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जनवरी, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

वन्दना शुक्ला के उपन्यास ‘मगहर की सुबह’ का एक अंश

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वन्दना शुक्ला ने थोड़े ही समय में कहानीकार के रूप में अपनी पहचान बना ली है । जीवन की उष्मा से भरी हुई उनकी कहानियाँ सहज ही हमारा ध्यान आकृष्ट करती रही हैं। आधार प्रकाशन से वन्दना का पहला उपन्यास ‘मगहर की सुबह’ आने वाला है। इस उपन्यास में भी ग्रामीण और कस्बाई जीवन के रंग अपनी पूरी आभा के साथ मौजूद हैं। इसी उपन्यास का एक अंश आपके लिए प्रस्तुत है।             उपन्यास अंश                      मगहर की सुबह इस गांव में एक सरकारी विद्यालय हुआ करता था । मिसिर जी की प्राथमिक शिक्षा दीक्षा इसी सरकारी विद्यालय में संपन्न हुई । जाड़ों और गर्मियों के मौसम में कक्षाएं खुले मैदान में पेड़ों के नीचे या धूप में लगा करतीं । धूप जो सीधी और कभी घूम फिर के नीम, बरगद, पीपल, कचनार, झडबेरी आदि पेड़ों के झुरमुट में से रास्ता बनाती हुई पत्तों के सायों को ओढ कर पेड़ों के नीचे बिछ जाती थी । चार छः भद्रंग छोटे कमरे जिनके ऊपर एक जंग खाई लोहे की टीन पर उतना ही मैला कुचैला ‘’डा डी टोला ऊ. मा (उच्चतर माध्यमिक) विद्यालय ‘’लिखा था । कमरे प्रायः बंद ही रहते । कमरों में टाट पट्टियां अलबत्ता पक्तिब

‘कृति ओर’ (65-66) के ‘पूर्वकथन’ पर आशीष कुमार सिंह की टिप्पणी

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विजेन्द्र जी का व्यक्तित्व बहुआयामी है। वे 'कृति ओर' पत्रिका में अपने पूर्वकथन के लिए भी जाने जाते हैं। इसमें वे अपने बेबाक विचार तत्कालीन समाज राजनीति और साहित्य के मद्देनजर रखते हैं। 'कृति ओर' का अधिकांश पाठक वर्ग इसकी प्रतीक्षा 'पूर्व कथन' के लिए करता है। इसी 'पूर्व कथन' पर हमारे युवा साथी आशीष ने पहली बार के लिए एक टिप्पणी लिखी है जिसे हम आप सब के लिए प्रस्तुत कर रहे है।   साथ न होना। छूटेगा उर का सोना.....। (मध्यवर्गीय कवि नुमा जीव बनाम ‘प्रगतिशीलता’ का तमगा) आशीष कुमार सिंह     ‘कृति ओर’ (65-66) हमारे सामने हैं। इस अंक का ‘पूर्वकथन’ काबिले गौर है। इसमें विजेन्द्र जी ने प्रगतिशील आन्दोलन की संघर्षशील परम्परा का पुनर्स्मरण कराया है। इसे पढ़ते हुए हमारे सामने आज के तमाम ‘प्रगतिशील’ बिजूके अनायास कदम-ब-कदम दीखने लगते हैं। मध्यवर्गीय धुंध का प्रसरण करते इन कवि-कहानीकारों की नकली एवं उधारी बौद्धिकता साहित्य जगत के व्यापक हिस्से पर छाई है। ऐसे में निराला-मुक्तिबोध सदृश कवि व्यक्तित्वों की अटूट जनपक्षधरता का स्मरण समयाचीन है। साथ ही ‘मौकापरस्त

शाहनाज़ इमरानी की कविताएँ

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शहनाज इमरानी कविता की  दुनिया में एक नया नाम है. शहनाज की कवितायें बिम्ब और शिल्प के चौखटे तोड़ते हुए ढेर सारी उम्मीदों के साथ हमारे सामने हैं. देखने वालों को इन कविताओं में एक अनगढ़पन भी दिखेगा लेकिन इस बात से इंकार नहीं कि यह नयी कवियित्री पूरी तरह चौकस है अपने समय, समाज और संवेदनाओं के बीच. शहनाज को पता है कि आज का जीवन कितना दुष्कर है. रिश्वत के बिना कोई काम हो पाना आज लगभग नामुमकिन सा हो गया है. जो खुद बड़े अपराधी हैं, जिन्होंने खुद बड़े डांके डाले हैं, जिन्होंने खुद लाखों-करोड़ों के वारे-न्यारे किये हैं, वही आज हमारी संविधानिक संस्थाओं पर काबिज हैं और बड़ी बेशर्मी के साथ नैतिकता का जाप करते रहते हैं. व्यवस्था को बिगाड़ने का आरोप वे बिना किसी हिचक के उन लोगों पर लगाते हैं जो प्रतिबद्धता के साथ नेपथ्य में रहते हुए अपने काम में जुटे हुए हैं. शहनाज की ही एक कविता की पंक्तियाँ ले कर कहें तो 'माथे का पसीना पोंछते हुए ही कुछ ठीक करने की कोशिश में आज भी कुछ लोग प्राण-प्रण से जुटे हुए हैं.'  इस नयी कवियित्री का स्वागत करते हुए पढ़ते हैं इनकी कुछ नवीनतम कविताएँ।              दीमक