सुन हो जाते। वह फिर बैठ जाता। अपनी टांगे जोर-जोर से आगे की तरफ खींचता। आड़े-तिरछे हिलाता। फिर उठता और रिज मैदान की तरफ चढ़ने लग जाता। चढ़ते सोचता कि यह शहर भी कमाल का शहर है, जिधर से चढ़ो या उतरो सीढि़यां ही सीढि़यां। पत्थरों के डंगे ही डंगे।

     चर्च के पास पहुंचता तो झुक कर प्रणाम करता। यह उसका हमेशा का नियम था जो आजतक नहीं टूटा था। उसके मन में जितना आदर चर्च के लिए था उतना ही मंदिरों, मस्जिदों और गुरूद्वारों के लिए भी था। वह जिस किसी धर्म के स्थान से गुजरता कभी सर झुकाना नहीं भूलता। यहां तक कि रिज मैदान पर लगे बुत्तों के आगे भी दूर से मथा टेकता। उनका भागी इतिहास नहीं जानता पर इतना जरूर मालूम था कि इस तरह की मूर्तियां बड़े लोगों की ही लगती है। 

     चर्च के आगे से गुजर कर वह अपने बैठने की जगह देखता। उसे लगता सड़क के किनारे की वह दो गज जगह जैसे उसके आने का इंतजार कर रही है। वहां बैठने को आवाजें लगा रही है............कि उसके बिना उसका कोई वजूद नहीं है। वह जगह अब दूसरी जगहों से बिल्कुल अलग दिखती थी। वहां हल्के मेहरून और काले पालिश के घब्बे चिपके होते। चमड़े के उधड़े रेशे जमे होते। जंग लगी कीलें जमीन में धंसी-घुसी होती। पर वहां भागीराम नहीं होता। शहर के कई कुत्ते जरूर सोए दिखते, जैसे उसकी वेशकीमती अमानत की रखवाली कर रहे हो। भागी को देखते ही वे झटपट उठते, पूंछ हिलाते, चूं...चूं.......करते और टांगो के बीच पसरने लगते। पर भागी के पास उन्हें देने को कुछ नहीं होता।

     वह जब वहां अपना थड़ा जमाए बैठता तो एक डब्बल रोटी कुत्तों के लिए अवश्य लेकर आता। जो भी कुत्ता दिखता उसे एक टुकड़ा खिला देता। यह रूटीन उसने कभी भी आज तक तोड़ा नहीं था। कई बार तो उसके पास पैसे भी नहीं होते तो वह उधार कर लेता। वैसे भी उसका चाय वाले से उधार चलता रहता जिसे वह एक या दो सप्ताह में चुकता कर दिया करता।

     अपनी हालत देख कर उसका मन भारी हो जाता। वह किसी कुत्ते के पास बैठ कर उसे दुलारने लगता। स्नेह और अपनेपन की इस वर्षा से कुत्ता वहीं लोट-पोट हो जाता। तभी नगर निगम की कुत्ता-गाड़ी का शोर सुनाई देता तो कुत्ते भाग खड़े होते। कुछ दिनों से उनकी घर-पकड़ भी होने लगी थी। भागी सोचता कि उसकी हालत भी इन्हीं जैसी हो गई है---फर्क इतना भर है कि उनके पीछे कुत्ता-गाड़ी है और उसके पीछे पुलिस वाले।

     सोचते-सोचते आंखों से दो बूंद आंसू टपकते हुए काली-सफेद दाढ़ी के बीच कहीं इस तरह खो जाते मानो कड़कती धूप की दोपहरिया में सूखे आंगन के बीच किसी ने पानी गिरा दिया हो। वह अपने मैले हाथों से आंखें पोंछ ही रहा होता कि दो-चार लोग उसे घेर लेते। पूछते,

‘अरे कहां चले गए थे भागीराम ? ‘‘

     किसी महिला की आवाज कानों में पसरती,

     ‘मेरी चप्पलें नहीं गांठी भागी।‘

     ‘मेरे बूटों का क्या हुआ भागू।‘

     इस तरह कई प्रश्न और आवाजें उसके मस्तिष्क को झकझोर कर रख देती।

     कोई न कोई बहाना बना देता भागीराम। कभी कहता वह गांव चला गया था। कभी कहता उसकी पत्नी बीमार थी। कभी कोई बहाना तो कभी कोई। पर ऐसे कब तक चलेगा....? जिनके बूट-चप्पलें हैं वे तो लौटाने ही होंगे न। वह हाथ जोड़ कर रूंधे गले से दो-चार दिनों में मुरम्मत कर देने को कह देता। सभी उसकी बात मानते। माने भी क्यों न वह सब का प्यारा जो था। सब उसकी इज्जत करते। सब उसका मान रखते।


     वह सहत्तर कम तीन का हो गया था। ऐसे ही वह अपनी उम्र बताया करता। सीधे-सीधे कभी सतासठ नहीं कहता। वह कोशिश तो करता पर सतासठ बोलने में उसे दिक्कत होती। जब कोई पालिश करते हुए पूछता तो वह बताता कि इस जगह अपना अड्डा जमाए उसे चालीस साल हो गये हैं। उसने इस शहर को अपनी आंखों के सामने जवान होते देखा है। देवदारों, बानो और बुराशों को गिरते-कटते देखा है। बेतरतीब बनते कंकरीटी लैंटरों के घरों की साक्षी हैं उसकी आंखें। आजादी की कितनी परेडें उसने देखी हैं। कितने उत्सव उसकी आंखों में बसे हैं। कितनी कथा-कहानियां उसके दिलो-दिमाग में घर किए रहती हैं। कितने अफसर नगर निगम में आए और चले गये, उनका कोई हिसाब नहीं। पर उस पर किसी की इतने बरसों बुरी नजर नहीं पड़ी। किसी पुलिस वाले ने तंग नहीं किया। किसी ने मुफ्त पालिश नहीं करवाया। मुफ्त जूते नहीं गठवाए। हां, उसे पड़ोसी जरूर तंग करते रहे। उसकी टीन वाली खोली उनकी नजर में अटकी रही। क्या-क्या न करते रहे उसे खाली करवाने के लिए पर वहां भी वह बेघर नहीं हुआ।

     जब से भागी को अपनी जगह से बेघर होना पड़ा था वह अपन हक्वाई के साथ कभी बैंच पर बैठ जाता, कभी रैलिंग के साथ बनी बैठक पर तो कभी किसी ढलान में बरसों पुराने देवदार के तने के सहारे पीठ सटा कर। उसे अब समझ आया था कि अपनी जगह या घर से बेदखली के मायने क्या होते हैं ? कितनी पीड़ा देता है बे-जगह होना। कितना सालता है दर-दर की ठोकरें खाना। कलेजा मुंह को आने लगता है जब अपने ही शहर के गरीबों को बे-जगह और बेघर होते देखता है। कितनी ही झुग्गियां-छोंपडि़या पिछले सालों से प्रशासन खाली करवा रहा है। लोगों के परिवार सड़कों पर है। उनकी औरतों और बच्चों के सिर ढकने तक की जगह नहीं। उन झुग्गियों में उसका एक बिरादर भी रहता था जिसने भागी को बताया था कि अब वहां से बाई-पास बन रहा है। यही नहीं जहां वह बैठा था उस ढलान के बाईं तरफ बरसों पुराने चालीस बान के विशाल पेड़ इसलिए कट रहे हैं कि वहां अफसरों की गाडि़यों के लिए पार्किंग बनाई जाएगी। जगह-जगह सर कटे ठूंठ दिखते हैं तो लगता है जैसे उसका अपना सर, धड़ से अलग होकर मिट्टी में दफना दिया गया है। कितना हरा-भरा लगता था यह जंगल। सोचकर उसका दिल दर्द से कराहने लगता है................कि उसके हाल भी इसी तरह हो गये हैं।  भागी यह सोचता-सोचता बरसों पीछे चला गया था।


