विवेक निराला का आलेख "हैराँ हूँ मैं कि ऐसी ये मश्हद है कौन-सी"

विवेक निराला का यह महत्वपूर्ण आलेख पहल अंक-94 में कुछ सम्पादित करके प्रकाशित किया गया है। ब्लॉग पर इस आलेख की अविकल प्रस्तुति की जा रही है। आइये पढ़ते हैं यह आलेख। 

(90’ के दशक की परिस्थितियों, हिन्दी कविताओं और कवियों के रचनात्मक मानस पर पुनर्विचार)

हैराँ हूँ मैं कि ऐसी ये मश्हद है कौन-सी

विवेक निराला

        पहल के 92 वें अंक में 90’ के दशक की हिन्दी कविता पर युवा कवि एवं आलोचक मृत्युंजय का एक विचारोत्तेजक आलेख प्रकाशित हुआ था। उस आलेख के तमाम विचारों से सहमत होते हुए भी आलेख पर मुझे पुनर्विचार की आवश्यकता महसूस हुई। इस समय जबकि कविता के अंत की घोषणाएं हो रही हैं, कविता ही बार-बार कटघरे में खड़ी की जा रही है। 90’ के दशक को हम हादसों का दशक भी कह सकते हैं। इन हादसों के दरम्यान जब समूचा महादेश असमंजस के दौर से ग़ुज़र रहा था तब ये कवि धुंधलके में शत्रु से मुठभेड़ भी कर रहे थे और अपनी राह तलाश रहे थे क्योंकि इन्हें विरसे में मिला विश्वास अब तक डिग चुका था, समाजवाद का एक घना तरुवर ढह चुका था। इसी दौर में साम्प्रदायिकता ने साझी विरासत को गहरा आघात पहुंचाया था। नव-साम्राज्यवाद अपने तीन अश्वों- उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्डलीकरण पर सवार होकर प्रचण्ड वेग से आ रहा था। मेरा प्रस्ताव है कि इन सब को मद्देनज़र रखते हुए ही इस दौर की कविता का सही मूल्यांकन हो सकता है।--लेखक

‘‘मैं यों प्रयोजनमुखी काव्य का कदापि विरोधी नहीं हूं।..... परन्तु मैं सोचता हूं कि प्रयोजन को स्वयं परिस्थिति तथा कार्यकलाप में अपने को व्यक्त करना चाहिए, विशेष रूप से लक्षित किये बिना और लेखक अपने द्वारा वर्णित सामाजिक टकरावों का भावी ऐतिहासिक समाधान पाठक के सामने तैयारशुदा रूप में प्रस्तुत करने के लिए कर्तव्यबद्ध नहीं है। साथ ही इतना और कहना भी ज़रूरी है कि हमारे यहां विद्यमान अवस्थाओं के अन्तर्गत  उपन्यास अधिकतर बुर्जुआ मंडलियों के पाठकों को सम्बोधित किये जाते हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से हमारी नहीं हैं। इसलिए समाजवादी प्रयोजनमूलक उपन्यास मेरी दृष्टि में उस समय अपने ध्येय की पूर्णतया पूर्ति करता है, जब वह वास्तविक संबंधों का सच्चा चित्रण कर इन संबंधों के स्वरूप के बारे में हावी रहने वाले प्रचलित भ्रमों को मिटा देता है, बुर्जुआ दुनिया के आशावाद को झकझोर देता है तथा अस्तित्वमान के आधार की शाश्वतता के बारे में शंका का समावेश करता है-भले ही लेखक ने इसके बारे में कोई निश्चित समाधान प्रस्तुत न किया हो, भले ही उसने कभी-कभी कोई पक्ष तक न लिया हो।’’   -मिन्ना काउत्स्की को एंगेल्स की दिनांक 26 नवंबर 1885 को लंदन से लिखी चिठ्ठी से

पूरी दुनिया के लिए पिछले दो दशक बड़ी दुर्घटनाओं के दशक कहे जा सकते हैं। इसीलिए समकालीन कविता में ‘कठिन समय’ की बार-बार अनुगूँजें सुनाई देती हैं। यह समय सिर्फ़ कठिन ही नहीं,  कुमार अम्बुज के कविता संग्रहों के नामों के सहारे कहें तो ‘अनन्तिम क्रूरता’ का समय भी है। इस समय का यथार्थ अधिक मारक और अविश्वसनीय है। हमारे देश ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व को विचलित कर देने वाली स्तब्धकारी दुर्घटनाओं के घटित होते जाने का भयावह समय है यह। परिवर्तन इतनी तेजी से हो रहे हैं कि अरुण कमल के शब्दों में ‘एक ही दिन में पुरानी पड़ जाती है दुनिया।’ सोवियत संघ का विघटन और बाबरी मस्जिद का ध्वंस 90’ के दशक के अधिकांश कवियों के महास्वप्न का ध्वंस था। कवियों की पृथ्वी उनकी पूर्ववर्ती पीढ़ी की पृथ्वी नहीं रह गयी थी वह बाज़ार की सारी चमक-दमक के बावज़ूद ‘उदास पृथ्वी’ बन चुकी थी। साम्राज्यवादी ताकतों में इजाफा हुआ, इसने भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के दैत्यों की रचना की। एक ध्रुवीय हो चुके विश्व में अमरीका ने नंगा नाच किया और नारंगी-सी गोल हमारी प्रिय पृथ्वी को चिपटी बना देने की गम्भीर साजिशें कीं। बढ़ता आतंकवाद, मानव-बम और क्लोनिंग ने जहां मनुष्यता के समक्ष संकट उत्पन्न किये, वहीं सभ्यताओं के संघर्ष की मनुष्य-विरोधी अवधारणाएं बलात् आरोपित की गयीं। सभ्यता के विकास के नाम पर बर्बरता का विकास हुआ। उपभोक्तावाद की नयी संस्कृति ने कला और साहित्य को बाज़ार की वस्तु बना दिया। ठीक इसी समय विचार के अन्त, आख्यान के अन्त, इतिहास के अन्त और कविता के अन्त तक की घोषणाएं की गयीं। साहित्य से विचारधारा को खत्म करने का षड्यंत्र कई पद्धतियों से चलाया जाता रहा। बाज़ार की वस्तु बन जाने से साहित्य के क्रय-विक्रय पर भी बातें शुरु हुयीं, इधर ‘बेस्ट सेलर’ को लेकर चलायी जा रही बहसें शायद इसी का परिणाम है।

 सन् 1980 के बाद से लेकर आज तक का यह भयानक दौर जीवन-मूल्यों और सामाजिक मूल्यों के उलटफेर का दौर है। हिन्दी कविता में 1980 का दशक ऐसा नहीं था। समाजवाद का एक माडल तब तक मौजूद था। नागार्जुन और त्रिलोचन से लेकर नयी पीढ़ी के कवि एक साथ कविता की दुनिया में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रहे थे। हिन्दी कविता में कई पीढि़यों की इसी सामूहिकता के चलते कवि अशोक वाजपेयी ‘भारत भवन’ से ‘कविता की वापसी’ का उद्घोष कर रहे थे। इसीलिए इस दौर की कविता किसी आन्दोलन पर निर्भर न होकर स्वतः एक आन्दोलन में परिणत हो चुकी थी, हालांकि उस समय के आन्दोलन भी आज की तुलना में ज़्यादा मज़बूत और प्रभावशाली थे। इस दौर में मां, बच्चे, फूल, पत्ती, चिडि़या आदि पर कविताएं लिखी गयीं और ये कविताएं भी अपने समय के यथार्थ को पकड़ पाने में समर्थ थीं किन्तु,, 90’ के दशक की स्थितियां भिन्न थीं। समाजवाद का वह विशाल वट-वृक्ष जिसके होने से फूल, पत्ती, चिडि़या और मनुष्य आश्वस्त थे, अब ढह चुका था। माक्र्सवाद की भौतिकता के अखण्ड विश्वासी संवेदनशील मन भी बाबरी मस्जिद के ध्वंस से भीतर तक टूट चुके थे। डंकल प्रस्ताव लाये जा रहे थे और हमारा कृषि प्रधान देश कृषि-क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को खुली छूट देने के समझौते कर रहा था। ये गुलामी के नए मसौदों पर नए राष्ट्राध्यक्ष के हस्ताक्षर थे। इन दस्तख़तों के परिणामों का आना भी शुरु हो चुका था और इसी के साथ आई कवि एकान्त श्रीवास्तव की वह कविता जिसमें वे कहते हैं-


(एकान्त श्रीवास्तव)

