मोहन नागर के कविता संग्रह ‘छूटे गाँव की चिरैया‘ पर पद्मनाभ गौतम की समीक्षा -




युवा कवि मोहन नागर का पहला कविता संग्रह अभी-अभी प्रकाशित हुआ है। मोहन के इस संग्रह में एक नयी ताजगी और धार स्पष्ट ही देखी जा सकती है. इसकी एक समीक्षा हमारे कवि मित्र पद्मनाभ ने लिख भेजी है। पद्मनाभ की यह समीक्षा इस मायने में भी अहम् है कि यह इनके द्वारा लिखी गयी पहली समीक्षा है। तो आईये देखते-पढ़ते हैं पद्मनाभ की यह समीक्षा।     

  
लम्बी प्रतीक्षा के पश्चात् डा. मोहन नागर का कविता संग्रह ‘छूटे गांव की चिरैया‘ हस्तगत हुआ। वैसे तो संग्रह समय पर ही घर पहुंच गया था पर इसे अरुणाचल की राम भरोसे डाक सेवा के हवाले करने की हिम्मत नहीं थी, अतः सदैव की तरह गृह-नगर यात्रा पर ही यह हाथों में आ पाया। पाते ही पूरा पढ़ गया। वैसे तो डा. नागर की कविताएं मेरे लिए नयी नहीं है व संग्रह की अधिकांश कविताएं पूर्व में पढ़ी हुई हैं, किंतु एक संग्रह के रूप में इन्हें पढ़ने पर उनके अब तक के रचनाकर्म को समग्र रूप से पढ़ने-महसूसने का अवसर मिला। यह कविता संग्रह वस्तुतः डॉ. नागर की चार दशकों की जीवन यात्रा का दस्तावेज अधिक है। मां, बूढ़ी नानी, बहन-भाई के साथ बिताए कठिन समय की यादें, पिता के असमय अवसान व परिजनों के द्वारा परित्याग की पीड़ा, सूखी चमड़ियां, कुपोषण से फूले पेट, गोठान-गौसारे, चूल्हा-गांकड़े,चिड़िया-चुग्गा, भूख और जीवन संघर्ष, अकसर इन्हीं विषयों-बिंबों के इर्द-गिर्द का संसार बुनती हुई कविताओं का संग्रह है ”छूटे गांव की चिरैया”। पुस्तक को पढ़ने के पश्चात् इसके आमुख कथन में व्यक्त हरिशंकर अग्रवाल जी की इस बात से पूर्ण सहमति बनती है कि यहां कविताओं से क्रांति करने का बड़बोलापन नहीं हैं। किंतु मूलतः अपनी निजी अनुभूतियों को कविता का विषय बनाते हुए भी डॉ. नागर की कविताएं व्यवस्था के प्रति तीव्र असंतुष्टि का तीव्र सामूहिक स्वर बनती जाती हैं। इन्हें पढ़ते हुए इस असमानतापूर्ण सामाजिक व्यवस्था पर क्षोभ उत्पन्न होता है। यद्यपि डॉ नागर कहीं भी किसी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता का घोष नहीं करते परंतु संग्रह को पूरा पढ़ने के पश्चात् इन कविताओं का वर्गीकरण अपने आप ही हो जाता है। सीधी-सरल भाषा में लिखी इन जनपक्षधर कविताओं में इतनी प्रबल संप्रेषणीयता है कि वे सीधे पाठक के हृदय को छूती हैं तथा उसे ठहर कर सोचने को विवश करती हैं। महत्वपूर्ण यह है कि इन कविताओं को गूढ़ प्रतीकों-बिंबों से अटी-पटी कविताओं की तरह ”डी-कोड” कर समझने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह कविताएं डॉ. नागर के स्वभाव की तरह ही खुली व मुखर हैं।

इस संग्रह के पूर्वार्द्ध की कविताएं डा. मोहन के बचपन की स्मृतियों से जुड़ी हैं। जहां एक ओर वे अभावग्रस्त जीवन की तकलीफों का चित्र बनाती हैं, वहीं वे उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण विखंडित होते परिवारों व गांवों से रोजगार हेतु शहर पलायन करने की विवशता का भी बयान हैं। कविता 'मां-2' में कवि मां के उस अंतर्द्वंद का चित्रण करता है जो अपने बच्चे को निर्दय बन कर सांसारिक नियमों से परिचित कराती है, उसे अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाती है, परंतु कठोरता के कवच के भीतर चुपचाप संतान से विछोह की पीड़ा का दाह भी भोगती है