     मुसीबतों का पतझड़ चालीस साल के सफर के बाद अचानक उस पर टूट पड़ा था। इस बुढ़ापे में उसे ये दिन भी देखने होंगे कभी सोचा नहीं था। उसे अपना बचपन याद आने लगा था। अपने पुरखों की सम्पन्नता स्मरण होने लगी थी। अपने बाप-दादा के ठाठ-बाठ याद आने लगे थे। उनकी जमींदारी स्मरण होने लगी थी.................एक समय था जब उसका गांव और वहां रहने वाले लोग, उसका अपना परिवार बान के जंगलों की तरह हरा-भरा था। एक नीच जात होते हुए भी उनका डंका अंग्रेजी हकूमत में बजता था। दिल्ली के दरबार तक उसके बाप-दादा के बनाए बूट और गुरगाबियां जातीं। अंग्रेजी लाट दूर-दूर से घोड़ों पर वहां आते। अपने लिए और अपने पूरे परिवार के लिए बूट, चप्पलें और सैंडिल बनवातें। घोड़ों की जीने वहीं बनती। पिस्टलों के बैल्ट वहीं बनते। लम्बे-छोटे चाबुक भी अंग्रेज उन्हीं से बनवाते। चमड़े का ऐसा धन्धा कि बड़े-बड़े व्यापारी भी दंग रह जाए। कितने लोगों को रोजगार देता था भागीराम का परिवार।

भागीराम उन दिनों भागू के नाम से जाना जाता था। जब वह जनमा तो उसके ग्रह इतने अच्छे थे कि उसका नाम राशि से नहीं भाग्य से रखा गया-भाग्यराम। उसके दादा चाहते कि उसका नाम किसी भगवान के नाम पर रखे लेकिन वह अपनी सीमाएं जानते थे। अब वे ब्राहमण-ठाकुर तो थे नहीं कि बच्चे का नाम शंकर, कृष्णचंद, रामनाथ, गणेशदत, देवी प्रसाद, देवेन्द्र, सूर्य प्रकाश आदि-आदि रखते, इसलिए सोचा भाग्य से ही ठीक रहेगा। पर बाद में वह भागीराम हो गया। बोलने-लिखने में आसान।

     भागी को जब स्कूल छोड़ा तो उसका मन पढ़ने में बिल्कुल नहीं लगता था। वह स्कूल से भाग कर दिन भर खेतों में छिपा रहता या जहां चमड़े की कमाई होती वहां बैठा रहता। इतना जरूर था कि उसने थोड़ा हिन्दी पढ़ना लिखना सीख लिया था। कई तो उसे इस भागम-भाग के लिए घर में भागू कहने लगे। दादा ने जब देखा कि पढ़ने के बजाए उसकी रुचि चमड़े के काम में ज्यादा है तो अपने साथ-साथ रखने लगे। कारीगरों के बीच रखने लगे। इसलिए आज बचपन की वे यादें भागीराम के जहन में किसी चलचित्र की तरह जिन्दा थीं।

     उसे याद है कि छोटे-बड़े पशुओं की कच्ची खालें जब आतीं तो उन्हें खूब साफ किया जाता और कई तरह के रसायनों से उन्हें ‘कमाकर‘ चमड़े में तब्दील कर दिया जाता था। पानी की बड़ी-बड़ी हण्डियों में पानी भरते रहना भागी को अच्छा लगता था। वह मजदूरों के साथ यह काम एक खेल की तरह किया करता। उन हण्डियों के नीचे बड़े-बड़े लक्कड़-ठूंठ जले रहते और उबलते पानी में उन खालों को डाल दिया जाता। उसके दादा उसे जब खालों के बारे में बताते तो वह एक छात्र की तरह ध्यान से सुनता और देखता रहता। उन दिनों उनके गांव तक कोई सड़क नहीं थी। कई-कई दिनों पैदल चलने के बाद शहरों से मजदूर खालें ले कर उनके गांव पहुंचते थे। दादा बताया करते कि ज्यादा चमड़ा बड़े गोजातीय तथा भेड़ और बकरी की खालों से बनता है। दादा उसे इनके साथ कुछ विशेष प्रकार की खालें भी दिखाते जो घोड़े, सुअर, कंगारू, हिरन, समुद्री घोड़े इत्यादि की होती जो छोटे और विशेष काम के लिए आती थीं। भागी के दादा बताते कि उस समय भारत खालें पैदा करने में दूसरे तथा बकरी और मेमनों की खालें पैदा करने में नम्बर एक पर था।

     भागी देखता कि खालों के बंडलों में खूब नमक रचाया होता। वह इस बारे में जब दादा से पूछता तो वे बताते कि नई-ताजी खालों पर नमक छिड़कने से खालों में कीड़ा नहीं लगता और वे सड़ने से बची रहती है। गांव के बड़े-बड़े कमाई घर में उन खालों के बंडल खुलते और भागी देखता रहता। उसके बाद उन्हें खोलकर छाया में लटकाया जाता था। भागी को इन खालों की रखवाली के लिए रखा जाता और वह एक लम्बा सा बांस का डंडा लेकर उनकी जुगाली करता कि कुत्ते या कोई दूसरे जंगली जानवर आ कर उन्हें घसीट न ले जाए।

     कमाई घरों के साथ बड़े-बड़े कुण्ड बने होते जहां भागी का जाना मना था। उनमें बच्चों के गिरने का खतरा बना रहता। इसलिए वह दूर से देखता रहता कि उनमें पानी के साथ चूना मिला दिया जाता और उनमें खालें डाल दी जातीं। उसके बाद उन्हें बाहर निकाल कर सुखाया जाता और फिर शुरू होती रंगाई। कड़ी मेहनत के बाद खालें काली और पीले रंग की हो जाती तो भागी को लगता जैसे कोई मुलायम कपड़ा तैयार हो गया हो। वह उन पर हाथ फेरता तो फेरता ही रह जाता।

     खालें अलग-अलग कमरों में कारीगरों के पास जातीं। कहीं बूट बनते रहते, कहीं चमड़े की बेल्टें बनती रहतीं तो कहीं छोटे-बड़े पर्स बनाए जाते। अंग्रेजों के लिए जहां बूट बनते वह कमरा भागी को सबसे ज्यादा पसन्द था। वहां उसके दादा के साथ उसके पिता और चाचा तथा कई कारीगर काम करते रहते। दूसरे कारीगरों की बनिस्पत उन सभी के कपड़े साफ-सुथरे होते। चमड़े की भीतर ज्यादा गंध न फैले इसलिए वहां एक छोटी सी भट्टी में अगरबत्तियां और धूप जलता रहता। इसमें जंगल के कुछ विशेष सूखे पत्ते भी डाले जाते जिससे कमरा लुभावनी सुगन्ध से महकता रहता। एक किनारे बड़े और शानदार सोफे लगे होते जिन्हें चादरों से ढका होता। वे तभी हटाई जातीं जब कोई अंग्रेज अफसर वहां बूट बनाने या दूसरी चीजें लेने आते। वे उनके लिए खास तौर से बनाए होते थे।

     जब कोई अंग्रेज घोड़े पर आता तो भागी के लिए वह सबसे बढि़या दिन होता। वह एकटक घोड़ों को देखता रहता। अंग्रेजों को देखता रहता। उसके कपड़े और उनकी पिस्टलें और बंदूके देखता रहता। उनकी गाल तक लटकी कलमें और लम्बी-करारी मूछें देखता रहता। उसका मन करता कि वे अंग्रेजों और उनके घोड़ों को छुए पर उसके दादा ने इस बावत सख्त हिदायतें दे रखीं थीं कि ऐसा करने पर अंग्रेज गोली मार देंगे। इसलिए वह डरा रहता और दूर से ही देखने में संतोष कर लेता।

     चमड़े के धन्धे के साथ-साथ उनकी जमींदारी भी खूब थी। वह ऐसा गांव था जो नदी के किनारे बसा था। इसलिए पानी की कमी नहीं थी। मिट्टी उर्वर थी, जैसी चाहे फसल उगा लो। वे लोग मौसमी फसलें और सब्जियां तो लेते ही थे लेकिन उनके क्यारों में पीला-मोटा चावल बहुत होता था जिसकी बहुत मांग थी। वह मंहगा भी बिकता था। कई रियासतों से उस चावल की मांग होती थी। अंग्रेजी हुकूमत के बहुत से लोग भी उस चावल को पसन्द करते थे। इसलिए भी दूर-पार के कई ऊंची जात के लोगों की नजरें उस गांव पर थीं।

     औरतें जहां खेती में कड़ी मेहनत करतीं, वहीं हर घर में पांच से दस तक पहाड़ी गाएं और भैंसे पलती थीं। इसलिए दूध-घी की कोई कमी नहीं थी। उस गांव का घी भी दूर-दूर तक बिकने जाता था। यह भी उन घरों की आमदनी का अतिरिक्त साधन था।