‘‘सिर्फ़ एक हस्ताक्षर किया जाता है
और नीली पड़ जाती है धरती की देह
बुझ जाता है चांद
सूख जाती हैं नदियां
अदृश्य हो जाते हैं हरे-भरे खेत
सिर्फ़ एक हस्ताक्षर किया जाता है
और एक बाघ की दहाड़ सुनाई देती है
उड़ जाते हैं सारे सगुन पंछी
सिर्फ़ एक हस्ताक्षर किया जाता है
और छिन जाती हैं हमारी आंखें
कट जाते हैं हमारे हाथ
सिर्फ़ एक हस्ताक्षर किया जाता है
और खो देते हैं हम
अपना देश।’’ 

इस दौर में लगातार आन्दोलन भी कम हुए हैं। आन्दोलन हुए भी तो स्थानिक होकर रह गए, उनका अखिल भारतीय स्वरूप नहीं बन सका।
       
90’ के दशक के अन्त तक कृषि-क्षेत्र में टर्मिनेटर बीजों ने अपना कमाल दिखाना शुरु कर दिया था, बीज अब अपने नहीं रह गये थे, विदर्भ से लेकर बुन्देलखण्ड तक किसानों की आत्महत्याओं का एक सिलसिला चल पड़ा था। इसी समय हरीश चन्द्र पाण्डे कहते हैं-

‘‘उन्हें धर्मगुरुओं ने बताया था प्रवचनों में
आत्महत्या करने वाला सीधे नर्क जाता है
तब भी उन्होंने आत्महत्या की
क्या नर्क से भी बदतर हो गयी थी उनकी खेती.....
जो आरुणि की तरह शरीर को ही मेड़ बना लेते थे
मिट्टी में जीवन-द्रव्य बचाने
स्वयं खेत हो गये
कितना आसान है हत्या को आत्महत्या कहना
और दुर्नीति को नीति!’’ 

 (हरीश चन्द्र पाण्डे)

श्रम और ऋण किसानों के हिस्से में आया और लाभ पूंजीपति और महाजन के हिस्से में। यह नयी महाजनी सभ्यता थी और इस सभ्यता की समीक्षा करते हुए प्रेम रंजन अनिमेष लिख रहे थे-

‘‘सभी के लिए थालियां
भरी हैं पृथ्वी की सेज पर
और सबके नाम के हैं दाने
भूख से नहीं मरता आदमी
कौर उठाने वाले हाथों से मारा जाता है।’’
                    
इस दौर के कवि हमारे देश में तेजी से हो रहे इन परिवर्तनों को देख भी रहे थे और अपने समय के यथार्थ की ठीक-ठीक शिनाख़्त करते हुए कविता में सक्रिय थे। एक ओर सोवियत माडल टूट जाने से प्रतिपक्ष समूचे माक्र्सवाद को फ्लाप बता रहा था और तमाम वामपंथी अपना आत्मविश्वास खो रहे थे वहीं दूसरी ओर फासिस्ट शक्तियां धर्मध्वजाधारियों के साथ कारसेवा और कीर्तन कर रहे थे और राम के नाम पर खून खौलाने के उत्तेजक नारे लगा रहे थे ठीक इसी समय प्रकाशित अपने पहले ही संग्रह में बोधिसत्व की कविता थी-

‘‘मुंह तोप कर
रोने का समय नहीं है यह
भजन गाने या भांट
बन जाने का समय नहीं है यह
लातर होकर पूंछ हिलाने का
हथियार रखकर चुपचाप
बादामी मुसकान मारने का समय
कत्तई नहीं है यह।’’

महास्वप्नों के भ्रंश के इसी दौर में बोधिसत्व की ‘बाकी है’ शीर्षक कविता बचे हुए बहुत कुछ को सहेजने, बचाने और पाने को तैयार रहने को कहती है। इसी के साथ इस दौर की हिन्दी कविता में थोड़ी उम्मीद बची रही गोया सब कुछ होना बचा रहेगा। केशव तिवारी लिखते हैं-

‘‘आप व्यर्थ परेशान हैं श्रीमन्
दो-चार हिचकोले खाकर धरती सम्हल ही जायेगी.’

इसे पढ़ कर इकबाल की वह पंक्ति ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’ की याद आती है। जनता पर भरोसा करने वाले, मनुष्य की जययात्रा के विश्वासी कवि ही यह उम्मीद कर सकते हैं क्योंकि वे लोकोन्मुखी हैं।                         

ऐसे दौर में किसी कवि का लोक की ओर जाना भला नकारात्मक कैसे हो सकता है? जब महानगरों से चली भूमण्डलीकरण की आंधी में गांवों तक के चराग़ बुझते जा रहे हों तो या इनकी बेनूरी का मर्सिया पढ़ा जाय या लोक में मौजूद तमाम वैकल्पिक दीप जलाकर अन्धेरे के खिलाफ एक लड़ाई छोटी ही सही छेड़ने की कोशिश की जाय। हर दौर का योद्धा अपने कवच का इस्तेमाल करता ही है और हर छापामार लड़ाई में एक सुरक्षित स्थल ढूँढ कर रखा ही जाता है जिससे उचित अवसर पर पूरी ताक़त से हमला किया जा सके। कवि शमशेर की एक कविता के हवाले से कहें तो ये कवि लोक से प्रेम करते हैं जैसे मछलियां लहरों से करती हैं, वे उनमें फंसने के लिए नहीं जातीं वैसे ही ये कवि लोक में फंसते नहीं, यह कहीं से उनकी सीमा नहीं बनता। अशोक वाजपेयी के ‘शहर अब भी संभावना है’ की तर्ज़ पर कहा जा सकता है कि बोधिसत्व, बद्रीनारायण, अष्टभुजा शुक्ल, दिनेश कुमार शुक्ल, निर्मला पुतुल, एकान्त श्रीवास्तव, केशव तिवारी, अनुज लगुन तथा राकेश रंजन जैसे ग्रामीण परिवेश के कवियों के लिए लोक में सदैव अपार संभावनाएं हैं। बहुत पहले के आचार्य भरत मुनि ने एलीट क्लास यानी भद्रलोक से अलग लोक में तीन तरह के लोग बताये हैं-‘दुःखार्तानां’, ‘श्रमार्तानां’ और ‘शोकार्तानां’। बाद में अभिनव गुप्त ने लोक को और स्पष्ट करते हुए कहा-‘लोकानां जनपद वासी जनाः।’ इस सन्दर्भ में  संजय चतुर्वेदी की लम्बी कविता ‘कविता के बदलते स्रोत’ को याद किया जा सकता है-

‘‘कविता के घोषित जनपद पर
जनहित व्यभिचारी लोगों ने
कोई राह नहीं जब छोड़ी
जनता ने ही जनपद छोड़ा
और आज वह नए विकल्पों की तलाश में घूम रही है।’’

कविता के इस नए विकल्प की तलाश में ही कविता की भी आश्वस्ति है और उस ‘जन’ की भी जिसे भरमाया जा रहा है।

भूमण्डलीकरण की एक विडम्बना यह भी है कि वह पूरी दुनिया को ‘ग्लोबल विलेज़’ में तब्दील करते हुए गांवों को इससे बाहर कर देना चाहती है। इसी विडम्बना के बीच बोधिसत्व कहते हैं-

‘‘मैं बात कहीं से भी
शुरु करुं
अन्त गांव की कोलियों में
होता है.....
मेरा गांव
मेरा देश है
मेरा देश
मेरी बपौती है।’’

कवयित्री अनामिका के हवाले से कहें तो-‘‘दो तरह के लोग लोकभाषाओं या आर्ष साहित्य और मिथकों से आए शब्दों-प्रतीकों या बिम्बों की भत्र्सना करते हैं-एक तो प्रस्तरकीलित किस्म के कट्टर प्रगतिवादी, दूसरे नागर इलीट! इनका मन रहता है कि भाषा या तो सैनिकों की वर्दी में मार्च-पास्ट करती रहे या फिर माडेल सुन्दरियों की तरह का कैटवाक। नपे-तुले शब्दों में, कम न ज़्यादा- जस्ट राइट।’’ (उर्वर प्रदेश पर अम्ल वर्षा, आलोचना सहस्राब्दी अंक 36, जनवरी-मार्च 2010, पृष्ठ सं0 112)

       (अनामिका)