बच्चों का क्या है
लड़ भिड़ कर जीना सीख ही लेंगे
और फिर जीते रहे
तो, मेरी ही तरह समझेंगे जब
 कभी लौट कर आएंगे ही - (मां-2, पृष्ठ-14)


कविता चिड़िया में अपने बच्चों को उड़ना सिखाती चिड़िया के माध्यम से कवि की यही पीड़ा प्रकट होती है -

”चिड़िया अपने बच्चे को उड़ना सिखा रही है
ऐसा करते समय खुश है
कि उसका बेटा भी
एक दिन बहुत दूर उड़ पाएगा
और दुःखी यह सोच कर
कि पंख उग आने पर यही बेटा
एक दिन उसे छोड़ कर
दूर बहुत दूर उड़ जाएगा- (चिड़िया-1, पृ.-15)


रात-दिन दौड भाग करते कामकाजी पति-पत्नी और स्कूल के होमवर्क तले दबे बच्चों के साथ रह कर हाशिए पर जाते बुजुर्गों की जिंदगी को कवि की संवेदना बखूबी महसूसती है कविता ”मांई खुश है शायद” में। तब जब किसी के पास मांई के लिए वक्त नहीं हैं माई ने रेडियो को अपना साथी बनाया है। एकांत की इस पीड़ा को बखूबी महसूसती है यह कविता -

”इन दिनों न झाड़ू की खर्र-खर्र
ना मोंगरी की फच्च-फच्च
ना 6 की सुई पर
कामकाजी बहू-बेटे का इंतजार

रेडियों की आड़ में दिन भर झाड़ू फटका
रात जूठे बर्तनों पर
कहरवा के सम पर फिरता मांई का बूचड़ा
इन दिनों  मांई खुश है शायद
खुश ही होगी” (मांई खुश है शायद, पृष्ठ-27)


कविता ढम्मक ढम ढम में बुजर्ग बन्नो ताई की पीड़ा अपनो को खोते जाने की पीड़ा है। कवि की संवेदनशीलता है कि वह ढोलक की आवाज में भी रुदन सुनता है -

आज भी
जरा सा गमकते ही जगराते पर ढोलक
गों-गों करती घिसट पड़ती है अलंगे तक
चीमड़े हाथ से भी चढ़ा लेती है छल्ला..
कि आ बैठती हैं संगत को
यादों की चौपाल पर-लच्छो बुआ...बड्डी मामी....उमिया काकी
और रो पड़ती है बन्नो ताई की ढोलक
ढम्मक ढम ढम.....


आज के इस बेतहाशा भागम-भाग के युग में कवि नागर जैसे संवेदनशील लोग ही रुक कर ढोलक की आवाज का यह रुदन सुनते हैं। कविताएं ”खांसी अलार्म”, ”इन दिनों नानी अपच की शिकार है” , और ”छूटे कांधे” भी इसी भाव बोध के इर्द-गिर्द रची कविताएं हैं।

कविता ”पूस किस तारीख से बदला” में नितांत अभाव से उबर कर शहर में पहुंची नानी के साथ कवि स्वयं भी महसूसता है कि उनके लिए अभावों से भरा होकर भी गांव ही सच्चा जीवन था। आज जमीन से कट कर शहर को पलायन करते लोग कंक्रीट के सुसज्जित घरों में रह कर भी अपने गांव के छप्पर-छानी को नही भूल पाते हैं। उनके लिए अभाव में भी जिंदगी के जो अर्थ हुआ करते थे, वे आज की साधन्न-संपन्न दुनिया से खो चुके हैं।

”जब से गांव की छपरिया के सुराख छूटे हैं
नानी ही नहीं
हमको ही पता नहीं चलता कई-कई बार
पूस किस तारीख से बदला
अगहन किस तारीख से शुरू”- (”पूस किस तारीख से बदला”-पृष्ठ-29)