     उन दिनों यदि किसी सवर्ण बिरादरी के घर किसी का पशु मरता तो भागी की बिरादरी के लोगों को ऊंची पहाड़ी से आवाजें पड़तीं। तभी उसके दादा से सलाह-मशविरा होता कि इस बार कौन पशु की गति करने जाएगा। एक-दो बार तो अपने चाचा के साथ भागी भी गया था। उसने देखा था कि चाचा ने एक बड़ा बांस का किल्टा अपनी पीठ पर उठाया था और उसमें एक तेज धार वाली खुखरी रख दी थी। जब चाचा उस गौशाला में पहुंचा जिसमें पशु मरा था तो उसने किल्टा भागी को पकड़ा दिया था और खुद मरे हुए पशु को एक मजबूत रस्सी से बांध कर खींचने लगा था। इतना भारी-भरकम पशु चाचा कैसे खींच रहा था, वह आज सोचता था तो विश्वास नहीं होता। पर उसका चाचा तगड़ा गबरू था जिसने उस पशु को काफी नीचे खेत तक बहुत कम समय में खींच कर फैंक दिया था।

     जैसे ही पशु खेत में गिरा चाचा ने रस्सी खोल कर किल्टे से खुखरी निकाल दी थी। उस पशु का सिर पहले पूर्व की तरफ था जिसे चाचा ने उत्तर की तरफ किया था और फिर कुछ देर आंखें बंद करके कोई मन्त्र पढ़ता रहा था। मन्त्र पढ़ने के बाद उस पशु पर जैसे ही पहला वार चाचा ने किया था अचानक दर्जनों गिद्धें और कौवे आसमान से नीचे उतरने लगे थे। भागी यह देख कर हैरान रह गया था कि वे बजाए चाचा के पास आने के इधर-उधर पेड़ों पर डटे रहे। चाचा ने बड़े इत्मीनान से उस पशु की खाल निकाली और उसे किल्टे में भर दिया। फिर चलने से पहले थोड़ा सा मांस मथा टेक कर चारों तरफ फैंक दिया जैसे उन पक्षियों का आहवान कर रहा हो। जैसे ही चाचा भागी के साथा चार कदम आगे गया, गिद्धों का एक बड़ा दल उस पशु पर पड़ गया था। अब धीरे-धीरे गांव के कुत्ते भी वहां इकट्ठे होने लगे थे। चाचा ने घर आते हुए भागी को समझाया था कि गाय-बैल और किसी भैंस की गति तब तक नहीं होती जब तक कि उनकी बिरादरी के हाथ उनमें न लगे। यह बड़े पुण्य का काम होता है।

     आजादी के बाद भागी चमड़े के इस काम को काफी समझने लगा था लेकिन उसके देखते-ही देखते कई घटनाएं घटीं जिन्हें याद करके वह आज भी दहल जाता है। शहरों से गांव तक दंगे शुरू हो गये थे। एक दिन तो उसने कई लोगों को वहां आकर उत्पात मचाते देखा था जो दादा से इस बात पर बहस रहे थे कि उनके कारीगरों में मुसलमान है। दादा ने उन्हें जैसे-कैसे समझा-बुझा कर भेजा था। भागी को समझाते हुए दादा ने यह भी बताया था कि पूछ-ताछ करने वाले लोग बड़ी जात के लोग हैं। उन दिनों भागी के लिए जातपात के कोई मायने नहीं थे। वह हिन्दू-मुसलमान नहीं जानता था। न ही सिख या इसाई की परख थी। उसके लिए ठाकुर-ब्राहमण या हरिजन सभी आदमी जैसे लगते थे। वह नहीं जानता था कि ये दंगे किस लिए हो रहे हैं। उसके बाल मन में एक दहशत जरूर घर कर गई थी।

     उसे पता था कि चमड़े के कमाई-घर में कई ऐसे लोग थे जिन्हें मुसलमान कहा जाता था। भागी को बाद में पता चला कि दादा ने झूठ बोल कर उन लोगों को बचा दिया था और उसी रात उनको जंगल के रास्ते किसी दूसरे देश भेज दिया था। उनके साथ उनकी औरतें और छोटे-छोटे बच्चे भी थे।

     यही कारण था कि भागी के गांव पर उनकी बुरी नजरें टिक गईं थीं। उनका कारोबार भी उनकी आंख की किरकिरी बन गया था। वे इस ताक में थे कि कब इस बढ़ते कारोबार को तहस-नहस किया जाए।

     एक दिन चमड़ा शिल्पियों के इस गांव पर जैसे बिजली टूट पड़ी। भागी के दादा की लाश खेत से लगती नदी के किनारे मिली थी। इससे पूरे गांव में सनसनी फैल गई। भागी के लिए यह सदमा असहनीय था। वह दादा का बहुत लाडला था। गांव के लोगों ने इस बारे दिल्ली तक शिकायतें की थीं लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात। हालांकि कई दिनों पुलिस उस गांव में डेरा डाले रही, लेकिन लगता रहा कि वे महज औपचारिकताएं पूरी करने गांव आए हैं। इस हादसे को बीते अभी कुछ रोज ही हुए थे कि उनके गांव के दो-तीन लोगों के मुर्दा शरीर फिर नदी के किनारे कटे हुए मिले। गांव में एक अजीब तरह का डर फैल गया था। हालांकि उन लोगों की दिल्ली दरबार तक पहुंच थी पर इस समय उनकी सहायता के लिए कोई आगे आने को तैयार नहीं था।
    
     एक दिन अचानक जब गांव आग की लपेट में आया तो भागी के होश उड़ गये थे। अकेली संतान होने के नाते पिता को उसकी बहुत फिक्र थी। इसलिए उसे पिता ने उसके चाचा के हवाले कर दिया और खुद आग बुझाने चले गये। अपने परिवार के बाकी सदस्यों को बचाने के लिए वे आग में कूद गये थे लेकिन आग इतनी भंयकर थी कि शायद ही कुछ बच पाया हो। औरतें और बच्चे घरों से बाहर न निकल सके। पशु गौशालाओं में रम्भाते रहे थे। भागी के चाचा ने जब देखा कि पूरा गांव जल कर भस्म हो रहा है तो वह भागी को अपने साथ लेकर वहां से निकल गया। यह एक अप्रत्याशित आक्रमण था जो सवर्ण जाति के लोगों ने उनकी बिरादरी और धन्धा चैपट करने के लिए किया था। वे लोग नहीं चाहते थे कि उनका काम और नाम बढ़ता जाए।

     इस साजिश में कई गांव के दबंगई सवर्ण शामिल थे। इसलिए कभी किसी को यह पता न चल पाया कि यह एक सोची-समझी चाल थी। हर जगह यही बात फैलाई गई कि यह एक कुदरती हादसा था जिसमें पूरे का पूरा गांव तबाह हो गया। दबंगईयों ने यह पूरा ख्याल रखा था कि उस रात कोई बचा न रह पाए। हालांकि भागी और उसके चाचा भागने में कामयाब हो गये थे लेकिन उन्हें डर था कि यदि उनके जीवित होने का पता चला तो वे भी मार दिए जाएंगे। भागी और उसके चाचा पता नहीं भूखे-प्यासे कितने दिनों तक जगह-जगह भटकते रहे थे। वे सच्चे-पक्के भी थे इसलिए जिस गांव या घर में जाते वहां अपनी जात बता देते और इस वजह से उन्हें कोई न गांव में रहने देता और न घर के भीतर घुसने देता। न जाने कितनी रातें उन्होंने जंगलों और खेतों में काटी थीं। जैसे-कैसे कई दिनों पैदल चलने के बाद वे एक ऐसे शहर पहुंचे थे जो अभी बसने लगा था।

     आज हालांकि उस तरह की दहशत या माहौल नहीं था पर खुली जमीन से बे-दखली भागीराम को अतीत में ले गई थीं। उसे याद है जब वह शहर चाचा के साथ आया था तो उनके पास रहने की जगह नहीं थी। कितने दिन उन्होंने सड़क के किनारे भूखे-प्यासे काटे। बिना छत के रहे। बोझा ढो-ढो कर अपना पेट पाला। जैसे-कैसे उसके चाचा ने  अपने रहने के लिए एक जगह ढूंढी थी। उनका एक घोड़े वाला दोस्त बन गया था और उस अनजानी जगह उनका बहुत साथ दिया। उसी ने एक घुड़साल के साथ उन्हें रहने की जगह दी थी। भागी के चाचा ने उसे ठीक-ठाक बना कर वहां एक छोटा सा ढारा खड़ा कर दिया था। उसी के बाहर एक बूट गाठने का अड्डा भी बना दिया जहां भागी अपने चाचा का हाथ बटाने लगा था। उस दौरान वहां कोई इस तरह के काम-धन्धा करने वाले नहीं थे, इसलिए कुछ दिनों में उनका काम अच्छा जमने लगा था।

