सुनील श्रीवास्तव की कहानी 'डॉग बाइट'




सुनील श्रीवास्तव की पहली कहानी है 'डाग बाईट।' पहली कहानी होने के बावजूद यह अपने शिल्प और गठन में पर्याप्त चुस्त-दुरुस्त है. नौकरशाही का यह तन्त्र हर स्तर पर कितना भ्रष्ट हो चुका है इसकी एक बानगी यहाँ सहज ही दिखायी पड़ती है. इस व्यवस्था में काम करने वाले कुछ ईमानदार लोग किस तरह की विकट परिस्थिति का सामना करते हैं यही इस कहानी का कथ्य है जिसे सुनील ने कर्मचारी अजय के व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन के ताने-बाने के माध्यम से और धारदार बना दिया है. उस कर्मचारी के मोबाईल की रिंग टोन 'सब कुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी' भी उस आदमी का परिचय करीने से बता देती है. एक उच्च अधिकारी किस तरह अपने मातहतों को अपनी हनक दिखाते हुए अपने ड्राईवर के बच्चे के कुत्ते काटने के इंजेक्शन लगाने को ले कर पूरा अस्त-व्यस्त कर देता है. जबकि हकीकत यह होती है कि वह कर्मचारी छुट्टी पाने के लिए अपने अधिकारी से कुत्ते के काटने का बहाना करता है. और वह अधिकारी उस कर्मचारी के शब्दों में ही कहें तो सच्चाई जानने के लिए पूरा स्वांग रच देता है. कहानी अन्त तक जाते-जाते एक व्यंग्य बोध में तब्दील होती हुई हमारे तन्त्र की विद्रूपता को एकदम स्पष्ट कर देती है. तो आईए पड़ते हैं सुनील की यह पहली किन्तु बेहतरीन कहानी 'डाग बाईट'    

डॉग बाइट 

सुनील श्रीवास्तव
 
मकान मालिक की लड़की सुबह-सुबह ऊँची आवाज में पढ़ती है – ‘अर्ली टू बेड एंड अर्ली टू राइज, मेक्स अ मैन हेल्दी, वेल्दी एंड वाइज’. मेरी नींद में उसकी आवाज टिन के छप्पर पर मूसलाधार बारिश की तरह बजती है और सात सवा सात बजे तक मेरी नींद परास्त होकर दम तोड़ देती है. मैं कुलबुलाकर आँखें खोलता हूँ और घड़ी पर नजर डालता हूँ. राहत महसूस होती है. चलो ठीक समय पर उठ गया. कमरे से बाहर आता हूँ तो पत्नी को किचेन में पाता हूँ और उस वक्त मेरी दो वर्ष की बेटी फर्श पर बैठी अपने खिलौनों से एक संसार रच रही होती है. मुझे देखते ही अपनी मीठी आवाज में मुझे पुकारती है. मैं मुस्कुराता हूँ और चाय लेकर उसके पास बैठ जाता हूँ. वह मुझे अपनी दुनिया में शामिल कर लेती है. उसके साथ खेलते-खेलते ही मैं अखबार देख लेता हूँ और अपनी चाय खत्म करता हूँ. फिर बड़ी चालाकी से उसे उसके खिलौनों में लगा कर बाथरूम चला जाता हूँ. नाश्ता देते वक्त पत्नी मुझे बताती है कि आज ऑफिस से लौटते वक़्त मुझे बाज़ार से क्या-क्या लाना है. इसमें वे जरूरी चीजें शामिल होती हैं जिनके बिना काम नहीं चल सकता और जिन्हें मैं पिछले कई दिनों से कभी देर हो जाने के कारण तो कभी भूल जाने के कारण नहीं ला पाया हूँ. इसके अलावा वह और भी कई जरूरी जानकारियाँ देती है, जैसे, रेकरिंग डिपोजिट का इस महीने का किश्त अभी तक नहीं भरा गया है, बेटी को वैक्सिनेसन दिलवाना है, मौसी का पैर टूट गया है, फोन पर हालचाल लेना है, गैस खत्म होने वाला है, बिजली का बिल, आदि-अनादि. मैं उसकी सारी बातें ध्यान से सुनता हूँ, मानो आज सभी काम पूरे कर ही लूँगा. ‘विदाउट फेल’ मैं नौ बजे ऑफिस के लिए निकल जाता हूँ, बेटी से छिप कर, वरना वह साथ जाने के लिए जिद करती है और न ले जाने पर बहुत रोती है. उसको रुलाना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता. अच्छा तो मुझे पत्नी की बात नहीं मानना भी नहीं लगता, मगर....