(चित्र : कवि मोहन नागर)

मोहन नागर की कविताओं में कल्पना का रूमानी संसार नहीं है । वे यथार्थ में जीने वाले कवि हैं । उनके नास्टेल्जिया में रूमानियत नहीं अपितु अभाव में जिए एक-एक पल का विषाद है। ठेठ भाषा में लिखी कविता ”महीने के आखिरी दिन” इस गरीबी से परिचित कराते हुए कहती है -

”तेरी काली जीभ में आग लगे
तीन दिन से कांक रओ है माटीमिलो
कोई और घर कांए नई मरे
एक तो ना जे चैत कटत है
ना जे आत हैं.....
अभी सच्ची में पहुना आ गओ
तो खिलाहें का वाहे
अपनो हड्डा - (महीने के आखिरी दिन, पृष्ठ-35)


इन कविताओं में अभाव के चरम से लेकर मध्यवर्गीय सम्पन्नता तक की यात्रा है। बहुत कुछ आत्मकथात्मक। उसके मन में अभाव के दिनों में नैराश्य के स्थान पर जीवट का बीज बाने के लिए शिव खेड़ा तथा राबिन शर्मा जैसे सफलता गुरु नहीं वरन् नानी से मिली सीखें तथा रोजमर्रा की ठोकरों से मिली सीखें व चुनौतियां हैं। कविता ”सेकेण्ड की साड़ी” में वह पुरानी साड़ी बेचते दुकानदार से जिंदगी की चतुराई सीखता है। कविता ”नानी की बानी” और ”नानी की गुल्लक” में यह बात उभर कर आती है -

”बेटा, अंधेरों से लड़ने के लिए
बस एक दिया काफी है” - ”नानी की बानी”, पृ.-40

”हम आज भी कुछ न कुछ
बचा लेते हैं
बुरे वक्त में लड़ने
ओखली में गड़ा देते हैं” -नानी की गुल्लक, पृ.-43


कविता श्रृंखला ”हम कतार में हैं” पांच कविताएं हैं जो कवि अपनी आत्मकथा बतौर प्रस्तुत करता है। गांव के जर्जर विद्यालय से निष्णात एम.बी.बी.एस. चिकित्सक बनने तक के अनुभवों को कवि ने एक माला में इस खूबी के साथ पिरोया है, कि वह कविता के साथ-साथ संस्मरण भी बन जाती है। यह संवेदनापूर्ण कविताएं एक मार्मिक दृश्य बनाती हैं जिसमें घर के लिए ज्यादा जवारी पाने के लिए भोर से पंक्तियों में डटे मासूम बच्चे हैं, स्कूल के दलिये से दिन गुजारते फूले पेटों वाले कुपोषित बच्चे हैं, पेट काट कर पढ़ाई करता नौजवान है, पढ़-लिख कर बेरोजगारी हुए नौजवान से लगी आशाएं है। डॉ  नागर का चार दशकों का जीवन संघर्ष इन पांच कविताओं में सिमट जाता है। ”हम कतार में हैं” की कुछ पंक्तियां हैं-

”यह दिसंबर का पूर्वार्द्ध है
हाड़ कंपाती ठण्ड है
हम ठण्ड से लड़ने
सलाखों के परे रखी जवारी तापते हैं” -(हम कतार में हैं-1” पृ-59)


”हमें कुछ महीनों तक
दिल्ली से चले दलिए का सहारा है
जो हमारे क्वाशिएर कोर से फूल चले पेट को
कुछ तो कम ही कर डालेगा
जहां इन दिनों लाल जवारी भी नहीं”-(हम कतार में हैं-2, पृ.-61)


इसी श्रृंखला की एक और कविता की पंक्तियां हैं -

”मैं भोपाल आगे पढ़ने के लिए
मां और भाई पर पूरे अढ़ाई सौ रूपए और
खुद से हटा ली गई जिम्मेदारियों का
कर्ज लिए जा रहा हूं
मेरे शहर से न लौट आने के
सबसे सुनहरे आसार हैं” -(हम कतार में हैं-3, पृ.-63)