इसी दौर के कवि बद्री नारायण जो आभिजात्य के बरअक्स लोक की प्रतिरोधी चेतना को पहचानते हैं, कविता और लोक पर विचार करते हुए लिखते हैं - ‘‘साहित्य के सन्दर्भ में ‘महानगरीय स्वाद’ की अन्य साहित्यिक रुचियों एवं स्वादों पर हिंसक विजय के उदाहरण के रूप में यहां समकालीन साहित्यिक दुनिया से एक उदाहरण देना चाहूंगा। नब्बे के दशक में छोटे छोटे शहरों से अनेक नये कवि उभरे। उन्होंने अपने उभरने की लड़ाई को दिल्ली से शासित कविता से संघर्ष करते हुए संभव किया। चूंकि अनेक लोकभाषीय पृष्ठभूमि एवं अनेक जीवन भावों से ये कवि आये थे अतः उनमें भाषा, सांस्कृतिक भाव, लोकसंवाद, मुहावरे एवं डिक्शन की अनेकरूपता थी जो उसे एक सशक्त साहित्यिक हस्तक्षेप बना रही थी। औपनिवेशिक आधुनिकता बोध को समझते हुए भी ये कवि सूखी काव्यभाषा के दबाव को तोड़ कर लोकरागों से अपने को जोड़ रहे थे। आरा, पटना, भोपाल, गुना, सरगुजा, छत्तीसगढ़, इलाहाबाद ;दिल्ली में जाकर भी जो अभी दिल्ली के नहीं हुए थेद्ध से उभरे ये कवि हिन्दी कविता के जनपद का विस्तार करने के साथ साथ उसकी दुनिया को और गहरा कर रहे थे। ये अपने अनुरूप परम्परा रचते हुए स्वयं को निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन आदि से जोड़ रहे थे।.....हर कुछ जो स्थानीय है, वह स्थूल एवं सरल काव्यभावों का अवकाश है एवं हर कुछ जो महानगरीय आभिजात्य बोध से जनित है वह सूक्ष्म,जटिल एवं उत्कृष्ट साहित्यिक संस्रोतों का अवकाश है, जो लोक है उसका कोई सामाजिक यूनिवर्स नहीं होता, ऐसी समझदारियों ने नब्बे के दशक में हिन्दी कविता में आ रहे लोक मिथकों, प्रतीकों, शब्दों, सांस्कृतिक लयों के संघर्षमय प्रतिरोधी यूनिवर्स को नकार दिया।’’ (फटी हुई जीभ की दास्तान, तद्भव अंक 20, जुलाई 2009, पृष्ठ सं0 96)। वे बताते हैं कि एकरूपीकरण कविता को नष्ट कर रहा है मगर फिर भी  कविता में महानगर से इतर काव्यसंवेदना अपने सर्वाइवल की लड़ाई लड़ रही है। यहां यह भी कहना बेहद ज़रूरी है कि लोक एकदम पवित्र स्पेस नहीं है, लोक के अपने अंतर्विरोध होते हैं।

 (बद्री नारायण)
       
जहां तक इस दौर में गांव के बदल रहे यथार्थ का प्रश्न है यह सिर्फ़ हिन्दी कविता का नहीं अपितु समूचे हिन्दी साहित्य का संकट है। इस दौर में तेजी से हो रहे शहरीकरण और गांवों में कठिनतर होते जा रहे जीवन के कारण लोगों का शहरों की ओर प्रव्रजन बढ़ा है। हमारे साहित्यकार इन्हीं में से हैं। गांवों से दूरी बढ़ी और फिर अवधि बढ़ी। शेष रह गईं स्मृतियां। सिर्फ़ स्मृतियों के सहारे गांवों के बदलते हुए यथार्थ को प्रामाणिक तौर पर कैसे प्रस्तुत किया जा सकता है? इसलिए हिन्दी साहित्य से ही हल-बैल गायब होने लगे। कुछेक नामों को छोड़ दें तो कमोवेश यह स्थिति सभी विधाओं की है। बोधिसत्व की ही ‘लाल भात’ कविता के सहारे कहें तो-

‘‘जैसे उच्छिन्न हुआ लाल भात
वैसे ही कहीं खो गए छोटे-छोटे
देसी बैल...खो गईं कहीं
कम दूध देने वाली उनकी मांएं....
देसी भैंस, देसी कुत्ते...देसी अन्न, देसी गाय
सबको कम गुणी कहकर
ख़तम किया गया.... या किया जा रहा है...।
जो बचे हैं....देसी उन्हें ख़त्म होना है.
जैसे लाल भात उठ गया थाली से, अदहन....
रसोई से, कोठिला से, खेत से....।
नव/ब्याहताओं, दुल्हनों के कोंछ से भी....।’’

90’ के दशक के कवियों के सन्दर्भ में यह भी एक सच्चाई है कि अधिकांश कवि अपनी शिक्षा या रोज़गार के लिए गांव से शहर आये थे। गांव से उनके सम्बन्ध अभी निकट के थे। सम्बन्ध निर्वाह से लेकर अपनी तमाम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्हें बार-बार गांव जाना ही पड़ता था इसलिए स्मृतियां भी जीवन्त थीं लोक से पूरा विच्छेद नहीं हुआ था और हो भी नहीं सकता था। कवियों का लोक में शरण लेना वस्तुतः भूमण्डलीकरण के प्रतिरोध का उनका अपना तरीका है। भूमण्डलीकरण एक शहरी समाज उत्पन्न करता है जबकि लोकजीवन शहरी समाज के पहले की अवस्था है। भूमण्डलीकरण से पहले का पूंजीवादी समाज भी इस लोकजीवन को आहत करता है। लोकजीवन की यह विशेषता होती है कि उसमें मानव समाज प्रकृति के साथ बंधा रहता है जबकि भूमण्डलीकरण प्रकृति के शोषण और दोहन की वैश्विक व्यवस्था है। प्रकृति का शोषण होगा तो मनुष्य और प्रकृति का रिश्ता भी टूटेगा और जब यह सम्बन्ध-विच्छेद होगा तो मनुष्य प्रकृति को अपना उपनिवेश समझेगा, फिर जीवन के वे मूल्य भी  नहीं रह जाएंगे। आशय यह है कि 90’ के दशक के कवि लोक से ऊर्जस्वित होकर भूमण्डलीकरण के प्रतिरोध की चेतना से सम्पन्न होते हैं। भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में जब गांव के गांव उजाड़े जा रहे हों और विकास के नाम पर किसानों की उर्वर ज़मीन पर कंकरीट की अट्टालिकाओं से सजे बंजर ‘स्पेशल इकोनामिक जोन’ बनाए जा रहे हों तब बसन्त त्रिपाठी की कविता कहती है-

 (बसन्त त्रिपाठी)

‘‘जगहों के गुम होने की प्रक्रिया के खिलाफ़
यही मेरा विरोध है
कि यहां से निर्वासित होकर
जिन भी शहरों-गांवों में जाऊंगा
उन्हें अपना कहूंगा।’’  

ये कविे ‘ग्लोबल’ के बरअक्स ‘लोकल’ को कविता में खड़ा करते हैं और इनका यही प्रयत्न बकौल नामवर जी ‘उजाड़ में मनसायन’ लाता है।
       
कविता ही नहीं बल्कि स्वयं भाषा भी अन्ततः लोक पर निर्भर होती है। यह लोक ही है जो न सिर्फ़ भाषा अपितु उस भाषा के साहित्य का भी मूल आधार होता है। इस सन्दर्भ में संस्कृत भाषा का उदाहरण हमारे सामने है। इसलिए साहित्य का भी एक प्रतिमान लोक है। सच्चा साहित्य अपनी प्रकृति में ही लोकधर्मी होता है। कभी अशोक वाजपेयी ने हिन्दी कविता पर यह आरोप लगाया था कि वह मात्र दो हजार शब्दों की कविता है। ऐसे में अपने अंचल विशेष से लाये गए शब्दों से कवि हिन्दी कविता के शब्दकोश को ही नहीं बढ़ाता बल्कि वह हिन्दी कविता को भी ‘राजभाषा की शब्दावली’ से भी मुक्त करता है। अगर अपने देश, अपनी ज़मीन से प्रेम नहीं होगा तो चाहे अमरीका आये चाहे जापान उसे क्या फर्क़ पड़ेगा ? अपने  जल, जंगल और ज़मीन पर नव-साम्राज्यवादियों की घुसपैठ के विरोध के लिए लोक में उसका जाना ठीक वैसा ही प्रतिरोध है जैसे स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में औपनिवेशिक सत्ता के विरोध में अपनी आज़ादी के लिए अपने ‘हिन्दुस्तान’ के प्रति प्रेम और भक्ति के गीत रचे तथा गाए जाते थे। यह अकारण नहीं है कि वामपंथी पी0सी0 जोशी 1857 की साम्राज्यवाद विरोधी चेतना को लोकगीतों के माध्यम से समझने की कोशिश करते हैं क्योंकि जनआकांक्षाएं लोकगीतों में ही अभिव्यक्त हो रही थीं।

