मनीषा जैन के कविता संग्रह 'रोज गूंथती हूं पहाड़' पर बली सिंह की समीक्षा





कवियित्री मनीषा जैन का बोधि प्रकाशन से हाल ही में एक संग्रह आया है 'रोज गूंथती हूं पहाड़.' अपने इस संग्रह में मनीषा जैन ने बिना किसी शोरोगुल के स्त्री जीवन के यथार्थ को सामने रखने का सफल प्रयत्न किया है. इसीलिए यह संग्रह और संग्रहों से कुछ अलग बन पड़ा है. इस संग्रह की एक समीक्षा लिखी है बली सिंह ने. तो आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा.
    
स्त्री केंद्रित सौंदर्य बोध

बली सिंह

आज हम जिस दौर में जी रहें हैं, वह वास्तव में संक्रमण का दौर है। ऐसे समय में बहुत सारी चीजें एक साथ घटित होती हैं। अनेक अस्मिताएं उभरती हैं तो कई ख़त्म भी होती हैं। यह लोकरूपों के ख़त्म होते जाने का दौर है। एक तरफ़ विकास है जो कि हमारे समय का एक नया आख्यान है, तो दूसरी ओर बड़े पैमाने पर विस्थापन घटित हो रहा है। मनुष्य ही नहीं वरन् प्रकृति के अनेक रूप यानी पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, नदी-नाले और पहाड़ भी विस्थापन की प्रक्रिया से गुज़र रहे हैं। यही नहीं, इस दौर में तमाम चीज़ों पर, चाहे पहले की हों या अब की, पुनरावलोकन किया जा रहा है, संबधों पर नये सिरे से सोचा जा रहा है। निजी इच्छाओं-आकांक्षाओं यानी व्यक्ति अस्मिता की अन्य अस्मिताओं के साथ संबंध की एक विशिष्ट समस्या हमारे समाज में पैदा हो रही है निजता और सार्वभौमिकता के संबंध-संतुलन की समस्या। यह स्थिति ऐसी है कि हमें कहीं-न-कहीं भटकाव की ओर भी ले जा रही है। हमें किसी भी एक सुनिश्चित निर्णय पर पंहुचने ही नहीं दे रही है। किसे सही मानें और किसे ग़लत? ऐसे माहौल में जिस तरह का मनोलोक निर्मित हो रहा है, मनीषा जैन की कविताएं उसको अभिव्यक्त करती हैं। अभी तक उनका एक ही काव्य-संग्रह प्रकाश में आया है, रोज़ गूंथती हूं पहाड़।
मनीषा जैन के सौंदर्यबोध में स्त्री केंद्र में है। वे अपने ही ढ़ग से स्त्री-जीवन को समझने और उसे व्यक्त करने की कोशिश करती हैं। उनकी काव्य-स्त्री पूरी सृष्टि में घुली-मिली है, एक तरह से वह उसका पर्याय  है। वे जब नदी को देखती हैं तो नदी उनमें समा जाती हैः
‘‘धीरे-धीरे
नदी की अंतर्गुफाएं
खुलने लगीं मुझमें
और नदी की
सहनशीलता
भरने लगी मुझमें
और फिर
एक नदी सी
बहने लगी मुझमें’’
 
मनीषा एक ऐसी कवयित्री हैं जो कला के तामझाम में नहीं पड़तीं। वे कोई दूर की कौड़ी नहीं लातीं बल्कि अपने आसपास के रूपों को ही कला बना लेती हैं और सीधे बातचीत के ढ़ग में अपनी बात रखती हैं। यहां नदी का अंतर्गुफाएं उसका अल्हड़पन है जो उसके अंदर अधिक रहता है, बाहर से वह समगति से चलती-फिरती या गतिशील नज़र आती है, इसलिए सहनशीलता उसका गुण है, वह कभी-कभार ही प्रकटतः उद्वेलित-आंदोलित दिखती है, कभी-कभार ही कंगूरे (किनारे) काटती है वरना तो एक लय में जीवन जीती रहती है भीतर ही भीतर आंदोलित-उद्वेलित होती हुई। यहां नदी स्त्री में समा जाती है और वह नदी का रूप ले लेती है। एक अन्य कविता में लोक के तमाम रूपों में समायी हुई है। यहां वह एक मां है। उसकी याद ग्रामीण रूपों की लोक के छूटे हुए रूपों की याद ताज़ा करती है जो कि इन दिनों बहुत तेज़ी से ख़त्म भी हो रहे हैं। अब गांव में भी बच्चों के खेल बदल गये हैं। वे अब पेड़ों पर चढ़ पकड़म-पकड़ायी नहीं खेलते, वीडियो गेम में अब उनकी रूचि अधिक है, पेड़ों पर झूलने का भी अब यही हाल है। ये लोक रूप अब सिर्फ यादें बनकर रह गये हैं जो कि मां की याद में घुले-मिले हैं। एक मां के रूप में स्त्री का लोक के रूपों से, लोक के तमाम प्राणियों यानी पशु पक्षी इत्यादि, और लोक के रीति रिवाजों से बहुत गहरा संबंध रहा है और गांवों में आज भी है, इसलिए जब मां की याद आती है तो लोक के कई रूप याद आते हैं, उल्टे उन्हीं से मां की याद आती है। मां ने जैसे अपने आप को इनमें विसर्जित कर दिया हैः