     एक दिन उसके चाचा बीमार हुए तो भागी की मुसीबतें बढ़ गईं। इतने पैसे नहीं थे कि दवा-दारू जुट पाए। कुछ दिनों के बाद चाचा चल बसे। चाचा के जाने का गम भागी के लिए असहनीय था। पर अब तक उसकी जान पहचान बढ़ गई थी। इस कारण घोड़े वाले, खान मजदूर और कुछ दूसरे लोग उसके दोस्त बन गये थे। वही सब उसके काम आए।



     अब भागी अकेला था। एक दिन मन में अपने गांव देखने की इच्छा जागी। लालच था कि वहां बाप-दादाओं की जगह-जमीन जरूर होगी। उसने कुछ पैसे जुटाए और गांव चला गया। वहां पहुंचा तो देख कर दंग रह गया कि वह गांव अब एक छोटे शहर में तब्दील हो गया था। खेतों की जगह कंकरीट के बेशुमार मकान उग आए थे। अनगिनत दुकाने थीं, छोटे-मोटे कारखाने थे। स्कूल कालेज थे। नदी किनारे ईटों की बड़ी भटिट्यां थीं। जहां दादा का कमाई घर होता वहां एक भव्य राम-सीता मंदिर बन गया था। उसे कोई पहचानता नहीं था इसलिए वह देर तक अपनी स्मृतियां उस शहर की गलियों और मुहल्लों से बांटता रहा था।

     भागी जैसे-कैसे उस इलाके के पटवारी तक पहुंचा और उसे सारी बातें बताई। लेकिन पटवारी ने अपना लट्ठा जब देखा तो पाया कि लट्ठे और सरकारी कागजों में उसके किसी पुरखे का नाम दर्ज नहीं था। जहां वह अपनी जमीन और घर बता रहा था वहां ठाकुर काबिज थे। विशाल मंदिर के नाम जगह दर्ज थी। अब भागी नादान तो था नहीं, सारा खेल समझ आ गया था। पर अकेला चना कितनी भाड़ फोड़े। उसने उल्टे पांव लौटना ही मुनासिब समझा।



     भागीराम के ढारे के साथ सब्जी-मण्डी बसने लगी थी। ढारे वाली जगह बिजनस के लिहाज से कांटे की जगह थी, इसलिए कुछ बणिए किस्म के लोगों की नजरें उस पर बहुत पहले से टिकी हुई थीं। वे कुछ न कुछ परेशानी खड़ी कर दिया करते। कभी नगर निगम के लोग ढारे को उखाड़ने चले आ जाते। कभी खाली करने का नोटिस दरवाजे पर चिपका देते तो कभी उसकी पेशियां थाने-चौकी लगा लेते। भागीराम अपनी जगह को हर हालत में बचाना चाहता था। इसलिए वह हर मुसीबत से लड़ता रहा। इधर-उधर अर्जियां देता रहा और अपनी व्यथा सुनाता रहा। अपने बचाव में उसने अपनी जाति का सहारा अवश्य लिया था। इस कारण उसकी वह जगह तो बच गई पर आस-पड़ोसियों की दबंगई से तंग आकर उसने वहां काम करना बन्द कर दिया और शहर के एक बड़े चर्च के साथ लगती सड़क के किनारे बैठना शुरू कर दिया। वह सुबह निकल जाता और देर शाम को लौटता।



     अतीत में खोया वह कई घण्टों बेसुध सा पड़ा रहा। जब आंख खुली तो सूरज पश्चिमी पहाडि़यों के पीछे बादलों के बीच से नीचे उतर रहा था। वह कुछ देर उसी तरह बैठा रहा। यही सोच कर कि भगवान उसकी कितनी परीक्षाएं लेगा। उसके घर में कहीं कोई इंसाफ है भी या नहीं। यह सोचते-सोचते जैसे ही उठा तो अचानक नगर निगम की तरफ से उसी अफसर के ऊपर नजर गई जिसकी वजह से उसे ये दिन देखने पड़ रहे थे। साथ  दो-तीन चमचे भी थे। एक मन किया कि सामने जाकर उसका गला घोंट दें पर मन मार कर रह गया था। आज पहली बार उसके चेहरे को ध्यान से देखा था।

     सिर के बाल बिल्कुल सफेद थे पर मंहदी से उनकी शक्त अजीब सी हो गई थी। माथे के ऊपर तक गंजापन था। चेहरा पक्के रंग का था। छोटी-छोटी मूछें नीचे की ओर झुकी थी। ठोडी चपटी और बीच से हल्की नुकीली। आंखों पर मोटा चश्मा था। भागीराम को समझने में देर नहीं लगी कि यह जरूर किसी बणिए परिवार से हैं। सचमुच वह था भी बणिया परिवार से ही। बहुत काइंया। कंजूस। बेलिहाजा। अपने मतलब के लिए गधे भी उसके मामे थे। और बिना मतलब के बाप भी सरीक।

     नगर निगम के लोग अक्सर उसकी खिल्ली उड़ाया करते। भागी के पास जब वे बूट पालिश करवाने आते तो उसी की बातें होती रहती। वह चैकन्ने कान से उनकी बातों का मजा लिया करता था। उनका मानना था कि वह इतना अजीब और कंजूस था कि दफतर में अकेले कभी चाय नहीं पीता था। जब दो चार लोग उसके पास सामने बैठे होते, उस समय चाय का एक कप अपने लिए मंगवाता। साथ दो बिस्कुट। पहले एक बिस्कुट लेता और उसे सभी के सामने चाय में डूबो कर कुछ इस तरह चबाता और चूसता मानो बिस्कुट नहीं सुअर की हड्डी चूस रहा हो। दूसरे को कुतर-कुतर कर सामने बैठे लोगों को देख-देख कर खाता रहता। चाय ऐसे सुड़कता कि उसकी आवाज बाहर बैठे चपड़ासी भी सुन कर हंसते रहते। उसे कतई लिहाज नहीं होती कि सामने कोई दोस्त या दफतर का जूनियर अफसर बैठा है।

     उसने एक संस्था बना रखी थी जिसके लिए वह ठेकेदारों से अक्सर चंदा मांगा करता। एक रसीद बुक उसके दराज में पड़ी होती और जो लोग उसके पास किसी काम-धन्धे से आते उनके आगे वह रसीद खिसका देता। इस तरह की कई रसीद बुकें उसने अपने पीए और कर्मचारियों को भी थमाई होती, जिनका हिसाब उन्हें पांच बजे रोज देना पड़ता।

     उस अफसर को जगराते करवाने का बहुत शौक था। हर साल वह अपने घर में जगराता करवाता था। उसके लिए शायद ही कभी अपने घर या जेब से पैसे खर्च किए हो। अब जिस महकमें में वह जाता, उससे कोई न कोई काम-धन्धा करने वाले तो जुड़े रहते। जगराता उन्हीं के सर होता। माता के मंदिर से ज्येाति भी ऐसे ही किसी सम्बन्धित इलाके के अफसर या ठेकेदार से मंगवाई जाती।

     हर जगराते में पांच-दस ऐसे चमचे विशेष रूप से उपस्थित होते जो साहब के सम्बन्धित महकमे के मन्त्री और मुख्यमन्त्री के नजदीकी हों। पहले अपने घर में उन्हें ले जाता ताकि ड्राइंगरूम में वे देखें कि वह सत्तारूढ़ पार्टी का कितना चेहता है। सामने मुख्यमन्त्री महोदय की बड़ी सी फोटो लटकी होती। जगह-जगह उसी तरह की तस्वीरें जिसमें वह खुद मुख्यमन्त्री या मन्त्री के साथ दिखाई देता। कंजूस इतना था कि विपक्षी पार्टी के रह चुके मुख्यमन्त्री और उनके साथ खिंचवाई अपनी तस्वीरें उन्हीं चित्रों के पीछे मढ़ाई होती। जब सरकार बदले तो नई तस्वीरें बनवाने की जरूरत न पड़े, बस फोटोएं ही उल्टी कर दी जाएं।