जैसा कि मैंने कहा कि 90’ के दशक के कवि प्रायः किसान परिवारों से आये थे। कृषक जीवन से अपरिचित रहकर कोई भारत से भी परिचित नहीं हो सकता। जीवन से जब ‘कृषक जीवन’ और जीवन में रचे-बसे उसके शब्द छूटते हैं तो बहुत कुछ छूट जाता है। इस सन्दर्भ में यह भी जोड़ देना मुनासिब होगा कि किसानों की विश्व-दृष्टि उस पूरे समुदाय की विश्व-दृष्टि होती है जो अपने भविष्य की सुरक्षा के लिए लड़ता है। माक्र्स कहते हैं कि- ‘‘ निम्न मध्यम वर्ग....किसान... क्रान्तिकारी नहीं होते, वे रुढि़वादी होते हैं.... वे..... अपने वर्तमान के लिए नहीं, भविष्य के हितों की रक्षा के लिए लड़ते हैं।’’ किसान परिवारों से आए हुए ये कवि अपने वर्तमान में तेजी से हो रहे परिवर्तनों के घटाटोप में, स्वप्नभंग से आहत होकर भविष्य की ही रक्षा के लिए लड़ाई लड़ रहे थे। इसी से उपजती है वह करुण पुकार जो सब कुछ नष्ट होते हुए देखते-देखते कवि-मन से फूटती है। ‘बचाया ही जाना चाहिए’ या बचा लेने की इस बेचैन मासूम जि़द में वह सब कुछ शामिल है जिसे नष्ट किया जा रहा है अथवा नष्ट किये जाने के षड्यन्त्र दीख रहे हैं। वह बाबरी मस्जिद भी हो सकती है, यह महादेश भी, वह परम्परा भी हो सकती है, मनुष्यता भी और एक प्यार-पगा प्रेमपत्र भी। कोई सामान्य निहत्था आदमी भी जब एकदम असहाय होता है तो ‘बचाओ! बचाओ!’ की गुहार लगाता है। एक कवि कुछ शब्दों के साथ अंततः निरस्त्र ही होता है और जब वह बिल्कुल निरुपाय हो जाता है और जान लेता है कि अब नहीं बचाया जा सकता तो भरे मन से श्राप तो दे ही देता है। हमारे लौकिक साहित्य का आदि छन्द भी इसी तरह के एक लाचार हुए कवि के श्राप से ही अनुष्टुप बन कर फूटा था। विनय दुबे की कविता पंक्ति है-

‘‘सच को शायद सच
और कविता को शायद कविता कहो
ऐसा कहने से
शायद बच सकते हो तुम.....।’’

यह अनिश्चय भरा समय कवि को शायद नहीं बल्कि सचमुच बचा लेने की पुकार के लिए बाध्य करता है। इसी से ‘न बचा पाने’ पर कवि विलाप के लिए विवश होता है क्यों कि रुलाई का कविता से आदिम सम्बन्ध है। ‘रुलाई’ दुनिया के प्रतिरोध का एक अपना तरीका है। बद्रीनारायण ‘आधी रात में रुलाई का पाठ’ करते हुए बताते हैं कि- ‘‘सृष्टि का आदि शब्द ‘ओम’ नहीं ‘रुलाई’ है।’’ गा़लिब अगर कहते थे कि ‘‘रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताये क्यों’’ तो हमारे दौर के कवि पंकज चतुर्वेदी कहते हैं-

‘‘क्योंकि कुछ नया और सार्थक रचने की
तमाम सच्ची कोशिशों की असफलता के बाद
फूट-फूट कर रो पड़ने की
एक अकाट्य तार्किक जि़द है।’’

 (पंकज चतुर्वेदी)

90’ के दशक के बारे में पंकज चतुर्वेदी कहते हैं-

‘‘एक ऐसे समय में
जब सब-कुछ बिक रहा है
और इस बहुमुखी बिक्री में लोग
एक-दूसरे की नज़रें बचाकर भी
अपने को बिकने से बचा नहीं पा रहे’’ 

तो इस दौर के कवियों की निराशा भी उम्मीद पैदा कराती है। पंकज चतुर्वेदी के आलोचनात्मक लेखों की पुस्तक का शीर्षक ही है-‘निराशा में भी सामर्थ्य’। निराशा के इस दौर में कोई नकली, दिलासा देती क्रान्ति की मुद्रा भला क्यों और कैसे अख्तियार करे। इसी समय हमारी आज़ादी के पचास साल पूरे हो रहे थे और हालात ऐसे, फिर इसकी भी पड़ताल की जानी चाहिए कि जिन कवियों के लिए ‘ज़मीन पक रही’ थी और जो क्रान्ति के लिए 80’ के दशक में ही महज़ एक चिन्गारी की तलाश कर रहे थे, 90’ के दशक में उनका क्या हुआ ? 80’ के दशक के कवियों ने अपनी रचनाओं से कहीं भी सोवियत के विघटन की आहट नहीं दी। यह या तो ‘सब ठीक हो जाएगा’ का झूठा विश्वास था या यथार्थ की अनदेखी या उसे न पचा पाने की लाचारी या उस समय के राजनीतिज्ञों की भांति रोमानिया और सोवियत संघ के बारे में जनता को भुलावे में रखने की एक सोची-समझी रणनीति ? 90’ के दशक के तमाम हादसों में घायल होने के बाद 80’ के दशक के कवि ने अंततः कहा कि ‘उजले दिन ज़रुर आएंगे’ तो यह साफ़ हो चुका था कि फिलवक्त 90’ के दशक की रातों के घनेरे अन्धेरे को वह समझ और स्वीकार चुका है। कविता में 80’ के दशक तक गोली दागने वाले कवि 90’ की सियाह रातों में अपनी सफेद रात की चमक के साथ कविता के प्रिय क्षेत्र में मौन क्यों हो गए ? 90’ के दशक के ही कवि रविकान्त की एक कविता इन कवियों पर ही जैसे टिप्पणी करती है-

 (रविकान्त)

‘‘इस समूचेपन में बंद होकर
मेरा दम घुट रहा है
मेरे सपनों का जोश ख़त्म हो गया है
और मेरी लड़ाई किसी से भी नहीं रह गई है....
मैं बदरंग हो चुका हूं
और
लोग मेरे चढ़ाव का दिन याद कर
मुझे अब भी पत्र लिख रहे हैं....
मैं, जो कि अपनी बंदूक पोंछ कर
उसे अपने मुहल्ले की धूप में चमकाता हूं
हां, मैं ही, जो कि
शहर भर में मंडराते भूखे बच्चों को
महज़ संवेदना से देखकर
अपनी विचारधारा पर गर्व करता हूं।’’  

(इन कविताओं का कवि एक सपने में मारा गया)
   
यहीं से कवि का अकेलापन उस पर हावी हो जाता है। जिस राजनीति ने उसे जनपक्षधरता के साथ जोड़ा जब वही संकटग्रस्त हो गयी और क्रान्ति की नकली भंगिमाएं सब बेकार साबित हुयीं, यथार्थ में नव-साम्राज्यवाद अपने नए रूप में सामने आ रहा था, अपना माल खपाने के लिए नए बाज़ार तलाशे जा रहे थे, हथियारों को खपाने के लिए अफ़गानिस्तान से लेकर खाड़ी देशों तक नरसंहार किए जा रहे थे, दो पड़ोसी देशों के बीच तनाव की स्थितियां जबरन पैदा की जा रही थीं तब एक रचनाकार अपने अकेले होने को सहज ही महसूस कर सकता है। वैसे भी हर जेनुइन रचनाकार अपने समय की विभीषिकाओं से जूझने में अपना अकेलापन महसूस करता ही है। टैगोर अकेले थे, कबीर अकेले थे, ग़ालिब अकेले थे और अपने समय की सामाजिक क्रूरताओं के बीच निराला व मुक्तिबोध भी अकेले थे।

इसी अकेलेपन से टूटकर कवि पुनः अपने लोक और घर-परिवार की ओर लौटता है क्योंकि अभी तक क्रान्ति के एक बड़े सपने के लिए सबसे ज़्यादा यही उपेक्षित हुए थे। समय के दिये गए गहरे घावों के साथ वह उन्हीं माता-पिता और भाई-बहनों के पास पहुंचता है जो दुनिया को बदल देने की सैद्धान्तिकी में कहीं छूट गए थे। वह फिर जीवन-द्रव्य पाने उन्हीं माता-पिता के पास जाता है, जिन्होंने उसे जीवन दिया था। क्योंकि इस दौर के कवि प्रेम रंजन अनिमेष के लिए-