‘‘लेटा रहूंगा मैं
खेत की माटी में
बान की खाट पर
और तालाब नदी के
मुहानों पर
और झूलता रहूंगा
गांव के झूलों पर
जैसे मां की गोद में
झूल रहा हूं
ये सब चीजें
मुझे मां की याद
दिलाती रहेंगी’’

खेत से, उसके कार्यो से मां का गहरा संबंध है, स्त्री-मात्र का गहरा ताल्लुक़ है। आज भी खेतिहर मज़दूरों में स्त्री की संख्या अधिक है। खेत उन्हीं के श्रम से अधिक सींचे जाते हैं। यह कविता नागार्जुन की सिंदूर तिलकित भालकी याद दिलाती है। कवयित्री के यहां स्त्री श्रम बहुत महत्व रखता है। उन्होंनें कवि निराला की तरह एक श्रमिक स्त्री पर अलग से कविता लिखी है जिसकी हंसी जीवन को बचाने का काम कर रही हैः

‘‘पत्थर ढोती स्त्री के
हाथ कितने कठोर हो गये हैं
पांव पर भी मेहनत की
गर्द जम गयी है
परंतु चेहरे पर
मुलायम हंसी
जीवन को बचाये हुए है’’

यही नहीं, उसका श्रम पूरी सृष्टि को अपनी सृष्टि बना सकता है। रोज गूंथती हूं पहाड़में स्त्री पहाड़ों को आटे की तरह गूंथती है और आसमान जैसी रोटी तैयार कर देती है। वह समूची सृष्टि पर आच्छादित होने की शक्ति रखती हैः

‘‘रोज़ गूंथती हूं पहाड़
आटे की तरह
बेल देती हूं रोज़ ही
आकाश-सी गोल रोटी’’

लेकिन यह सब काम वह प्यारके लिए करती है, संबंधों के लिए करती है। इन दिनों संबंधों की भी समस्या उत्पन्न हो गयी है हमारे समाज में। वरना स्त्री सृष्टि पर छा जाना चाहती हैः

‘‘वह स्त्री
बादलों की पीठ पर
हो चुकी है सवार
घूमना चाहती है
सूर्य का आंगन
उसे उम्मीद है
वह छू लेगी
सूरज की छत’’

यह स्त्री व्यक्ति-अस्मिता को महत्व देने वाली है।

वह पहले की उस स्त्री से भिन्न है जो अपने-आप को अन्य अस्मिताओं में विसर्जित कर देती है और उसकी खुशी में ही अपनी खुशी देखती है। मनीषा की एक कविता है, ‘अपनी खुशी। यहां स्त्री सुबह से शाम तक और शाम से सुबह तक सिर्फ घर, परिवार, बच्चेसंवारती है और

इस चक्रव्यूह में
हो जाती है उम्र तमाम

ऐसी स्त्री

नहीं देखती खुद को
सिर्फ़ देखती है दूसरों की खुशी
बस

इसी में वह अपनी खुशी ढूँढती है। स्त्री का यह एक सार्वभौमिक रूप है, अन्य अस्मिताओं में विसर्जन का रूप है। उसकी परंपरागत या परंपरा के समक्ष समस्या निजता की खोज या व्यक्ति अस्मिता की है। अपनी पहचान की। स्त्री-विमर्श और दलित विमर्श में यही अंतर है कि स्त्री की समस्या अन्य अस्मिताओं की चिंता से जुड़ने की समस्या नहीं है, उसकी समस्या निज की पहचान की समस्या है, पर दलित अस्मिता की समस्या अन्य अस्मिताओं से जुड़ने की समस्या है, व्यक्ति-अस्मिता उनमें बहुत ज़ोरों पर है। वे बाध्य थे दूसरों का आदेश मानने के लिए, पर स्त्री की जे़हनियत ही ऐसी थी कि वह दूसरों में घुलने-मिलने में, उसकी खुशी को अपनी ही खुशी समझने में सुख महसूस करती थी। उसकी मूल समस्या निजता की पहचान की है। वह तो जैसे