आज संडे था और मुझे ऑफिस नहीं जाना था. ऐसे दिनों को मकान मालिक द्वारा दी गई यह सुबह जगाने कि निःशुल्क सुविधा मुझे बिलकुल नहीं भाती. लेकिन आज तो यह नौबत ही नहीं आई. आज सुबह साढ़े छह बजे ही अचानक मेरे मोबाइल की स्क्रीन पर मेरे बॉस का नाम चमकने लगा. ‘सब कुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी’ की धुन पर जब मेरी नींद टूटी तो मुझे अपनी बेवकूफी पर बहुत तेज गुस्सा आया – सोने के पहले मैंने अपना मोबाइल ऑफ क्यों नहीं किया था! खैर, मेरी नींद टूट चुकी थी, मोबाइल पर बॉस का नाम चमक रहा था और मैं होशियारी नहीं सीख पाया था, सो कॉल उठा लिया. बॉस की गुरु-गंभीर आवाज गूंजी – “अजय जी, एक जरूरी काम है. रात से ही चीफ कमिश्नर के हेड क्वार्टर का फोन आ रहा है. मुंबई के चीफ कमिश्नर के ड्राईवर के लड़के को कुत्ते ने काट लिया है. वह ड्राईवर इसी जिले के एक सुदूर गाँव का रहने वाला है. उस लड़के को एंटी-रेबीज का इंजेक्सन दिलवाना है. हमारे चीफ़ कमिश्नर मुंबई के चीफ कमिश्नर के जूनियर रह चुके हैं और उन्होंने मुझसे पर्सनली बात की है. मैंने उनके हेडक्वार्टर से प्रैक्टिकल दिक्कत की बात कह कर आज सुबह भर का समय लिया है. आप जरा सदर अस्पताल चले जाइए और किसी तरह इंजेक्सन कि व्यवस्था कीजिए. अगर यहाँ न मिला तो पटना से मंगाना पड़ेगा. यहाँ किसी और दुकान पर मिलने की सम्भावना तो कम ही है. मैं रात से ही परेशान हूँ. रात में आपको डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझा. सुबह भी आपको कॉल नहीं करता, मगर अस्पताल से आपका घर नजदीक है.” बॉस ने बड़ी जल्दी इतनी बातें कह दीं, मानो उसने रट कर सुनाया हो. ‘रात को डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझा’ सुन कर मुझे अच्छा लगा.ठीक है, सर, मैं अस्पताल जाता हूँ और एंटी रेबीज इंजेक्सन के बारे में पता करके आपको फोन करता हूँ” – कह कर मैंने फोन रख दिया.