 (प्रेम रंजन अनिमेष)

‘‘इस दुनिया की
जो छवि है मेरे भीतर
उसमें एक स्त्री के वक्ष की तरह
थामे हुए हैं इसे
नन्हें शिशु हाथ।’’

अपने इसी दौर के कविता संग्रह ‘हम जो देखते हैं’ में अग्रज पीढ़ी के कवि मंगलेश डबराल ‘चेहरा’ शीर्षक अपनी कविता में लिखते हैं-

‘‘मां मुझे पहचान नहीं पायी
जब मैं घर लौटा
सर से पैर तक धूल से सना हुआ
मां ने धूल पोंछी
उसके नीचे कीचड़
जो सूख कर सख़्त हो गया था साफ़ किया
फिर उतारे लबादे और मुखौटे
जो मैं पहने हुए था पता नहीं कब से
उसने एक और परत निकाल कर फेंकी
जो मेरे चेहरे से मिलती थी
तब दिखा उसे मेरा चेहरा
वह सन्न रह गयी।’’ 

 (मंगलेश डबराल)

इसी पीढ़ी के कवि असद जै़दी बहनों पर कविताएं लिखते हैं तो वीरेन डंगवाल ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ में ‘मां की याद’ करते हैं और अपने संग्रह ‘स्याही ताल’ तक आते-आते ‘रुग्ण पिताजी’, ‘शव पिताजी’ और ‘ख़त्म पिताजी’ जैसी कविताएं लिखते हैं। बड़ी लड़ाइयों को सामने रखने पर जो लड़ाइयां छूट गयी थीं या जो एक बड़े आन्दोलन के साथ ही नत्थी थीं अब कवि को वे सब याद आती हैं क्योंकि समाजवादी आन्दोलन की पस्त-हिम्मती के दौर

 (असद जै़दी)

में कवि अपने घर-परिवार से फिर एक छोटी-सी शुरुआत कर रहे थे। इन कविताओं में दुःखी माता-पिता या भाई-बहन-पत्नी की करुण छवियां इसलिए बार-बार आती हैं क्योंकि पूरी दुनिया की ही निस्तेज, प्रभाहीन और उदास छवि कवि के मानस में थी जिसे पुनः प्रसन्न करने की एक नई लड़ाई लड़ी जानी है। पारिवारिक सम्बन्ध इसी लड़ाई का एक हिस्सा थे। बाज़ार इस परिवार नामक संस्था का विरोधी है क्यों कि परिवार में सम्बन्ध आते हैं। वह कहता है कि मुझमें और आप में भी सम्बन्ध नहीं हैं, सम्बन्ध तो आप और वस्तु में है। जिस दिन मैं अपने सारे निजी सम्बन्ध डालर में परिभाषित कर दूंगा उसी दिन से मैं नव-उदारवादी व्यवस्था में         
     
होउंगा। महान् वैज्ञानिक मुनरॉड लॉरेंज ने अपनी पुस्तक On Aggression  में एक ज़गह लिखा है-  'When a man meets a woman he does not impregnate an egg, he impregnates the relationship.’


इस परिवार के अन्तर्विरोधों पर भी इन कवियों की बराबर निग़ाह है। केशव तिवारी के लिए

(केशव तिवारी)

‘सदानीरा नदी थी मां
जो बहती रही पितृ-संस्कृति के पहाड़ों के बीच....।’

बोधिसत्व ‘मां का नाच’ में कहते हैं-

 (बोधिसत्व)

‘‘पैरों में बिवाइयां थीं गहरे तक फटीं
टूट चुके थे घुटने कई बार,
झुक चली थी कमर,
पर जैसे भंवर घूमता है
जैसे बवंडर नाचता है वैसे
नाच रही थी मां।
आज बहुत दिनों बाद उसे
मिला था नाचने का मौका।’’

गगन गिल कहती हैं-‘‘हमारे लिए घर नहीं संताप है।’’ निर्मला पुतुल कहती हैं-

‘‘कहीं कोई घर नहीं होता मेरा
बल्कि मैं होती हूँ स्वयं एक घर।’’

अनिल कुमार सिंह स्वीकार करते हैं-

 (अनिल कुमार सिंह)

‘‘इतने भारी नहीं हैं हम
कि हमारे घर की औरतें
एक आतंकित सौम्यता में बंधी रहें
....हमारी सत्ता के खि़लाफ़
हमारे ही घर में
सर उठाएंगी वे।’’

पवन करण ‘प्यार में डूबी हुई मां’ के बारे में लिखते हैं-

‘‘मेरी मां इन दिनों
अपने पुरुष मित्र के प्यार में डूबी हुई है
और मैं उन्हें आपस में एक दूसरे को
चुपके चुपके प्रेम करते हुए देखती हूं
पिता, तुंम्हारे जाने के बाद कितने बरस
कितनी अकेली, कितनी उदास रही मां।’’ 

 (पवन करण)

मेरा ख़्याल है उपरोक्त उदाहरण उन सुधी जनों के लिए पर्याप्त होंगे जिन्हें परिवार जैसी संस्था के ‘अन्तर्विरोध’ इस दौर की कविताओं में ढूढ़े नहीं मिलते। यहाँ स्त्रियों के शोषण एवं परिवार के ढांचे के चित्र भी हैं और उनका प्रतिरोध भी। इसी दौर की कवयित्री अनामिका कहती हैं- ‘‘झण्डे लेकर चलना अच्छी बात है, पर कविता में हम झण्डे उठाते हैं, तो कभी-कभी ऐसा भी होता है कि आंधियां झण्डा तो उड़ा ले जाती हैं और हाथ में रह जाता है केवल डण्डा जो कम से कम कविता के स्वास्थ्य के लिए तो ठीक नहीं ही है। इधर की कविता का सबसे बड़ा गुण शायद यही है कि वह बहुत मानवीय और उदार है। जीवन के अंतिम सच तक पहुंचने का दावा नहीं करती पर सबको ही स्पेस देती है।’’ (उर्वर प्रदेश पर अम्ल वर्षा,आलोचना सहस्राब्दी अंक 36,जनवरी-मार्च 2010, पृष्ठ सं0 112)

अब जरा इस दौर की कविताओं में आए हुए धर्म और साम्प्रदायिकता पर भी बात कर लें। 1970 के दशक में एलान किया गया था कि ‘God is Dead’। पूरे योरप और अमेरिका में यह बात खूब चली लेकिन क्या हुआ ? धर्म नए-नए रुपों में  लौट रहा है। जिस माक्र्स को हम धर्म-विरोधी के रुप में चित्रित करते रहते हैं, उसी मार्क्स  ने ‘पेरिस कम्यून’ का नेतृत्व किया था जिसमें संगठित मज़दूर के अलावा देहात का श्रमजीवी वर्ग था और उसमें छोटे स्तर के पादरी भी शामिल थे, जिन्होंने मज़दूरों की सत्ता कायम की। धर्म के स्तर पर क्या हम मार्क्सवाद का एक व्यावहारिक पहलू नहीं देखते हैं ? जिन देशों में समाजवाद की विजय हो गई थी वहां भी धर्म की वापसी हुयी है। यह सब कहकर मैं कहीं भी धर्म को डिफेन्ड नहीं कर रहा हूं बल्कि इस दौर में धर्म के चतुर्दिक गहरे होते प्रभावों की बात कर रहा हूं। यह एैसा दौर है जिसमें ह्यूगो शावेज जैसे वामपंथी नेता धर्म के प्रति उदार दृष्टि अपनाते हुए वामपंथ के पुनः उभार में उसका सकारात्मक उपयोग करते हैं और ईसा मसीह को सबसे बड़ा समाजवादी बताते हैं। हिन्दी नवजागरण को उसके तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद रामविलास शर्मा से लेकर मैनेजर पाण्डेय तक ‘धार्मिक-साम्प्रदायिक नवजागरण’ नहीं मानते जैसी कि वीर भारत तलवार की राय है। 90’ के दशक में क्या हम नवजागरण की इसी चेतना का विस्तार नहीं देखते ?