‘‘खौलती जाती है
उम्र भर
मिक्स चाय बनकर
निकलती है केतली के मुंह से
ताउम्र धार की तरह

स्त्री के दैनंदिन कार्य-व्यापार से ही कलात्मक उपकरण लेती है मनीषा जैन। रोज़ गूंथती हूं पहाड़कविता में भी ऐसा ही है। आटा गूंथना और रोटी बनाना ऐसा ही कार्य व्यापार है जिससे कलात्मक अभिव्यक्ति की पद्वतियां रूपक, बिंब, प्रतीक आदि निर्मित होती हैं। यह हमें कबीर की कविता की याद दिलाती हैं जिन्होंनें अपने कार्य-क्षेत्र से कलात्मक उपकरणों की रचना की है, जैसे झीनी-झीनी बीनी चदरियाइत्यादि। जूलिया क्रिस्तोवा ने बताया है कि हमारे भीतर पूरी परंपरा गूंजती रहती है जो रचना में प्रकट भी होती है। मनीषा जैन की कविताएं ऐसी ही हैं। उनकी मज़दूरनी पर लिखी कविता हमें निराला की याद दिलाती है। कबीर से लेकर निराला और नागार्जुन तक की परंपरा कवयित्री के भीतर गूंजती रहती है और उनकी कविताओं में कलात्मक रूपाकार ग्रहण करती रहती है। लेकिन इसमें यह भी देखने की बात है कि कवयित्री का कौन-सा मनोलोक है जो एक ख़ास परंपरा को महत्व देता है। यहां कबीर, निराला और नागार्जुन की परंपरा को कवयित्री तरजीह देती है। यह मोटे रूप में एक जनवादी परंपरा है। कवयित्री मनीषा जैन का मनोलोक इसी को महत्व देता है इसमें निजता के साथ संबंधों का स्वीकार है। अपने निज जीवन में वे जीती हैं कितनी जिंदगी’, वे हरसिंगार के फूल के पेड़ की तरह सिर्फ़ फूल झरती हैं और मुस्कुराती हैं चुपचाप। उनका संबंध रोटी की महक  से गहरा जुड़ा हुआ है। उनका होना जैसे घर भर के लिए रोटी का होना है। वे नदी की तरह अपने को समुद्र रूपी संबंधों में विसर्जित कर देती हैं। 

 (कवियित्री मनीषा जैन)

‘‘समुद्र में मिल जाना है उसे
मैनें पहली बार जाना
लड़की सी नदी
का स्वरूप।’’

इसलिए कवयित्री स्त्री को समाज में, पुरूषों द्वारा सहेज कर रखने की अपील करती हैः

‘‘ऐसे सहेज कर रखो हमें
जैसे रखते हैं
फूल किताबों में’’

क्योंकि सर्वशक्तिमान होते हुए भी बहुत नाजुक हैं हम। इस सब के बावजूद वह अपने आकाश की तलाश में है, व्यक्ति-अस्मिता की तलाश में है, क्योंकि उसकी अस्मिता को हमारे समाज ने आज तक महत्व ही नहीं दिया है

बादल भरे आकाश में
बस मुझे इंतजार है
बादलों के छंटने का
फिर नीला-नीला आकाश
मेरी मुट्ठी में होगा
मेरा सारा आकाश

लेकिन विचित्र विडंबना है कि स्त्री-अस्मिता और उसका विकास कहीं न कहीं अकेलेपन की ओर ले जाता है। इस अकेलेपन को कवयित्री मनीषा जैन प्रगतिशील कवियों की तरह महसूस करती है और उस अस्वीकार भी करती हैं, ठीक त्रिलोचन शास्त्री की तरहः