मेरा बॉस कम उम्र का एक ईमानदार अधिकारी है और बेमतलब का रौब झाड़ने के बजाय अपने अधीनस्थों के साथ मिलजुल कर काम करने में विश्वास करता है. इसके अलावा भी उसकी एक बुरी आदत है. सरकारी अधिकारी होते हुए भी वह विचित्र किस्म के सपने देखता है. अधिकारी के रूप में इस छोटे-से शहर में अपनी पहली नियुक्ति होते ही उसने एक सपना देखा – इस ऑफिस को मॉडल ऑफिस बनाने का सपना, जहाँ हर काम समय पर हो, कोई वर्क पेंडिंग न हो, जनता का कोई ग्रिवांस न हो और न ही कोई भ्रष्टाचार हो. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों और खुलासों के दौर में मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि भारत सरकार के विभिन्न विभागों में कुछ ईमानदार अधिकारी भी पाए जाते हैं, भले ही उनका पाया जाना ‘रेअरेस्ट ऑफ रेयर’ हो. अपने आठ साल के सरकारी कैरिएर में पहली बार मेरा साबका ऐसे ‘रेअरेस्ट ऑफ रेयर’ अधिकारी से हुआ था. हम भी सरकारी कर्मचारी थे और सरकारी कार्यालय में काम करते-करते पके हुए थे. लेकिन शायद हममें कुछ कच्चापन बाकी था या यूँ कहिए कि हममें भी थोड़ी गैरत बची थी. इसलिए हमने मन से या बेमन से अपने अधिकारी का साथ देने की सोची. दरअसल हमारा भी कोई दोष नहीं था. हमारा अधिकारी बहुत प्रभावशाली ढंग से अपनी बात कहता था. हम उसके बहकावे में आ गए थे. लेकिन सरकारी व्यवस्था में परिवर्तन लाना इतना आसान नहीं होता. पहली दिक्कत यह थी कि काम के हिसाब से कर्मचारियों की संख्या काफी कम थी. फ़ील्ड ऑफिसों में अधिकारी-कर्मचारी रिश्वत कमाने के लिए पोस्टिंग कराते हैं. ऐसे में जितने कम कर्मचारी हों, उतना ही अच्छा.  भला इसकी शिकायत कौन करे! काम लगातार पेंडिंग होते जाते हैं, सिर्फ वही काम किए जाते हैं जिसमें कमाई हो. लेकिन काम के रिपोर्ट इस तरह बनाए जाते हैं कि पहली नजर में कुछ पता न चले. और रिपोर्ट देखने वालों तक भी तो पैसा पहुँचाया जाता है. मेरे बॉस के आते ही ऊपर पैसा पहुँचना बंद हो गया. नतीजतन तरह-तरह से हमें परेशान किया जाने लगा. इतने रिपोर्ट माँगे जाने लगे कि हम अपने पूरे कार्यावधि का आधा रिपोर्ट बनाने में व्यतीत करते थे. उसके बाद भी हमारे काम और रिपोर्टों में गलतियाँ ढूंढ़ी जाती और बॉस को लताड़ा जाता. कार्यालय मद में कम पैसे आने लगा. सप्लायरों ने सप्लाई बंद कर दी क्योंकि उनके बिल लंबे समय तक पेंडिंग रहने लगे. कार्यालय से सम्बंधित कोई जरूरत बताने पर ऊपर के ऑफिस में बिलकुल असहयोगात्मक रूख अपनाया जाता. अपने ऑफिस में भी सबकुछ ठीक-ठाक नहीं था. कर्मचारी कुछ कहते न थे, पर उनकी कमाई कम होने लगी थी तो वे भी खुश नहीं थे. इधर सरकार भी रोज नये-नये नियम-कानून ला रही थी. सभी कामों को पूरा करने की समय-सीमा बना दी गई थी. सारे रिकॉर्ड सुरक्षित रखने थे. सभी रिपोर्ट समय पर देने थे. लेकिन कर्मचारियों की संख्या बिलकुल नहीं बढती थी, उलटे पहले से कम ही हो गई थी. नतीजा यह हुआ कि काम पहले से भी कम होने लगा. बॉस कुढता लेकिन अपने संकल्प से नहीं डिगता. उसने रास्ता निकाला. वह कार्यालय अवधि के बाद भी देर तक काम करने लगा. सटरडे-सन्डे और अन्य छुट्टियों में भी ऑफिस खुलने लगा. बॉस ने हमपर प्रत्यक्षतः तो कोई दबाव नहीं डाला, मगर वह हमें तरह-तरह से मोटिवेट करता कि हम उसका साथ दें. जो पुराने लोग थे और घाट-घाट के पानी पिए हुए थे उनपर कोई असर न हुआ. उन्होंने बॉस की हाँ में हाँ मिलाई, लेकिन कभी छुट्टी में काम नहीं किया. मेरे जैसे दो-एक बेवकूफ और दब्बू लोग एक ईमानदार अधिकारी के सनक भरे सपने के लिए जी-तोड़ मेहनत करने लगे, छह बजे के बाद भी और सटरडे सन्डे को भी. हमारी पत्नियाँ हमसे नाराज होतीं तो हम उन्हें समझाते कि बस कुछ ही दिनों कि बात है फिर खूब छुट्टियाँ होंगी. वे समझ जातीं कि हम उल्लू के पट्ठे हैं. घर के छोटे-छोटे काम भी नहीं हो पाते थे. कभी-कभी तो हम हफ़्तों दाढ़ी तक नहीं बना पाते थे. हम कुढ़ते, चिढ़ते और अपने काम में लग जाते. आज सन्डे था और मैंने एक बहुत जरूरी काम होने का बहाना बनाया था. लेकिन अब यह आफत...!