 मार्क्स ने धर्म के बारे में कहा है कि ‘रिलीजन इज़ द रिफ्लेक्स आव रियल लाइफ’। वे उसे अफीम कहते हैं तो पीडि़त मानवता की कराह भी। 90’ के दशक में कविता को भारत की सामान्य आस्तिक जनता को सम्बोधित करना था, कम्युनिस्ट कैडर को नहीं। वे तो वैसे भी नास्तिक और भौतिकवादी थे। अंधविश्वास सिर्फ़ धार्मिक ही नहीं होते सामाजिक और राजनैतिक भी होते हैं। अनिल कुमार सिंह अपनी ‘अयोध्या 1991’ कविता में सामान्य आस्तिक जनता को ही समझा रहे थे कि अगर कण-कण में भगवान मानते हो तो मस्जि़द जो तुमने ढहायी है वहां भी भगवान ही थे। तुमने अपने भगवान का ही घर ढहा दिया है। दरअस्ल, उस समय ‘रियल लाइफ’ में जो रिफ्लेक्स हो रहा था वह न तो तत्कालीन राजनीति संभाल पा रही थी न दर्शन। जिन असगर अली इंजीनियर को हम अक्सर ‘कोट’ करते हैं वही यह कह रहे थे कि- ‘‘मेरी नज़र में धर्म की प्रासंगिकता हमेशा रहेगी। कोई ज़माना ऐसा नहीं रहेगा जिसमें धर्म अपनी भूमिका खो देगा। मैं ‘रेशनलिस्ट’ की इस बात से इत्तेफ़ाक नहीं रखता कि अक्ल और फेथ एक-दूसरे के मुख़ालिफ़ हैं। न सिर्फ़ फेथ से काम चल चल सकता है और न सिर्फ़ अक्ल से। ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं न कि विरोधी।’’ धर्म वस्तुतः सामाजिक चेतना का एक ऐसा विशिष्ट रूप है, जिसका विशिष्ट लक्षण लोगों की चेतना में, उसके जीवन पर शासन करने वाली बाह्य शक्तियों का ऐसा भ्रमपूर्ण परावर्तन है, जिसमें लौकिक शक्तियाँ अलौकिक रूप धारण कर लेती हैं। कात्यायनी कहती हैं-‘‘पूंजीवादी समाज में पूंजी की शक्तियां इतने अदृश्य और रहस्यमय ढंग से हमारे जीवन की नियामक शक्ति बन जाती हैं कि हम उनकी शिनाख़्त नहीं कर पाते। वे हमारे लिए अलौकिक सत्ता बन जाती हैं। यानी पूंजीवादी समाज में माल-उत्पादन और ‘कमोडिटी फेटिशिज़्म’ वह वस्तुगत आधार है जो धार्मिक विश्वासों-अनुभूतियों को जन्म देता है। साथ ही, इसे अपने सांस्कृतिक माध्यमों और संचारतंत्र के द्वारा पूंजीवादी राज्यसत्ता भी खूब बढ़ावा देती है।’’ इसीलिए मार्क्स ने कहा था कि धर्म की आलोचना उन वस्तुगत सामाजिक स्थितियों की आलोचना के साथ ही सार्थक हो सकती है, जो सामाजिक स्थितियां धर्म को जन्म देती हैं।

साम्प्रदायिकता के विरोध में ढेरों कविताओं का लिखा जाना भी 90’ के दशक की कविता की उपलब्धि है। साम्प्रदायिकता का विरोध इस दौर की कविता की ज़मीन थी क्योंकि साम्प्रदायिकता ने हमारे सांस्कृतिक ताने-बाने को ही छिन्न-भिन्न कर दिया था। ऐसे समय में देवी प्रसाद मिश्र यद्यपि अलग से पहचाने जाने वाले कवि हैं किन्तु, इस दौर के लगभग सभी कवियों ने साम्प्रदायिकता का विरोध किया है। हिन्दी कविता के इतिहास पर नज़र डालें तो 1947 में भारत-पाक विभाजन और उससे बने घोर साम्प्रदायिक माहौल में भी इतनी और इस तरह की कविताएं नहीं लिखी गयीं। उसका एक कारण यह भी था कि इस दौर के बहुत से कवि ‘एक्टिविस्ट’ थे। तमाम कवि अपने छात्र जीवन से ही कम्युनिस्ट पार्टी के छात्र-संगठन अथवा लेखक संगठन से जुड़े थे। अधिकांश कवि जो आज स्थापित हो चुके हैं या पहचाने जाते हैं उनका रचनात्मक मानस इसी समय निर्मित हो रहा था। जैसा कि कहा जा रहा है कि ‘गुजरात नरसंहार के बाद लिखी कविताओं में साम्प्रदायिकता की परिघटना की ज़्यादा बेहतर समझ नुमायां होती है’ तो उसका कारण है कि तात्कालिक राजनीति और तात्कालिक युवा कवियों-दोनों की समझ अब तक विकसित हो चुकी थी क्योंकि इससे पहले तो ‘जनता दल’ के निर्माण और फिर उसके द्वारा सत्ता हासिल करने में कम्युनिस्ट और साम्प्रदायिक भारतीय जनता पार्टी का गठबंधन हो चुका था। इसके बाद बने ‘तीसरे मोर्चे’ में आज का जद (यू ) भी शामिल था। बिहार में इसी दौर में क्रान्तिकारी भाकपा-माले ने समता पार्टी से गंठजोड़ किया जो बाद में भाजपा के क़रीब हुयी। कहने का आशय यह कि यह उस दौर के उहापोह और असमंजस का परिणाम था।

    अब जरा इस दौर की कविताओं की पड़ताल कर ली जाय। अनिल कुमार सिंह की ‘अयोध्या 1991’ कविता के बारे में पंकज चतुर्वेदी कहते हैं -‘‘हमारे देश के हिन्दुत्ववादी सामन्ती राजनीतिक तत्व अपनी ‘भूखी,दुखी, नंगी और अनजान’ जनता के मूलभूत भौतिक संकट हल नहीं करना चाहते; अलबत्ता उसे ‘राम मन्दिर’ के ज़रिए मोक्ष का मार्ग अवश्य दिखा रहे हैं। लेकिन इस इकहरी धार्मिक संरचना को अनिल अस्त-व्यस्त कर देते हैं।......बहरहाल ‘चालू राजनीति’ के ये ‘भेडि़ये’ शहरों को शिकारगाह बना रहे हैं और अयोध्या का उनके लिए सिर्फ कूटनीतिक महत्व है। लेकिन अनिल को इत्मीनान है कि जनता की जीवन्त शक्ति को इस तरह नेस्तनाबूद नहीं किया जा सकता। उन्होंने अपने आक्रोश का समूची प्रखरता से बयान किया है-‘श्मशान नहीं हो जाते इलाके सियारों के फेंकरने से।’’ (स्फीति के बरक्स सारांश, आलोचना सहस्राब्दी अंक 12, जनवरी-मार्च 2003, पृष्ठ सं0 114-115) । यह आलोचक की नहीं, एक कवि की कविता की समझ है। उन्हीं की ‘सम्प्रदाय’ शीर्षक कविता कहती है-

‘‘वह रास्ता जो दिख रहा है जाता
आगे की ओर आया है
अतीत के उन भग्न खंडहरों से
जो स्वप्न थे कभी
वीर्य और मदिरा की
ऊभ-चूभ में होते थे
जहाँ पवित्र मन्त्रोच्चार
प्रजा की उत्पादकता या
शायद अपनी भिखारियत और
नपुंसकता की अक्षुण्णता के लिए
वह रास्ता जो दिख रहा है जाता
आगे की ओर असल में
कहीं नहीं जाता
वह तो वहीं खत्म हो गया था
जब पहली बार पवित्र ग्रन्थों का
पाठ करने के कारण
काट ली गई थी किसी की जीभ
डाल दिया गया था किसी
निर्दोष के कानों में खौलता सीसा और
रजोदर्शन से पहले ही
करवाया था किसी बाप ने
अपनी बेटी का बलात्कार।’’

अब सवाल यह है कि यह कविता क्या धर्म और सम्प्रदायों के स्त्री और दलित विरोधी ही नहीं अपितु, मनुष्यता विरोधी स्वरूप का प्रत्याख्यान करते हुए किसी भी संवेदनशील मनुष्य को ग़ैर-साम्प्रदायिक बनाने की दिशा में बिल्कुल नहीं झकझोरती?