जहां संग्रह के पूर्वार्द्ध की कविताओं में विपन्नता का विषाद तथा व्यवस्था के प्रति एक युवक का आक्रोश प्रतिबिंबित होता है वहीं इसके उत्तर्रार्द्ध में डा. नागर एक परिपक्व सोच वाले सुलझे हुए व्यक्त्तिव के रूप में उभरते हैं। साथ ही आरंभिक कविताओं में विषय की पुनरावृत्ति का आभास होता है, वहीं उत्तरार्द्ध में कवि की दृष्टि का फैलाव पहले से अधिक व्यापक महसूस होता है। यहां तक पहुंचते हुए कविताओं में आश्वस्ति व सुरक्षा बोध तो झलकता ही है, साथ ही वह रूमानियत भी दिखती है जो किशोरवय के दुर्दिनों में कहीं दब कर रह गई थी। यद्यपि डा. नागर ने प्रेम कविताएं अधिक नहीं लिखीं हैं, परंतु जितनी भी लिखीं हैं वे उनके प्रेम को भी एक अनूठे रंग में रंगा दिखाती हैं। संग्रह में शामिल कुछ प्रेम कविताओं में उनकी इन सुकोमल सम्वेदनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति है। वह अपने प्रेम के लिए आकाश को केनवास बना कर प्रेयसी की मुस्कान का चित्र बनाना चाहते हैं -

”एक दिन मैं समुद्र से सारा जल
और इंद्रधनुष से रंग लेकर
रच डालूंगा तुम्हारा चेहरा
तुम्हारी हंसी
आकाश के केनवास पर” (पेंटिंग, पृष्ठ 98)


अभावों की दुनियां में पला बढ़ा कवि अपने प्रियजनों को उस दुखद समय से हरगिज नहीं गुजरने देना चाहता। वहीं कविता ”जीवन संताप नहीं” में वह अपने प्रेम से आशा की जोत जलाता है-

तुम नहीं होतीं तो कब जान पाता
जीवन महज संताप नहीं
उसे बेहतर सृजित किया जा सकता है,
कहीं भी कभी भी किसी भी वक्त”- (जीवन संताप नहीं, पृष्ठ-100)


परंतु इस सुख-साधन संपन्नता के काल में भी कवि समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व से भटकता नहीं है। कविता ”शहर सो रहा है” में उनका यह दायित्व बोध प्रकट होता है। वह बेचैन है अखबार बेचने की जुगत में घूमते बच्चे को देखकर,वह बेचैन होता है बच्चे की नुमाइश कर पति के लिए कच्ची शराब जुगाड़ती स्त्री की पीड़ा से और वह बेचैनी व्यक्त होती है इन पंक्तियों से -

”इतने शोर में भी
कैसे सो लेते हैं लोग गहरी नींद
मैं भी बहरा क्यों नहीं औरों की तरह
कि छोड़ें पीछा ये आवाजें
या इम्यून ही हो जाऊँ
जैसे कि ये शहर”- (शहर सो रहा है, पृ-91)


लोकधर्मी कविताओं के इस महत्वपूर्ण संग्रह में ”राखड़िया”, ”अभी भोपाल नहीं आया” ”ये शहर छिंदवाड़ा है साहेब”, ”सूरज का कल्ला गर्म है” इत्यादि कई महत्वपूर्ण कविताएं हैं, जो न केवल शिल्प के दृष्टिकोण से ही प्रभावित करती हैं अपितु मन में कई प्रश्न छोड़ जाती हैं। कविता ”धरती का कल्ला गर्मा रहा है” व ”अभी भोपाल नहीं आया” में वे अनूठे अंदाज में पर्यावरण के प्रति  अपनी चिंता व्यक्त करते हैं, वहीं ”यह शहर छिंदवाड़ा है” कविता खान श्रमिकों के जीवन की व्यथा का वर्णन अद्भुत बिंब संयोजन के साथ करती है। संग्रह ”छूटे गांव की चिरैया” की अंतिम कविता की पंक्तियां हैं -

सिर्फ यादें बाकी होंगी बस उड़ती पंछियों सी
बेचैन, शांत, उद्वेलित
हहराती निस्सीम आकाश में मस्तूल तक
मुझे पता है,
मुझे जाना है-एक अंतहीन यात्रा पर -(मुझे जाना है एक दिन” पृ-128)