खैर, यह कोई बहुत बड़ा काम नहीं था. अस्पताल जाने में मुझे ज्यादा-से ज्यादा पच्चीस मिनट लगते. लेकिन सरकारी जगहों पर जा कर कोई काम करा लेना बड़ा मुश्किल होता है. कहाँ जाना होगा, किससे मिलना होगा- यह सब मेरे दिमाग में घूमने लगा. मुझे याद आया कि मेरा दोस्त मुकेश जो प्रसार भारती का स्थानीय संवाददाता है, ख़बरें लेंने के लिए रोज सुबह और शाम को अस्पताल जाता है. मैंने तुरत उसे फोन लगाया. वह सो कर उठा ही था. मेरे पूछने पर उसने बताया कि एक घंटे में अस्पताल के लिए निकलेगा. मैंने उसे सारी बातें बताईं और कहा कि मैं भी उसके साथ चलूँगा. साढ़े सात बजे मैं अपने मोड़ पर खड़ा मुकेश का इंतज़ार कर रहा था. मैंने पत्नी को कुछ नहीं बताया. एक घंटे में आ रहा हूँ – कह कर निकल गया. मैं जब घर से निकल रहा था, उस लड़की ने अपना राइम्स चिल्लाना शुरू किया था. मुझे खुशी हुई कि आज उसके जगाने से नहीं जगा हूँ. हम दोनो पौने आठ के करीब अस्पताल पहुंचे. मुकेश मुझे ले कर इमरजेंसी वार्ड के चिकित्सक कक्ष में ले गया. डॉक्टर साहब नाईट ड्यूटी से उठे थे. एक लड़का उनका मच्छरदानी निकाल रहा था और वे कंघी से अपना बाल सँवार रहे थे. शायद अब वे घर जा रहे थे. मुकेश ने अपने दैनिक रिपोर्ट के लिए कुछ दरियाफ्त की और फिर उनसे एंटी-रेबीज इन्जेक्सन के बारे में पूछा. वह बोला कि इंजेक्सन अवेलेबल है, आप रोगी को ले आइए. मुकेश बोला कि रोगी को लाना संभव नहीं है, आप हमें एक दे दीजिए. डॉक्टर ने साफ़ मना कर दिया. तब मैंने अपने आयकर विभाग में होने का परिचय दिया और कहा कि चीफ कमिश्नर के रिश्तेदार को जरूरत है. आयकर विभाग के नाम पर डॉक्टर का रूख थोडा बदला. वह कुछ सोचने लगा और फिर कहा कि आप जरा स्टोरकीपर को बुला लाइए. वह कैम्पस में ही किसी क्वार्टर में रहता है. मैंने बाहर गार्ड से पूछा कि स्टोरकीपर का क्वार्टर कौन-सा है. उसने कहा कि स्टोर बाबू से दस बजे के बाद भेंट होगी. मैंने कहा कि आप सिर्फ उनके क्वार्टर का पता बता दीजिए. वह बोला कि क्वार्टर तो यह उनका सामने वाला ही है, लेकिन इस वक्त वे हॉस्पिटल परिसर में ही कहीं दारू पी कर पड़े होंगे. दस बजे तक, जब दवाई बांटने का टाइम होगा, वे आ जाएँगे. मैंने स्टोरकीपर से मिलने का इरादा छोड़ दिया. डॉक्टर ने कहा था अवैलेबल है तो होगा ही. मैंने बॉस को फोन लगा कर कह दिया कि इन्जेक्सन उपलब्ध है. वह बोला – “अजय जी, वे लोग लड़के को लेकर शहर आ रहे हैं. हमें सिर्फ उन्हें अस्पताल ले जाकर लड़के को इंजेक्सन दिलवा देना है. आप बस इतना सुनिश्चित कर लीजिए कि अस्पताल आने पर आसानी से हमारा काम हो जाए. वे लोग दस बजे तक आ जाएँगे. हो सके तो आप भी ऑफिस आ जाइए.” मैं ‘जी, अच्छा’ से ज्यादा कुछ नहीं कह सका. 