     जब जगराता खत्म होता तो वह फिल्मी गानों की तर्ज पर बिना-सिर पैर वाले भजनों को गाने वाले गवईयों को एक-एक पुरस्कार जरूर देता। ये पुरस्कार बहुत सस्ते किस्म के होते। इस मौके पर एक फोटोग्राफर जरूर मौजूद रहता। दूसरे दिन जगराते के समाचार के साथ साहब की दरियादिली के चित्र अखबारों में दिख जाते। वह स्वयं ही प्रैसनोट बनाता और उसे कुछ अपने चेहते अखबार वालों को भिजवा देता। जब से उसने अपना फेसबुक एकाउंट खोला था, उसमें तो इस तरह के चित्रों की भरमार होती।

     वह अपने स्टाफ से भी हमेशा तुनका रहता। किसी को टाइम पर घर नहीं जाने देता। किसी को आसानी से छुट्टी नहीं देता। कोई मिलने आता तो घण्टों उससे इंतजार करवाया करता। उसका व्यवहार किसी नौटंकीबाज से कम नहीं होता। कभी वह स्टाफ के साथ ऐसे व्यवहार करता जैसे किसी नाटक में अभिनय कर रहा हो। कभी ऐसे रोब मारता जैसे उससे ज्यादा समझदार और ज्ञानी कोई दूसरा कभी उस पद पर बैठा ही न हो।

     उसके इस अजीबो-गरीब व्यवहार से नगर निगम के सारे कर्मचारी परेशान थे। लेकिन जितने में वे हड़ताल या उसके नारे लगाने की नौबत आती, भागी राम के साथ यह घटना घट गई थी।


     उस अफसर को नगर निगम में आए ज्यादा समय नहीं हुआ था कि भागीराम पर आफत टूट पड़ी थी। माजरा यह था कि अफसर की गाड़ी चर्च के पीछे बनी पार्किंग में खड़ी होती और जैसे ही वह उतरता, सामने भागीराम का ठीया नजर आता। इस तरह के लोगों से वह बहुत नफरत किया करता। भागीराम अपने ध्यान में किसी के बूट पालिश करता रहता तो उल्टे बूट का तला उस साहब की आंखों में खटक जाता।

कुछ दिनों तक तो उस अफसर ने कुछ नहीं कहां। एक सुबह वह गाड़ी से उतर कर सीधा भागीराम के पास आया और बक्से पर पैर रख के पालिश के आदेश किए। भागी राम ने उस तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया। उसने इत्मीनान से पालिश किया और साहब के बूट चमका दिए। फीते बंधवाने के बाद जब साहब बिना पैसे दिए जाने लगे तो भागीराम ने पीछे से आवाज मार दी,

     साहब पैसे तो देते जाओ।‘

     उसकी आवाज ने जैसे साहब पर सौ घड़े पानी फैंक दिया हो। पीछे मुड़ा तो उसका चेहरा अपमान के गुस्से से तमतमा रहा था। साथ जो अड़दली फाइलें बगल में दबाए साथ था उसकी भी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी, मानो भागीराम ने पैसे नहीं मांगे हो, बर्रे के छत्ते में पत्थर दे मारा हो। मन ही मन भागीराम को कोस रहा था कि इस पागल के मुंह लगने की क्या जरूरत थी ?

     ‘क्या बोला मिस्टर ?‘

     भागीराम के बिल्कुल पास जाकर साहब ने रोब झाड़ा,

     ‘यही जनाब कि पालिश के पैसे तो देते जाओ। सुबह-सुबह बोहणी का टाइम है।‘

      विनम्रता से भागी ने जवाब दिया था।

     ‘बोहणी......अच्छा........मुझसे बोहणी.........जानता नहीं साल्ला.....बोहणी।‘

     ये कुछ शब्द थे जो साहब महोदय मुंह के भीतर चबाते रहे।

     ‘लाइसैंस दिखा..........।‘

     ‘लाइसैंस.......? पालिश मारने का..........लाइसैंस.......?

     यह दोहराते हुए भागीराम की हंसी छूट गई। ठहाके सुन कर राह चलते कुछ लोग इधर -उधर खड़े हो गये थे।

     ‘क्या मजाक करते हो साहब, मैं कोई ट्रक में थोड़ी बैठेया हूं। फटी हुई दरी पर हूं।‘

     यह कहते हुए भागीराम ने अपना पीछा थोड़ा टेढ़ा करके साहब को दिखा दिया।

     साहब का पारा सातवें आसमान पर था।

     सही मायनों में भागी को भी पता नहीं था कि ये साहब नगर निगम के बड़े अफसर हैं।

     ‘तू जिस जगह बैठा है न मिस्टर, यह सरकारी जगह है। कमेटी की जगह। बाप का राज समझ रखा है। जहां मन किया अड्डा जमा दिया। फिर तो सबके मजे हो गये रे।‘

     अपने अर्दली को पास बुलाकर अब साहब उससे उलझ पड़ा था,

     ‘बई कितने दिनों से बैठ रहा है ये इधर।‘

     ‘जी, मैं तो जब से नौकरी लगा, इसको यहीं देखा है।‘

     सहजता से अर्दली ने जवाब दिया था।

     ‘अच्छा...........तो.......।‘

     यह कहते साहब ने वहीं से मोबाइल पर अपने लोगों को बुला कर आदेश दिए थे कि ये बूट गठिया आज के बाद यहां नहीं दिखना चाहिए।

     भागीराम ने कभी सोचा भी नहीं था कि बूट पालिश के पैसे मांगना इतना मंहगा पड़ जाएगा।


     नगर निगम के लोग दस मिनट में वहां एक वैन लेकर पहुंचे गए थे। साहब ने इतनी हड़ब़ी और गुस्से में फोन किया था कि वे यही समझ बैठे कि किसी आवारा कुत्ते को उठाना है। इसलिए वे कुत्ता-वैन लेकर वहां पहुंच गये। जब वे वहां आए तो भागीराम से पहले आस-पास सोए कई कुत्ते सतर्क हो गये थे। उन्हें जब मालूम हुआ कि मामला भागीराम से जुड़ा है तो वे अचम्भित रह गये। पर आदेश अफसर के थे इसलिए आनाकानी की कोई गुजांइश नहीं थी। वे अफसर के आदेशों का पालन तो कर रहे थे पर उन्होंने भागीराम को पिछले कई सालों से वहीं बैठे देखा था। पालिश और बूट मरम्मत करते पाया था। वे खुद भी कितनी बार उससे पालिश करवाते रहे थे। वे लंच ब्रेक में जब वहां आते तो पालिश करवाते भागी से खूब गप्पे हांकते थे। बूट ठीक करवाते थे। इतना ही नहीं नगर निगम के कई साहबों के जूते भी उनके चपड़ासी उसी से पालिश करवाते थे। एक दो साहब तो उसके काम से इतने खुश थे कि आते-जाते बिना काम किए ही उसे पच्चास-सौ रूपए बगशीश भी दे देते। अब जब सर पर नए साहब के आदेशों का डंडा हो तो कुछ न कुछ तो करना ही था। उन्होंने भागीराम को समझाया कि वह इस जगह को छोड़ दे।

     अब इतने सालों से जिस जगह अड्डा जमाए बिना रोक-टोक भागी बैठा था वहां से अचानक जाने की बात उसे जची नहीं। वह वहीं डटा रहा। दूसरे दिन फिर जब उस अफसर ने उसे देखा तो आग-बबूला हो गया। भागीराम से उलझ ही पड़ा। अब भागी भी कहां चुप रहने वाला था, दो चार बातें उसने भी सुना दी। अब साहब तो नगर निगम के मालिक ठहरे। दफतर पहुंचते ही उन लोगों की अच्छी-खासी धुनाई हुई जिन्हें पिछले कल साहब ने भागीराम को उठाने के लिए भेजा था।