आज मै अकेला हूं
अकेले रहा नहीं जाता

मनीषा महसूस करती हैं कि स्त्री व्यक्ति-अस्मिता कहीं न कहीं उसे अकेल बनाती हैः

‘‘आंखों में रहते हैं
समंदर उसके
बाहों में भरती है
कायनात सारी
फिर भी होती है
स्त्री अकेली’’

वह पहाड़ पर, शिखर पर पहुंचने के बावजूद अकेली ही रहती है। चिड़िया को भी वापस बुलाने की चिंता कवयित्री को हैः

कब आयेगी वह
नींद सी वापस

कवयित्री के यहां घरएक मूल्य-व्यवस्था के रूप में आता है। घर एक सुकून की व्यवस्था है, संबंधों की व्यवस्था है। वे प्राकृतिक रूपों में भी घर वापसीकी प्रक्रिया देखती हैं। जैसे ‘‘शाम की धूप/जा रही थी घरया

परिदें इंसान से कहीं बेहतर है
जो ढूँढ ही लेते हैं
घर और सुकून के
दर-ओ-दीवार

अथवा

ओस अपना
घर ढूंढती है
विस्मृत होने से पहले

घर को बनाने में स्त्री का बहुत बड़ा योगदान है जो वह अपने प्रेम के ज़रिये करती है।

वह स्त्री
प्रेम के मसाले छौंक रही है
जीवन में गरमाई
ऐसे ही मिश्रण से
बनायेगी गर्म घर
प्रेम की सौंधी खुशबू
वाले घर

यानी ऐसा घर जिसमें प्रेम की महक है।
                मनीषा जैन के यहां प्रेम और कविता, दोनों ऐसी अवधारणाएं हैं जो सकारात्मक रूप में आती हैं। इन्हें उनका आदर्श भी कहा जा सकता है जिससे जीवन की रक्षा होती है। वे प्रकृति में प्रेम घटित होता हुआ देखती हैः

आसमान उतर आता है
धरा का चुंबन लेने चुपके से

प्रेम इसलिए महत्वपूर्ण है कि इससे संबंध बनते हैं, संबंधों का निर्वाह होता है और सबसे बड़ी बात है कि 

प्रेम की स्मृतियां ही कभी-कभी
बचा लेती हैं जीवन। 

जिस तरह प्रेम जीवन को बचा लेता है, उसी तरह का कार्य कविता भी करती है।

जब भी बैचेन बेहाल
उड़ता है मन
गाते हैं शब्द
एक कविता लेती है जन्म
बच जाता है जीवन

कविता चूंकि मानवीय संवेदना को जीवित रखने का काम करती है, इसलिए वह जीवन को भी बचाये रखने की सामर्थ्य रखती है। वह उम्मीद जगाती है।

अंधेरे में
चिंगारी की तरह
आना कविता
जीवन में
जीवन बनकर
आना कविता

कविता वास्तव में अवसाद से बचाने का काम करती है। अवसाद की शिकार समाज में स्त्रियां अधिक हैं। एक तो पहले का प्रचलित समाज है जो उनके अनुकूल था ही नहीं, ऊपर से जो नया बाज़ारवादी समाज आया जो उसने उसे विरूपित ही कर दियाः 

‘‘चेचक के दानों सा
फेल रहा है
स्त्री के सारे शरीर पर
बाज़ार’’। 

अपने कलेवर में यह छोटी सी कविता न जाने कितने अर्थो को हमारे सामने रखती है यही कवयित्री का कौशल है कि वह संक्षेप में बहुत कुछ को प्रकट करने में सक्षम है। मनीषा जैन का यह पहला ही काव्य-संग्रह न सिर्फ स्त्री जीवन में, समाज में वरन् साहित्य क्षेत्र में भी बहुत-सी उम्मीदें जगाने का काम करता है। एक बात और कि कवयित्री मैंकर प्रयोग बहुत करती है, पर यह मैंपुरूषवादी अहं या विशिष्ट जनों का मैंन होकर हम सब लोगों का मैंहै जो सामान्य जगत् को पहचान दिलाने का कार्य करता है।

समीक्ष्य कृतिः रोज गूंथती हूं पहाड़
कविः मनीषा जैन
प्रकाशकः बोधि प्रकाशन, जयपुर
पृ.सं. 96 /प्रथम संस्करण (पेपरबैक) 2013
मूल्यः 70रूपए।

समीक्षक-
बली सिंह
मो. 09818877429
ई-मेल- balisingh02@gmail.com




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