साढ़े दस बजे मैं ऑफिस पहुँचा. वे लोग अभी तक नहीं आए थे. बॉस अपने चैम्बर में बैठा अखबार पढ़ रहा था. वह बिलकुल फ्रेश लग रहा था. मुझे देखते ही उसने मजाक किया – “ आइए, अजय जी बैठिए. बताइए, एक कुत्ते ने मुंबई से लेकर बिहार तक पूरे विभाग को परेशान कर के छोड़ दिया.”
“कुत्ते का भी क्या दोष, सर, उसे किसी ने बताया ही न होगा कि जिस लड़के को वह काट रहा है, वह चीफ कमिश्नर के ड्राईवर का लड़का है.” – मुझे भी मजाक सूझा.
“हा, हा, हा,....” – ऑफिस में ऐसे हलके-फुल्के मूड में हम कम ही होते हैं.
हमलोग कुछ देर इधर-उधर की बातें करते रहे. ग्यारह से कुछ ज्यादा हो गया था और वे लोग अभी तक नहीं आए थे. बॉस ने फोन किया तो पता चला कि वे लोग एक घंटे में पहुचेंगे. मैंने देखा कि गुस्से की लकीरें बॉस के चेहरे पर भी उग आई हैं. लेकिन हम कुछ कर नहीं सकते थे, बीच में दो-दो चीफ कमिश्नर जो थे. हमारे पास उनका इन्तजार करने के सिवा कोई दूसरा चारा नहीं था. मुझे मन-ही-मन हँसी आ रही थी कि भारत सरकार का एक तेज तर्रार क्लास वन अधिकारी दो घंटे से एक गंवई लड़के का इंतजार कर रहा है. उसने मेरे मनोभावों को शायद पढ़ लिया था. अकस्मात बोला – “ कल रात जब पहली बार हेडक्वार्टर से फोन आया और मैंने सारी बातें सुनीं तो मुझे बहुत गुस्सा आया. हमलोग डिपार्टमेंट के लिए ईमानदारी से इतनी मेहनत कर रहे हैं. उसकी इज्जत करने के बजाय ये लोग हमें हमारी औकात दिखा रहे हैं. लेकिन फिर मैंने सोचा कि वह ड्राईवर भी तो हमारे डिपार्टमेंट का है, हमारा भाई-बंद है. इतनी मदद तो करनी ही चाहिए, इसमें कुछ नाजायज नहीं, है कि नहीं?” – उसने मेरी सहमति जाननी चाही. मैंने हमेशा की तरह सहमति में सर हिलाया. मुझे याद आया कि मैंने अपनी बेटी को अभी तक वह जरूरी टीका नहीं दिलवाया जो पिछले महीने ही दिलवाना था. दो महीने से अपना सुगर भी टेस्ट नहीं करवाया है. मेरे बॉस को यह फ़िक्र न थी कि बिना छुट्टी के कैसे मैं और मेरा घर चल रहा है. वह हमें कभी अपनी मजबूरियाँ बताने का मौका ही नहीं देता. हमेशा आदर्श बघारा करता है जैसे वह अकेले देश का कायापलट कर देगा. अगर वह ईमानदार न होता तो हम कर्मचारी काफी थे उसकी दुर्गति करने के लिए. आज मुझसे रहा न गया. मैं उसी की जबान में बात करने लगा.


“सर, हम लोग बहुत ही ईमानदारी से दफ्तर का काम करते हैं. छुट्टियाँ तो हम भूल ही गए हैं. लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि यह हमारी अतिरिक्त ईमानदारी हमें अपने परिवार के प्रति और अपने प्रति बेईमान बना देती है?”
“आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं. लेकिन सोचिए, आजादी की लड़ाई में अगर शहीदों ने अपने बारे में या अपने परिवार के बारे में सोचा होता तो अभी हम यह बहस करने की स्थिति में नहीं होते.” – जवाब देने के बाद वह मुस्कुराया.
 उसकी बात सुन कर मुझे लगा कि गुस्से से मेरा माथा फटने वाला है. मैं ही बेवकूफ हूँ जो इस पागल आदमी से बात कर रहा हूँ. जी में आया कह दूँ – “जाइए, आप होइए शहीद. मगर अपने साथ सारी दुनिया को शहीद होने के लिए मत कहिए. मैं नहीं आने वाला आपके पीछे.” लेकिन मैंने कुछ नहीं कहा. मैं जानता था कि यह सब कहने का समय निकल गया है. मुझे शुरू में ही मना कर देना चाहिए था. अब मना करने पर दूसरा अर्थ निकाला जाएगा. और बॉस की नाराजगी कभी महँगी भी पड़ जाती है. बॉस भी मेरी बेचैनी को समझ रहा था. उसने बात बदल दी. अब वह सामयिक घटनाओं पर बात करने लगा. मैं भी थोड़ा नॉर्मल हो गया था और उसकी बातों पर कुछ-कुछ टिप्पणियाँ कर रहा था. हम लोग काफी लंबे समय तक विभिन्न विषयों पर बतिआते रहे. मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि बॉस का ज्ञानक्षेत्र काफी विस्तृत है और हर विषय पर वह अपनी एक सोच रखता है. इस बीच दो घंटे और निकल गए थे, उन लोगों का कोई पता न था. इस बार बॉस ने मुझे उनका नंबर दिया और फोन करने को कहा. बॉस का बार-बार फोन करना उसकी प्रतिष्ठा के अनुकूल था भी नहीं. मैंने जब फोन किया तो उन लोगों ने बताया कि वे जीरो माइल पहुँच गए हैं और एक दुकान पर चाय पी रहे हैं. चाय पीकर वे ऑफिस आ जाएँगे. यह सुनते ही मैं फट पड़ा – “हम लोग यहाँ आपका सुबह से इंतजार कर रहे हैं और आप लोग आराम से बैठ कर चाय पी रहे हैं! आप लोगों ने समझ क्या रखा है! क्या हम आपके बँधुआ मजदूर हैं!” – मैंने डाँट कर फोन रखा. बॉस को मेरा डाँटना बुरा नहीं लगा. मैं जानता था कि भीतर-ही भीतर शर्मिंदगी से वह मरा जा रहा है. वह चुपचाप टेबल पर पेपरवेट नचा रहा था. वातानुकूलित कमरे का वातावरण बोझिल हो गया था. तभी हेडक्वार्टर का फोन आया. बॉस ने सारी बातें बताईं. उधर से निर्देश आया कि किसी तरह इंजेक्सन दिलवा देना है. बॉस ने ‘यस सर’ कहकर फोन रख दिया और मुझसे मुखातिब होकर बोला – “क्या मैं उसे पकड़ कर लाऊँ इंजेक्सन दिलवाने के लिए!” मैं चुप था.