     अब वे लोग भी क्या करते, आदेशों के पालन के सिवा कोई चारा नहीं था। दो-चार कर्मचारी आए और भागी के देखते ही देखते उसकी बोरी और पालिश का बक्सा उठाकर चलते बने। भागी को कुछ सूझ नहीं रहा था। कोई उसकी मदद करने नहीं आया। वह कुछ बड़बड़ाता हुआ उनके पीछे आगे तक गया पर किसी ने उसकी बात नहीं सुनी। इतना जरूर हुआ कि जो लोग भागी का सामान उठा कर ले गये उनके पीछे दो-चार कुत्ते अवश्य भौंकते हुए आगे तक गये थे।

अपनी जगह लौटा तो देखा कि इस झीना झपटी में उसकी पालिश की डिब्बियां, काले-भूरे दो ब्रश, दो क्रीम की शीशियां, कुंडी, घारू, कुछ चप्पलें और बूट इधर उधर सड़क में बिखरे पड़े थे। दो-तीन बन्दर सामान के साथ ढींगा-मस्ती करने लग गये थे। वह दौड़ता हुआ अपनी जगह आया पर बन्दर कुछ न कुछ उठाकर पेड़ पर चढ़ लिए थे। भागी के लिए यह गरीबी में आटा गीला जैसा था। उसने झटपट बिखरे बचे सामान को संभाला और इकट्ठा करके एक लिफाफे में डाल कर बांध दिया। अब हक्वाई का ख्याल आया तो जैसे काठ मार गया। उसने गुस्से में अपने सिर के बाल कई बार नोचें कि उससे यह गलती कैसे हो गई। उसने वह कहीं छुपा क्यों नहीं दी।

     उसे फिक्र अपनी लोहे की ‘हक्वाई‘ का था जिस पर वह दिन भर बूट गांठता, टांकता, कीलें ठोंकता और मुरम्मत करता था। वही उसकी रोजी-रोटी थी। वह जब अपनी जगह पर पहुंच कर अपना अड्डा जमाता तो सबसे पहले बक्से के साथ हक्वाई को इतने मान से रखता जैसे वह लोहे की त्रिभुज नहीं, त्रिदेव की प्रतिमा हो। उसके साथ कठौत रख कर प्लास्टिक की बोतल से उसमें पानी उड़ेल देता। पानी के छींटे हक्वाई पर भी मारता और उसे एक कपड़े से अच्छी तरह साफ करके कुछ बड़बड़ाते हुए मथा टेकता। किसी जूते को गाठते-गाठते वह उसके बखान भी करने लगता कि यह हमारी रोजी है............साथी है................दोस्त है..............हक की कमाई खिलाती है। कितना ही छोटा या बड़ा कारीगर क्यों न हो, यह सब के साथ होती है........बिना इसके तो हम एक कील नहीं ठोंक सकते..................। 

     हक्वाई जब उसे कहीं नहीं दिखी तो परेशान हो गया। वह बचे सामान की गठरी बगल में दबाए नगर निगम की तरफ दौड़ पड़ा। वह उस बाबू के कमरे में गया जो उसके सामान उठाने के दल के साथ आया था। भागी को कमरा इसलिए याद था कि कई बार एक चपरासी बाबू के बूट पालिश के लिए वहां छोड़ जाता और भागी खुद ही बूट वहां जा कर दे आता। 

     चपरासी ने उसे अंदर जाने से नहीं रोका। आखिर सभी तो भागीराम के परिचित थे। पर आज बाबू के तेवर देखने वाले थे जैसे उसे जानता तक नहीं। बाबू के काइंएपन को भागी जानता था। इसलिए कि जब-जब बाबू ने कभी भागी से पालिश करवाया तो मुश्किल से पैसे वसूले। एक दिन जब भागी ने पैसे मांग लिए तो बाबू लाल-पीला हो गया। कहने लगा,

     ‘हमारी खाता है और हमी को आंखे दिखाने लगा। ‘

     भागी की समझ में कुछ नहीं आया। सहज होकर कहने लगा,

     ‘बाबू तुम्हारा क्या खाते हैं। सुबह से शाम सबके उल्टे जूतों से वास्ता पड़ता है। हक्वाई पर ठोक-बजा कर इन्हें पांव लायक बनाते हैं। चमकाते हैं और उसी के दो पैसे कमाते हैं।‘

     ‘पर जिधर तू बैठा है न, ये सरकारी जगह है, तुम्हारे बाप की नहीं न।‘

     अजीब तरह से आंखे मटकाते और दाहिने पांव के बूट के फीते बांधते थोड़ा गर्दन नीचे किए भागी के कान में बाबू ने बोला था। अब बाप की गाली तो भागी कैसे सुनता.......?

     वह जैसे झुका था वैसे ही एक हाथ से उसका सिर दबा कर भागी ने उसका मुंह हक्वाई के ऊपर ठोंक दिया था और इतमिनान से समझाया था,

     ‘देख बाबू, एक बात याद कर लीओ। मेरे को तो ठीक है कुछ बी बोल दे, पर पीछे बाप तक नी जाणा आपने। नहीं तो ये जो पांच किलो की हक्वाई है न, जिस पर जूता और हथोड़ा सुबह से शाम तक बजता है, इसे तेरे पीछे ऐसे ठोंकूंगा न कि हिमाचल सरकार तो क्या दिल्ली की बी निकाल न सकेगी। इसलिए मेरा पैसा दे और दफा हो जा।‘

     यह कहते हुए भागी ने बाबू का सिर ऐसे ऊपर छोड़ा मानो कोई मुड़ी लोहे की तार का सिरा झटके से छोड़ दिया हो। टेढ़ी गर्दन से बाबू ने इधर-उधर देखा......और खिसक लिया। मन ही मन खुंदक इतनी भर गई कि उसका क्या न करें। एक-दो औरतें और मर्द खड़े अपने-अपने काम का इंतजार कर रहे थे।

     बाबू तो इस मौके की तलाश में था ही। आज उसी का ख़म्याजा भागीराम को भुगतना पड़ रहा था। भागी पर नजर गई तो बाबू मन ही मन ऐसे खुश हुआ मानो सरकार ने डी0ए0 की किश़्त जारी कर दी हो। पहले से ज्यादा फाइलों में व्यस्त हो गया। परेशान भागी ने थकी हुई नजर कमरे में डाली। एक कोने में उसकी बोरी और बक्सा रखा था। उसकी जान में जान आ गई। अचानक नजर सामान के बीच पड़ी हक्वाई पर गई तो आंखों में ऐसे चमक उमड़ी मानो खोई बिटिया दिख गई हो। उसने बिना किसी को पूछे उस पर जैसे झपट्टा मार दिया।

     बाबू शायद उसकी हेकडी जानता था। इसलिए पहले ही दो पुलिस वालों को बगल में बिठा रखा था। भागी की नजर उन पर नहीं गई थी।

     जैसे ही भागी हक्वाई उठाने लगा, दोनों पुलिस वाले उस पर ऐसे झपटे जैसे बिल्ली चूहे पर। भागी को उन दोनों ने ऐसे दबोच लिया मानो वह अपना सामान नहीं नगर निगम की कोई वेशकीमती फाइल चोर कर भागने वाला था। भागी का मन किया कि लोहे की हक्वाई इन दोनों के सर पर मार दें पर अपने गुस्से को पी गया। जानता था इनके आगे वह बेबस है। वे जो चाहें कर सकते हैं। ऊपर बड़े साहब हैं और सामने बाबू, अब खुंदक तो निकालेगा ही। वह असहाय सा वहीं बैठ गया।

     गुस्सा आंसुओं में तब्दील हो गया था। वह फूट फूट कर ऐसे रो दिया जैसे अभी-अभी सर से मां का साया उठा हो।

     सभी सकते में आ गये। वह रूंधे गले और सिसकियों से पुकार रहा था,


     ‘मेरा क्या कसूर है बाबू। बताओ न। मैंने किसी की चोरी की है। किसी की लड़की भगा दी है। कोई खून करा है। मालिको बताओ तो मेरे को। पिछले चालीस सालों से एक जगह बैठता हूं। नीचे धरती है, ऊपर आसमान है। बरखा-बर्फ न हो तो बैठता हूं। नहीं तो घर में रहता हूं। किसी का क्या खाता हूं मालिको। बताओ न मेरे को। इस पेट के लिए आप लोगों के जूते खाता हूं। उनकी धूल चखता हूं। गाठता हूं कि तुम लोग आराम से चल सको। तुम्हारे पांव में कोई कील न चुभे। उसके कभी चार पैसे मिलते हैं और कभी कोई देता ही नहीं। सरकार को मेरे से कितना घाटा हो रैया है। बताओ न बाबू। देखो तुम सबकुछ रख लो पर मेरी हक्वाई दे दो। ये मेरी मां-बाप है। रोजी-रोटी है। साथी-संगी है। इसके साथ दो-चार लोगों के बूट और चप्पलें बोरी में हैं उनको दे दो। दूसरों की इमानत में खयानत हो जहाएगी। बरसों की इज्जत जाएगी सो अलग।