संस्कृति और इतिहास एक दूसरे से सम्बद्ध होते हैं। कभी-कभी संस्कृति और इतिहास की मिथकीय धारणाएं भी स्वस्थ सामाजिक-राजनैतिक वातावरण को गहरे आघात दे जाती है। सांस्कृतिक अस्मिता पर संकट दिखा कर जनता का ध्रुवीकरण करके अपने राजनैतिक हितों की पूर्ति की जाती है। धर्म और जाति पूरे भारत की कमज़ोरी थी और आज भी है। अगर अतीत में अलग धर्म और संस्कृति के आधार पर अलग देश की मांग की जाती है तो आज भी जाति के आधार पर राजनैतिक दल हिन्दी पट्टी में राजनीति करते हैं। इसी कठिन समय में पवन करण चाहते हैं कि रामचरण नामक पिता और राम प्रसाद नामक उनके दोस्त अपना नाम बदल लें। इसी दौर में जब ‘पादुका पूजन’ हो रहा है, रथयात्राएं निकल रही हैं, लाउडस्पीकरों पर ईश्वर को चीख-चीख कर पुकारा जा रहा है, विशाल मन्दिर के निर्माण का आयोजन हो रहा है हरीश चन्द्र पाण्डे लिखते हैं-

‘‘इतनी विशालकाय वह मूर्ति
कि सौ मज़दूर भी नहीं संभाल पाये
उसे खड़ा करना मुश्किल
पत्थर नहीं
एक पहाड़ पूजा जायेगा अब।’’

अपनी इसी कविता में वे आगे कहते हैं-

‘‘एक नहीं
दसियों लाउडस्पीकर हैं
एक ही आवाज़ अपनी कई आवाज़ों से टकरा रही है
पखेरू भाग खड़े हुए हैं पेड़ों से
अब और भी कम सुनाई पड़ता है ईश्वर को।’’

इसी लिए वे कबीर को याद करते हैं क्योंकि अपने समय में कबीर ने हिन्दू और मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों के कठमुल्लों को फटकारा था। इसी कविता में पाण्डे जी कहते हैं-

‘‘जब केवल पांच प्रश्न हुआ करते थे हल करने को
अनिवार्य थे कबीर
आज अनगिनत प्रश्न हैं।’’

यही है 90’ के दशक की हिन्दी कविता का ‘सर्व-धर्म समभाव’? साम्प्रदायिकता के विरोध की चेतना बोधिसत्व की ‘पागलदास’ से ही नहीं मापी जानी चाहिए बल्कि उसी संग्रह की पहली ही कविता को भी देखा जाना चाहिए जिसमें वे कहते हैं-

‘‘जबकि
मिथक हैं, प्रतीक हैं, बिंब विधान हैं
वेद हैं, स्मृतियां हैं, कुरान है, पुरान हैं
जाता हूं मैं
सुकोमल पदावलियों के बाहर, खाली हाथ
जाता हूं, कवियों! बेशऊर आंखों के साथ।’’

हर समय बुश की भाषा में ही नहीं कहना चाहिए कि ‘जो हमारे साथ नहीं, शत्रु हैं’। ‘एक चीज़ ‘एम्बी बैलेन्स’ भी होती है। ‘बाइनरी अपोजीशन’ के बरअक्स सुधीर चन्द्र जैसे समाजविज्ञानी ने ‘एम्बी बैलेन्स’ को कई बार अधिक महत्वपूर्ण माना है। एक तीसरा पक्ष हो सकता है और बाबरी मस्जि़द विध्वंस के समय भी था जो न तो बदले के रूप में घोषित किये जा रहे विध्वंस और राम मन्दिर के निर्माण के उद्यम से प्रसन्न था और न ही पुनः उसी स्थल पर एक मस्जि़द बनाने की जि़द से। वह किसी तरह अमन-चैन का हामी था और इस तीसरे पक्ष में दोनों सम्प्रदायों के शान्तिप्रिय लोग शामिल थे। इसी दौर में बाबरी मस्जि़द विध्वंस के विरोध में अशोक वाजपेयी भी थे। एक लम्बी बहस के बाद एक दौर में भक्तिकालीन साहित्य को स्वीकार कर लिया गया, उससे प्रगतिशील तत्व खोज निकाले गए, इस समय के तीनों वामपंथी लेखक संगठनों के अध्यक्षों ने किसी न किसी भक्त कवि पर विस्तार से लिखा है, उसमें लोकजीवन की खोज की है फिर 90’ के दशक की पूरी कविता को कटघरे में खड़ा करके उसमें आए हुए लोक को उसकी कमज़ोरी बता कर आलोचक उसे खारिज़ कर देने के लिए क्यों हठी है यह  फिलहाल समझ में नहीं आता। शिव कुमार मिश्र कहते हैं कि लोक जीवन में बसी रामलीलाओं का साम्प्रदायिक तत्व अपने पक्ष में इस्तेमाल नहीं कर सके। 90 के दशक में वैचारिक असहमतियों के बावजूद गांधी और विवेकानन्द के प्रगतिशील विचारों का ग़ैर-साम्प्रदायिकों ने इस्तेमाल किया तो यह एक रणनीति थी- एक विशाल उदार धार्मिक जनता को सम्बोधित करने की, न कि विवेकानंद या गांधी को ज्यों का त्यों अपना लेने की भूल-गलती। गा़लिब चचा एक सलाह आलोचकों को दे गये हैं कि ‘सलाये-आम है यारान-ए-नुक्तःदां के लिए’। एक वाम लेखक संगठन कहता है कि शीतयुद्ध के बाद जो वृहद् सांस्कृतिक मोर्चा बनेगा उसमें माडरेट्स, डेमोक्रेट्स और प्रगतिशील साथ होंगे, एक वामपंथी पार्टी कहती है कि धर्म के प्रति अपने नज़रिए का पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिए। ऐसे में साहित्य में संबोधित आम जनता को ‘सर्व-धर्म वर्जयेत’ कहकर अपनी बात के लिए हम सचमुच कितना स्पेस ले पाएंगे ? देखा यह जाना चाहिए कि इन कविताओं में अपने समय की शिराओं में छिपी सामाजिक गतिकी की तरफ़ संकेत किया गया है या नहीं ?

रचना और वैचारिक प्रतिबद्धता के बारे में अब ज़रा बाबा नागार्जुन का कहा भी जान लें- ‘‘रचना के लिए विचार हमेशा महत्वपूर्ण होता है। मानवीय संवेदना का सहज रूप जब रचना में आता है तो वह बेहतरी के लिए ही होता है। रचना सिद्धांत नहीं है। वैचारिक प्रतिबद्धता का पहले से तैयार होकर रचना में आना खतरनाक होता है। उसका विकास स्वाभाविक रूप से होना चाहिए। वैचारिक प्रतिबद्धता को किसी पार्टी या राजनीति की परिधि में नहीं समझा जा सकता। वह धरती की तरह विराट और समुद्र की तरह गहरी होती है। रचनाकार किसी का गुलाम नहीं होता। उसकी आभा फूटती है किरणों की तरह। रचना में वैचारिक प्रतिबद्धता होनी चाहिए पूरी मानव जाति के कल्याण के लिए।...मैं यह ज़रूरी मानता हूं कि राजनैतिक पार्टियां लेखक को नियन्त्रित न करें। जो रचनाकार दूसरे के निर्देशों के अनुसार रचना करेगा उसके लेखन में अन्दर से ताक़त नहीं पैदा होगी।वह भुरभुरी मिट्टी के ढेले के समान ही रचना लिख सकेगा।....यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि हमारे वामपंथी नेता बहुत संकीर्ण हैं और अपने आपको लेखक और कवि के मुक़ाबले बहुत बड़ा मानते हैं।... हमारी वैचारिक प्रतिबद्धता मानव जाति के लिए है।’’ (बाबा नागार्जुन से महावीर अग्रवाल की बातचीत, सापेक्ष अंक 34, जनवरी-मार्च 1995, पृष्ठ सं0 278)