मुझे याद आया कि चलते वक्त पत्नी ने जबरदस्ती टिफिन दे दिया था. मैं तो एक घंटे में आने के लिए कह रहा था, मगर उसे विश्वास था कि मैं ऑफिस गया तो शाम हो ही जाएगी. मुझे इस वक्त उस पर प्यार आया. तीन साल हो गए शादी को, पर मुझे कभी फुर्सत नहीं मिली कि उसे कहीं घुमाने ले जाऊं. उसे बाजार या डॉक्टर के पास ले जाने के लिए बहुत मुश्किल से वक्त निकाल पाता हूँ, वह भी उसके बार-बार कोंचने पर. शुरू में तो मेरे इस समय कि किल्लत को ले कर हम दोनो में झगडे भी हुए, लेकिन बाद में वह समझ गई कि कुछ बदलने वाला नहीं. मेरे अपने शौक भी जाने कहाँ चले गए मुझे पता ही न चला. तीन साल पहले तक मैं हिंदी का एक उभरता हुआ कवि था और एक साहित्यिक पत्रिका के संपादन में भी सहयोग करता था. और अब! कुछ भी नहीं. लंच में स्वाद नहीं आ रहा था. लंच खत्म करने के बाद मैं फिर बॉस के कमरे में आ गया. बॉस संडे को उपवास रखता है. इस वक्त वह अपना कंप्यूटर खोल कर कुछ देख रहा था. मैं थोड़ी देर चुपचाप बैठा रहा. फिर बाहर आ गया और कैम्पस में टहलने लगा. पन्द्रह-बीस मिनट टहलने के बाद मैं फिर बॉस के चैम्बर में आ गया. बॉस ने मुझे फिर फोन लगाने को कहा. इस बार फोन स्विच ऑफ था उनका. हम भौंचक थे. हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था. इस समय पौने तीन बजे थे. हमने तय किया कि हम एक घंटा और इंतजार करेंगे और इसके बाद हेड क्वार्टर को रिपोर्ट कर देंगे कि वे लोग नहीं आए. फिर चुपचाप घर चले जाएँगे.

 
“सालों ने पूरा दिन बर्बाद कर दिया.” – मैं पहली बार बॉस के मुँह से गाली सुन रहा था.
बॉस लंबे समय तक बकबकाता रहा. कभी वह उस ड्राईवर को गरियाता तो कभी अपने अधिकारियों को. मैं चुपचाप सुन रहा था. हमने एक घंटे से ज्यादा ही बिता दिया. बॉस ने आखिरी बार उन्हें फोन लगाया. इस बार फोन किसी महिला ने उठाया. बॉस ने दरियाफ्त कि तो वह महिला बोली कि वह गाँव से बोल रही है और उसके यहाँ मोबाइल चार्ज होने के लिए लगाया गया है. बॉस ने अपना परिचय दिया और कहा कि कृपया, उन लोगो से बात करा दीजिए. बॉस लाइन पर ही था और वह महिला फोन लेकर उन लोगों के पास गई. बॉस ने पूछा तो वह आदमी बोला कि वे लो तो सुबह ही लड़के को लेकर शहर गए हैं और अभी लौटे नहीं हैं. बॉस गुस्से में तिलमिला गया. उसने पुनः अपना परिचय दिया और चिल्ला कर बोला – “क्या आप लोग मुझसे मजाक कर रहे हैं? अगर वे लोग शहर से लौटे नहीं हैं तो यह मोबाइल कैसे आपके पास आ गया? सच-सच बताइए वर्ना परिणाम बहुत बुरा होगा.” उस आदमी ने किसी दूसरे को फोन दे दिया. दूसरा बोला – “ सर हम शहर आए थे, मगर आपके पास नहीं गए. हमारे एक रिश्तेदार एस.पी. ऑफिस में काम करते हैं. हमने उनकी मदद से इंजेक्सन दिलवा दिया”
“आपने हमें बताया क्यों नहीं? हम प्रतीक्षा करते रह गए आपकी.”
“गलती हो गई, सर”
“आइन्दा ऐसी गलती मत कीजिएगा, वरना कोई आपकी मदद नहीं करेगा.”
 बॉस ने जब मुझे यह सब बताया तो मुझे विश्वास नहीं हुआ. मैं बोला – “सर यह सब झूठ है. वे हमें बेवकूफ बना रहे थे. मुझे लगता है कि वे शहर आए ही नहीं थे क्योंकि जब मैंने फोन किया था तो उन्होंने कहा कि वे एक चाय की दुकान पर हैं, पर वैसी कोई आवाज नहीं आ रही थी वहाँ. जीरो माइल पर जो चाय की दुकान है, वहाँ तो बहुत भीड़ होती है. मैं उस समय उनके न आने की कल्पना ही नही कर पाया.”
-    “लेकिन उन्होंने हमसे झूठ क्यों कहा??”
-    “यही तो मैं भी नहीं समझ पा रहा हूँ, लेकिन हमें पता करना चाहिए.”