     वह बहुत देर गिड़गिड़ाते हुए रोता रहा था। उसका रोना सुनकर ब्रांचों से दूसरे कर्मचारी भी दरवाजे पर आ धमके थे।

     उसकी सिसकियां धूल चाटती फाइलों में पसर गई। धीरे-धीरे जैसे फाइलों के कागजों से सरकती वह बाबू और पुलिस वालों के भीतर चली गई। सबका मन तो पसीज गया पर मामला बड़े साहब से पंगा लेने का था इसलिए दया-वया की कोई गुंजाइश नहीं रह गई थीं।

     एक पुलिस वालें ने बात संभाली,

     ‘देख बे भागी! तेरे को जब साहब ने मना किया, तो तू वहीं बैठा। नहीं माना तू। ऊपर से आदेश हैं तो हम क्या करें। हमारी भी नौकरी है भई। बाल-बच्चे हैं। हमारी भी तो सुन न कुछ। एक शर्त पर तेरा समान मिलेगा। तुम कल से रिज पर नहीं दिखणा चाहिए। न साहब को न हमारे को।‘

     ‘नहीं दिखूंगा मालिको, नहीं दिखूंगा। पर मेरा सामान देई देओ।‘

     ‘उठा-उठा जल्दी  और दफा हो जा यहां से। दिमाग मत चाट।‘

     यह बाबू जी की मेहरबानी थी।

     मेहरबानी से ज्यादा अपने कमरे में भागी का सामान और खुद उसका होना उसे अखर रहा था। जैसे ही भागी भीतर गया था बाबू ने सबसे पहले गले से बाहर निकला अपना जनेऊ पहले भीतर ठूंसा और उसके बाद मेज के किनारे पडा पानी का जग अपने पीछे पडे रैक में छुपा दिया कि कहीं भागी की परछाई उस पर न पड़ जाए। वह नहीं चाहता था कि एक जूते गाठने वाला उसके कमरे में इतनी देर टिका रहे।

     भागी ने झटपट अपना सामान समेटा। जैसे-कैसे उठाया और बाहर निकल लिया।

     पता नहीं बाबू के कमरे में क्यों एक अजीब सा सन्नाटा काफी देर छाया रहा। किसी ने किसी से कोई बात नहीं की। दोनों पुलिस वाले बाबू से बिना बतियाए चल दिए। बाबू अकेला अपनी कुर्सी पर बेचैन सा बैठा रहा। कुछ देर बाद उसे लगा कि जैसे वह सरकारी दफतर की कुर्सी पर नहीं भागी राम की कठौत के पानी में डूब गया था। चमड़े की कसैली गंध उसके नाक में घुस गई है। उसने दो-चार बार नाक साफ किया। लेकिन वह गंध धीरे-धीरे जैसे उसके नाक से मेज पर बिखर गई और वहां से सरकती फाइल के हर कागज में लिपटने लगी। वह पागलों की तरह कभी मेज को साफ करता, कभी फाइलों को झाड़ता। कुछ समय बाद उसे महसूस हुआ कि वह गंध उसके पुराने कोट में फंस गई है। उसने झट से कोट खोला और कुर्सी पर पटक दिया। पर उसे वह गंध अपने कुर्ते, पैंट और भीतर के कपड़ों तक में फंसी महसूस हुई। उसने दरवाजा बंद किया और बारी-बारी बदन से कपड़े उतारने शुरू कर दिए। गुस्से के मारे उसने अपना जनेऊ के भी कई टुकड़े कर कूड़ादानी में फैंक दिया था। कुर्सी मेज पर कपड़ों का ढेर लगा कर एक कोने में निपट नंगा दुबक गया था।

लेकिन वह गंध अब न केवल कमरे में बल्कि उसके नाक से उसके अपने भीतर प्रवेश कर गई थी। उसे कैसे निकालता। पता नहीं कब तक वह नंगा बैठा रहा था। शायद उस समय तक जब दफतरी ने नगर निगम भवन के ऊपर लगे तिरंगे को सलाम करते हुए उसे उतार न दिया था।


     दूसरे दिन पुलिस उसे थाने ले गई थी। बाबू से मारपीट की शिकायत दर्ज थी थाने में। पुलिस के सिपाही ने उसे कुछ नहीं बताया। हालांकि वह भागी को अच्छी तरह जानता था और गशत लगाते कई बार उससे बूट पालिश करवाया करता। भागी राम ने पूछने का प्रयास किया लेकिन पुलिस वाला अनजान बना रहा।

     भागी राम जहां रहता वहां से थाना ज्यादा दूर नहीं था। आज तक कभी वहां जाने की जरूरत नहीं पड़ी थी। अब ये दिन भी देखने थे.........मन ही मन वह सोचता रहा। पता नहीं अब कौन सी आफत सामने होगी, यह सोच कर वह घबरा भी गया था लेकिन उसे इतना जरूर मालूम था कि उसने कोई ऐसा अपराध नहीं कर रखा है जिससे वह घबराए। थाने में जाने की एक शर्म मन में जरूर थी कि लोग क्या कहेंगे। ....अब कोई शराबखाने में बैठा दूध पीता रहे तो लोग तो समझेंगे कि दारू पी रहा है, दूध की बात भला किस के गले उतरेगी। कई कुछ सोचता वह थाना परिसर में प्रवेश हुआ। पुलिस वाला उसे सीधा थानेदार के पास लेगया।

     भागीराम ने देखा कि थानेदार कोई महिला है। उसे याद आया कि यह महिला थानेदार अपने बढि़या कामों के लिए खूब चर्चा में हैं। उसकी उसने कई बार अखबारों में फोटो भी देखी थी। दरवाजे पर खड़े-खड़े उसने झुक कर नमस्ते की तो महिला थानेदार ने उसे अंदर बुला लिया।

     उस समय भीतर कोई नहीं था।

     ‘बैठ जाईए।‘

     चेहरे पर थोड़ा रोबीलापन दर्शाते हुए थानेदारन ने आदेश दिया।

     भागीराम ने वही पुराने कपड़े पहन रखे थे जिनमें जगह-जगह पालिश के काले-पीले निशान थे। उसने एक नजर थानेदारन पर डाली और दूसरी कुर्सी पर। उसे बैठना अटपटा लगा था।

     ‘आपको बोला न, बैठ जाईए।‘

     इस बार मेज के नीचे कहीं लगी घण्टी बजाते हुए उसने दोबारा आदेश दिए। इससे पहले कि वह बैठता, एक सिपाही ने भीतर आकर मैडम को सैल्यूट मारते ‘यस सर‘ कहा।

     ‘यस सर‘ का मतलब भागी जानता था। उसने चोर आंखों से एकबार फिर थानेदारन पर नजर डाली कि कहीं वह आदमी तो नहीं है, लेकिन ऐसा नहीं था। वह महिला थानेदार ही थी।

भागी बैठ गया और उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ कि उस थानेदारन ने दो चाए का आदेश दिया। पर वह सोचता रहा कि शायद कोई और आने वाला होगा।

वह अब सीधी बात पर आ गई थी।

‘आपके खिलाफ नगर निगम के बाबू ने शिकायत दर्ज करवाई है कि आपने कल उससे मारपीट की।‘

अब समझा था भागीराम कि माजरा क्या है ?