अपनों को खोने का गम और उस पर अभावों की असहनीय चुभन से गुजर चुके डा.नागर का इस सत्य से इतना गहरा सम्बध होना सहज है। परंतु यह उनकी भाव संपदा का एक हिस्सा मात्र है। उन्हें उबरने का और नवसृजन के आनंद का पूर्ण बोध है-

”छूटी पत्तियां ताक रही हैं अब छूटी टहनियां
और सृष्टि गा रही है बारिश के गीत
ये छूटी पत्तियों के खाद का मौसम है
ये नवांकुरों के आगाज का मौसम है”। (आगाज का मौसम” पृ.-116)


मेरे अपने मत में ”आगाज का मौसम” कविता को संग्रह की अंतिम कविता के रूप में होना चाहिये था। यह संग्रह इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि यह गांव-गोठान में विपन्नता में पैदा हुए एक बच्चे का अपने जीवट के दम पर मजबूती से पैरों पर खड़े होने के संघर्ष का कवितामय वृत्तांत है। यह कविता संग्रह एक प्रेरणास्रोत है उन थके-हारे लोगों के लिए जिन्होंने कठिन परिस्थितियों के सामने घुटने टेक दिए हैं। आज डा. नागर साधन संपन्न हैं, परंतु इससे उनका भूख पर कविता लिखने का अधिकार कम नहीं होता तथा उनका यह संग्रह रचनाकर्मियों के बीच सामाजिक स्तरों की निरंतर नई खाईयां खोदते आलोचकों के लिए एक उदाहरण है। हिंदी पट्टी में जन्मे होने के कारण कवि का व्याकरण पर अधिकार सहज है तथा आम बोल-चाल की भाषा में लिखते हुए वे रचनाओं में कहीं भी साग्रह भाषिक सौष्ठव दिखाने का प्रयत्न नहीं करते हैं। उर्दू व हिन्दी के शब्दों को एक समान प्रेम के साथ समेटती यह आम बोलचाल की भाषा कविताओं की संप्रेषणीयता बढ़ा देती है। संग्रह की समस्त कविताएं छंद मुक्त होकर भी लयबद्धता की कसौटी पर सामान्यतया निष्कलंक है।

अंत में बस इतना ही कि यह पठनीय कविता संग्रह वस्तुतः डां. नागर की संभावनाओं के विशाल कैनवस का एक टुकड़ा मात्र है। अभी उनके सामने लेखकीय जीवन की बहुत लम्बी यात्रा बाकी है, जिसके लिए कवि के ही इन शब्दों के साथ शुभकामनाएं सदैव साथ हैं -

”जीवन महज संताप नहीं, उसे बेहतर सृजित किया जा सकता है, कहीं भी, कभी भी, किसी भी वक्त”

समीक्षित पुस्तक - छूटे गांव की चिरैया
कवि - डा. मोहन कुमार नागर
प्रकाशक - मेधा बुक्स, एक्स-11, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
 फो.- 22323672
मूल्य - 200 रु.




संपर्क-
समीक्षक  - पद्मनाभ गौतम
 रिलायंस काम्प्लेक्स
ग्राम-  कम्बा, जिला-पश्चिमी-सियांग
        अरुणाचल प्रदेश, पिन-791001

मोबाईल- 9436200201

टिप्पणियाँ

  1. kavitao ke sath sath sameeksha bhe bhtreen he. badhi. naye pratibhao ko prakash me lane ke liye santosh ji ka dhanyvad. Manisha jain

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  2. जितनी सार्थक रचना नागर की...उतनी ही सुंदर समीक्षा आपकी...

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  3. जितनी सार्थक रचना नागर की...उतनी ही सुंदर समीक्षा आपकी...

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  4. बहुत सधी हुयी समीक्षा . कहीं से भी नहीं लगता है कि यह उनके द्वारा लिखी पहली समीक्षा है . डूबकर लिखी गयी है . बहुत -बहुत बधाई .

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  5. नागर जो को पढ़ना एक ऐसी दुनियां में ला खड़ा कर देता है...जहाँ रास्ते होने के बाद भी अपना रास्ता खुद बनाना होता है....

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