‘सन्तुलन’ के गुब्बारे के अंततः फूटने के मुतमईन होने से ही ‘एम्बी बैलेन्स’ की थ्योरी आई है। जब भारत में माक्र्सवाद के विशाल वितान की छाया में बैठे दलितों और स्त्रियों को उनकी मुक्ति के लिए सही और सार्थक पहलकदमी नहीं समझ में आई तो उन्होंने अपनी अस्मिता की राह तलाशी। माक्र्सवाद के भीतर वे अपनी पहचान के साथ ही रह सके। आज भी यह शोध का विषय हो सकता है कि किस वामपंथी दल के पालित ब्यूरो में कितने दलित और कितनी स्त्रियां हैं ? अरुण कमल 1999 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘कविता और समय’ में इसी दौर की कविता के बारे में कहते हैं कि-‘‘कविता निर्बलतम का पक्ष है। जिसका कोई नहीं उसका कविता है। जो सबसे कमज़ोर, दलित और असहाय है उसका बल है। मुए बैल की खाल से बनी भांथी की धोंकती सांस है जिससे लौह भी भस्म हो जाए। इसके सिवा कविता की दूसरी भूमिका नहीं हो सकती। ऐसे समय में जब देश में पूंजी का कोई वास्तविक विपक्ष बचे ही नहीं, कविता जीवन का अन्तिम मोर्चा, अन्तिम चैकी है।........चूंकि कविता सम्पूर्ण पतन के विपक्ष में है इसलिए स्वभावतः यह एक नैतिक प्रतिरोध है।.....अपने समय के दबाव हमेशा ही कविता पर पड़ते हैं। आज भी कविता के गले पर समय की उंगलियों के नीले दाग़ साफ देखे जा सकते हैं। आज की कविता अभी ठीक दस बरस पहले की कविता के मुक़ाबले ज्यादा स्याह, उदास और अकेली है। पहले से अधिक अपने समय की आलोचना, जो है उसका प्रतिपक्ष।’’ जो हाशिए के लोग हैं, जो निर्बल हैं उनके पक्ष में इस दौर की कविता अपने सहज स्वभाव के कारण खड़ी है फिर वे चाहे दलित हों या स्त्रियां या आदिवासी। अनामिका के ही हवाले यदि फिर कहूं ‘‘एक ख़ास तरह की विनय जो गहरे आत्म-विश्वास से ही पैदा हो सकती है- इधर की कविता का केन्द्रीय सत्य है।‘पर्सनल इज़ पालिटिकल’ कहकर वैयक्तिक और सामाजिक के बीच का सारा झगड़ा ही यह कविता खत्म कर देती है तो शायद इसलिए कि जीवन का अंतिम सत्य जेब में लिये घूमने का दम्भ और ढकोसला इसके पास नहीं है। आदमी जब बहुत विचलित होता है तो इधर से उधर, उधर से इधर लगता है चहलकदमी करने। आपरेशन थियेटर के बाहर जिस बेचैनी से मरीज़ के आत्मीयजन टहलते हैं, प्रायः उसी बेचैनी से इस ‘ध्रुवान्त’ से उस ‘ध्रुवान्त’ तक ख़ामख़याली में आज की कविता टहल-सी रही है। ख़ेमों में बंटी इस कातरप्राण दुनिया के जितने भी ध्रुवान्त हैं, वर्ण-लिंग-जाति और भाषिक अस्मिता के जो भी दो तट हैं-उनके बीच भरपूर बंचैनी में चहलक़दमी करती हुई लगातार यही सोचती है यह कविता कि इन दो ध्रुवान्तों के बीच पुल क़ायम भी किया जाए तो कैसे।’’ (उपरोक्त)

कविता से हमेशा ‘पालिटिकली करेक्ट’ होने की मांग नहीं की जानी चाहिए क्योंकि  कविता अंततः ‘मानवीय राग’ है। कोई दर्शन या सैद्धान्तिकी चाहे कितने भी महान् हों कविता नहीं हो सकते, हम ‘दास कैपिटल’ को कविता नहीं कह सकते। अभी ‘तहलका’ के 15 जून 2013 के अंक में कवि नरेश सक्सेना अपने साक्षात्कार में कहते हैं- ‘‘कविता कला है और यकीनन उसका सम्बन्ध आनन्द से है।.....कविता विज्ञान नहीं है, वह अंततः कला है। यदि हम मोची होते तो अपना जूता खुद बनाकर पहनते, रसोइये होते तो अपनी खिचड़ी घी और अचार के साथ खाकर मगन रहते, लेकिन यह कविता है। यह बिना श्रोता के पूरी नहीं होती। हां, विचार भी हमें नयी दृष्टि देते हैं लेकिन केवल विचारों से कविता नहीं बनती।’’ अब जबकि इक्कीसवीं सदी का पहला दशक बीत चुका है, भूमण्डलीकरण की स्थितियां साफ हो चुकी हैं, अब नव-साम्राज्यवाद का रक्तपायी रूप सामने आ चुका है तथा अब भाजपा और आर0 एस0 एस0 की असलियत भी जनता जान चुकी है हिन्दी आलोचना ने भी तीसरा नेत्र खोल दिया है। शायद भूमण्डलीय आंधी में वह भी अपनी आंखों में पड़े तिनकों को साफ करने में व्यस्त थी।
ऐसा नहीं है कि 80’ के दशक के कवियों में अन्तर्विरोध नहीं हैं किन्तु मेरा उद्देश्य यहां उनके अन्तर्विरोधों का उद्घाटन नहीं है। अन्तर्विरोध प्रायः कवियों में नहीं उस समय में होते हैं, जिसमें वह अवस्थित होता है।

 रामविलास जी नवजागरण का विश्लेषण कर हमें बता चुके हैं कि हमारे बड़े कवियों, लेखकों में पाये जाने वाले अन्तर्विरोध वस्तुतः नवजागरण के उस कालखण्ड के अन्तर्विरोध हैं। का0 विनोद मिश्र कहा करते थे कि कठोर अनुशासन पार्टी को और उदारता सांस्कृतिक संगठनों को बचाती है। वे लिबरेशन के अप्रैल 1995 के सम्पादकीय में लिखते हैं- ‘‘हमें उन कठमुल्लावादियों की तरह आचरण नहीं करना चाहिए जो अपने व्यवहार की लगातार समीक्षा करने से इन्कार करते हैं और लगभग धार्मिक अंध-आस्था के बतौर पुराने पड़ गए घिसे-पिटे सूत्रीकरणों का जाप किया करते हैं।’’ आलोचक इसके उलट साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में हार्डलाइनर क्यों हो रहे हैं-यह फिलहाल मेरी समझ के बाहर है। जन संस्कृति मंच के तीसरे सम्मेलन 1994 के लिए प्रस्तुत तथा समकालीन जनमत में फरवरी 1995 में प्रकाशित आलेख में कहा गया था कि-‘‘तब से लेकर आज तक वोल्गा और गंगा, यांग्त्सी और यमुना में ढेरों पानी बह चुका है। सोवियत संघ के पतन के साथ बाज़ार की सार्वभौम प्रभुता को ही स्वतन्त्रता का मुख्य सार, आधार और कसौटी बनाकर जिस तरह पेश किया जा रहा है, उससे कलात्मक साहित्य सृजन और संस्कृति को व्यवसाय बना देने का दबाव पहले के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा बढ़ गया है और इसी नाते कलात्मक सृजन और संस्कृतिकर्म की स्वतन्त्रता का प्रश्न और भी अहम बनकर उपस्थित हो रहा है। संस्कृति को उसके मूल स्रोत-जनता से जोड़ने और उसकी सेवा में लगाने का सवाल आज और भी दरपेश है ताकि संस्कृति को उसके मूल स्रोत और ध्येय जनता और उसकी सेवा से तोड़कर उसे व्यवसाय बनाए जाने और इस तरह उसकी स्वतन्त्रता का अपहरण किये जाने का मुकम्मल विरोध हो सके। हम सब एक नितान्त बदलते समय के आमने-सामने खड़े हैं, जहां एक क्रान्तिकारी सांस्कृतिक संगठन को अपने कार्यभारों को पुनःपरिभाषित और ठोस करने की आवश्यकता है।’’

अतः 90’ के दशक में कवियों के जो अन्तर्विरोध बताये जा रहे हैं वे समग्रता में उस कालखण्ड के अन्तर्विरोध हैं-राजनीति के भी, साहित्य के भी, समाज के भी और कवियों के भी। साहित्य को इतना ‘हार्डलाइनर’ हो कर न देखा जा सकता है, न देखा जाना चाहिए। इतने सब के बावजूद 90’ के दशक की कविता अगर हारी हुयी, पिटी हुयी है तो उसके कवियों की ओर से अन्त में मैं यही कहूंगा कि-

न गुल-ए-नग्मः हूँ,  न पर्दः-ए-साज़
मैं  हूं  अपनी  शिकस्त की  आवाज़।
***             ***               ***               ***


                                                                                             
 विवेक निराला
निराला-निवास, 265 छोटी वासुकी,
दारागंज, इलाहाबाद-211006
09415289529


(विवेक निराला का एक संग्रह 'एक बिम्ब है यह' प्रकाशित हो चुका है। आजकल इलाहाबाद के भवन्स मेहता महाविद्यालय भरवारी में हिंदी के प्राध्यापक हैं।) 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त किये गए कवियों के सभी चित्र गूगल के सौजन्य से।)

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