वह कुछ कहने के लिए खड़ा होने लगा लेकिन मैडम ने उसे यह कहते हुए बिठा दिया कि उसे जो कुछ कहना है बैठ कर कहे।

भागी ने हाथ जोड़ दिए। कुछ बोलने से पहले ही उसकी दोनों आंखें छले पड़ी। गला पूरी तरह रूंध गया था। बहुत कोशिश करने पर भी शब्द बाहर नहीं निकल पा रहे थे।

मैडम थानेदार ने इस बार टिकी नजर से उसके मासूम चेहरे की परख की। उसके बाल बिखरे हुए थे जैसे कई दिनों से नहाया न हो। मूंछे और दाढ़ी आपस में ऐसे चिपक गई थी मानो चमड़ा जोड़ने का फिक्सर लगाकर चिपकाई गई हो। आंखों से टपकती पानी की बूंदे उनके ऊपर से नीचे आती बिना बटन के कुरते के भीतर छाती तक चली गई थी।

महिला थानेदार को लगा मोना भागीराम की आंखों के वे आंसू उसकी अपनी आंखों में ऊतर आए हैं। वह झटपट उठी और दाहिने दरवाजे से भीतर के कमरे में चली गई। भागीराम को नहीं पता वह इस तरह क्यों गई थीं। लेकिन सच्चाई यह थी कि उसके चेहरे की अथाह पीड़ाओं और मासूमियत ने मैडम को भीतर तक झकझोर कर रख दिया था। गरीब के आंसुओं की भी कितनी भाषाएं होती है, वह कई पल भीतर अपनी आंखे पोंछती सोचती रही थी।

भीतर आई तो बिना उसके पूछे भागीराम रूक-रूक कर अपनी व्यथा सुनाने लगा था।...............कि किस तरह पिछले कल पुलिस वाले उसका सामान उठा कर ले गये। बाबू ने कितनी बदतमीजी से उससे बात की। कि वह पिछले कितने दिनों से तंग किया जा रहा है..........कि वह चालीस सालों से उस जगह अपना थड़ा सुबह दस बजे से शाम आठ बजे तक लगाता है और बूट गांठता है, पालिश करता है। किसी का कुछ नहीं लेता। इससे पहले किसी ने उसे तंग नहीं किया। बस जब से नया साहब आया है, उसका जीना हराम हो गया है।........पता नहीं वह कितना कुछ बोल गया था, जैसे वह अपना दुख किसी थानेदार मैडम को नहीं बल्कि किसी अपने प्रिय के पास बखान कर रहा हो।

महिला थानेदार सब कुछ जानती थी पर ऊपर से इतना दवाब था कि मजबूर थी। कोशिश तो उस बाबू और अफसर की यह थी कि भागीराम को कुछ दिन थाने में रखे लेकिन उसके खिलाफ ऐसा कोई जुर्म बनता ही नहीं था।

चाय आई तो दोनों कप उस पुलिस वाले ने मैडम के सामने रख दिए। उसने कभी नहीं सोचा था कि मैडम इस जूते गाठने वाले के लिए चाय मंगाएगी। लेकिन उसका सोचना गलत निकला जब मैडम ने उस दूसरे कप को स्वयं भागीराम की ओर खिसका दिया।

भागी बेचारा कभी चाय देखता, कभी मैडम को तो कभी इधर-उधर कमरे की दीवारों को। उसकी नजर महात्मा गांधी की तस्वीर पर कुछ देर टिकी रही जो मैडम थानेदार के बिल्कुल ऊपर भीत पर टंगी थी। संकोच के साथ जैसे-कैसे उसने चाय गटकी। उसके जीवन का यह पहला अवसर था जब उसने किसी अफसर या अफसर के कमरे में चाय पी थी, वरना जाते ही उसे बूट और चप्पलें थमा दी जातीं।

मैडम भागी को समझाने लगी थी,

‘देखो भागीराम, तुम्हारे खिलाफ कई शिकायतें हैं। लेकिन मैं जानती हूं तुमने कोई अपराध नहीं किया है। तुम कुछ दिनों के लिए अपने गांव क्यों नहीं चले जाते..........?‘

गांव का नाम सुनते ही भागीराम जैसे चौंक सा गया था। बचपन के वे परिदृश्य उसके सामने अचानक उमड़ने-घुमड़ने लगे थे। पर वह अपनी रामकहानी मैडम को कैसे सुनाएं कि उसका अब कोई गांव नहीं है। वह शहर में तब्दील हो गया है। उसके पुरखों को भी अपनी मेहनत का खम्याजा भुगतना पड़ा था। पर वे दिन अंग्रेजों के थे और आज हमारे अपने हैं।

‘या ऐसा क्यों नहीं करते कि कोई दूसरी जगह बैठा करो।‘

भागी ने कोई जवाब नहीं दिया था। वह जानता था अब कहीं भी वह बैठे उसे ये लोग जीने नहीं देंगे। यह सोचता हुआ वह थाने से बाहर आ गया था।

मैडम काफी देर कुछ सोचती रही थी। बाहर वही पुलिस वाला इस इंतजार में था कि मैडम कब आदेश दे कि इस बूट-गठिए को भीतर डाल दें। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।


भागी थाने से जब बाहर आया तो उसका मन बहुत हल्का था। जैसे कई दिन की परेशानियां और भागम-भाग की थकान मैडम थानेदार के सामने बैठे उन आंसूओं के साथ बाहर निकल गई हो या उस चाय में डिस्परिन की गोली मिली हो जिससे उसकी थकान दूर हो गई हो।

उसने आज पहली बार थाने को देखा था। सामने कैद खाना था जिसमें कई लोग थे जो उसे ही झांख रहे थे।

थाने के गेट से सब्जीमण्डी तक अनगिनत सीढि़यां थीं। वह एक-एक चढ़ता रहा। उसे सचमुच विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वह एक ऐसी बड़े दिल वाली मैडम थानेदार से मिल कर आ रहा है जिसने उसे कई बार ‘आप‘ कहा। अपने सामने कुर्सी पर बिठा दिया। फिर चाय पिलाई। प्यार से बात की। पुलसिया बर्ताव नहीं किया। पुलसिया रोब नहीं झाड़ा। मां बहन नहीं की। ...............उसे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था कि कोई थानेदार भी इतना अच्छा हो सकता है। पुलिस महकमे के खिलाफ जो उसके मन में बरसों से अनेकों भ्रम और उनके अत्याचारी चेहरे घुसे हुए थे, वे अचानक आज टूटते नजर आए थे कि हर जगह, हर आदमी या अफसर एक जैसे नहीं होते........। यह सोचते और सीढि़यां चढ़ते उसकी आंखों के सामने अब महात्मा गांधी की तस्वीर उमड़ आई थी, अब वह जैसे उस तस्वीर के सहारे-सहारे ऊपर चढ़ने लगा था।

उस दिन भागी देर रात तक किसी को नजर नहीं आया। पुलिस वाले गशत करते हुए उसको ढूंढते रहे  कि उसे परेशान करके बूटों में पालिश ही करवा दें लेकिन वह कहीं नहीं दिखा।

नगर निगम का बाबू आज दफतर में कुछ ज्यादा ही रोब में लग रहा था। भागीराम की थाने में शिकायत और उसका थानेदार द्वारा बुलाना उसके लिए जैसे कोई बड़ी जीत की बात थी। उसने आज कई बार साहब के दफतर के चक्कर लगाए और साहब को बताया था कि कैसे उसने उस बूट-गठिए की ऐसी-की-तैसी करवा दी है। साहब अपने बाबू की इस ‘महारथ‘ से जैसे फूला नहीं समा रहा था। उस दिन सब कुछ शांत रहा। जैसे भागीराम, नगर निगम और पुलिस वालों के जंग के बीच शहर पूरी तरह सो गया हो।


लेकिन दूसरे दिन चर्च के साथ लगी महात्मा गांधी की विशाल प्रतिमा के नीचे का मंजर देखने वाला था। वहां एक बड़ा सा बैनर टंगा था जिसमें लिखा था,

‘भागीराम की नगर निगम के अफसर और बाबूओं के अत्याचार के विरूद्ध अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल।‘

     ‘‘आज शहर के पैरों के बूट मुफ्त पालिश किए जाएंगे।‘‘

संपर्क 

एस आर हरनोट

ओम भवन, मोरले बैंक इस्टेट, 
निगम विहार, शिमला-171001 हिमाचल प्रदेश

फोनः 094180 00224;  098165 66611

ई-मेल : harnot1955@gmail.com


(इस कहानी में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कहानीकार विजेन्द्र जी की हैं।)

टिप्पणियाँ

  1. behreen kahaanee .azadi ke 70 saal baad bhi samajik paristhitiyo me koi badlav nahee yatharth ko puri tarah pe parda karatee kahanee.kahani padvane ke liye santosh jee kaa abhar.

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  2. वाह बेहतरीन कहानी पढ़ी .एक अरसे बाद .......मैं आपकी बुक्स पढ़ना चाहती हूँ सर .......कृपया बताये कहा से मिलेगी .

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