-    “तो चलिए, गाड़ी है ही, उनके गाँव चलते हैं”
-    “सर, हम पहले ही इतना समय बर्बाद कर चुके हैं, क्या और समय बर्बाद करना ठीक होगा? इससे अच्छा यह है कि हम उस ड्राईवर से ही सीधे बात करते हैं.”
-    “लेकिन उसका नंबर तो है नहीं मेरे पास. मैं एक बार फिर उन लोगों के पास फोन करता हूँ और उन्हीं से उसका नंबर लेता हूँ.”
बॉस ने फिर फोन किया. ड्राईवर का नंबर हमें मिल गया. ड्राईवर को फोन मैंने किया और अपना परिचय देने के बाद बोला – “ड्राईवर साहब सच-सच बताइए, क्या आपके लड़के को सच में कुत्ते ने काटा है?” वह चुप हो गया. मैंने चीखते हुए कहा – “बताइए सच क्या है?” वह बोला – “सच यह है साहब कि मेरे लड़के को कुत्ते ने नहीं काटा है. मुझे दो दिनों की छुट्टी चाहिए थी और दरख्वास्त में अपनी अन्य समस्याओं के साथ यह भी लिख दिया था.” मेरा पारा सातवें आसमान पर था – “क्या आपको पता है कि आपके इस झूठ के कारण मैं और मेरे साहब दिन भर बेवकूफों कि तरह आपके लड़के का इंतज़ार करते रहें. हमारी छोडिए, अपनी साहब की तो सोचिए कि वे कितने चिंतित थे कि उन्होंने पटना में हमारे चीफ कमिश्नर को फोन किया और आपके लड़के के लिए सब इंतजाम करवाया.” 
-“सर, आप लोगों को जो दिक्कत हुई, उसके लिए मुझे अफ़सोस है. रही बात मेरे अधिकारी की तो आपको बता दूँ कि गाँव पर मेरी थोड़ी सी जमीन है जिसपर पटीदारों द्वारा विवाद खड़ा कर दिया गया है. मुझे दो दिनों की छुट्टी चाहिए थी कि घर आकर मामले को समझ सकूं. मैं सुबह भिनसार से देर रात तक ड्यूटी करता हूँ. सुबह पांच बजे से ही मेरी ड्यूटी शुरू हो जाती है. साहब को लेकर जॉगर्स पार्क ले जाता हूँ. साहब जोग्गिंग करते हैं और मैं पीछे-पीछे टॉवेल और बिसलेरी की बोतल लेकर दौड़ता हूँ. फिर दिन भर ऑफिस में रहता हूँ. साहब देर रात तक पार्टियों में रहते हैं. मैं बाहर उनका इन्तजार करता हूँ. दो दिनों की छुट्टी के लिए मुझे ऐसा बहाना करना पड़ा और छुट्टी देने के बजाय उन्होंने मेरा सच जानने के लिए इतना बड़ा स्वांग रच दिया.”
मैंने चुपचाप कॉल काट दिया.
-    “उसके लड़के को कुत्ते ने नहीं काटा है न?” – बॉस ने पूछा.
मैं चिल्ला पड़ा - “काटा है सर, उसके लड़के को कुत्ते ने काटा है. कल मुझे और आपको भी काटेगा. यह अलग नस्ल का कुत्ता है. एंटी रेबीज से काम नहीं चलेगा.”
बॉस मेरा मुँह ताक रहा था.


सम्पर्क -
सम्प्रति – सह-संपादक, जनपथ
द्वारा- श्री सुरेन्द्र मोहन लाल
नेहरु नगर, महावीर मंदिर के पास, 
आरा-802301
मोबाईल - 09955209528, 

ई-मेल - reach2sunil@rediffmail.com
(सुनील श्रीवास्तव आरा से प्रकाशित होने वाली प्रतिष्ठित पत्रिका जनपथ सह-संपादक हैं)

(इस कहानी में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)  





टिप्पणियाँ

  1. अब तक सुनील ने अपनी कविताओं प्रभावित किया करते थे, इस बार एक बेहतरीन कहानी से चौंका दिया हैं. बहुत ही सूक्ष्म अन्वेषण से सुनील ने यथार्थ की संरचना को देखने की कोशिश की है. एक बेहतरीन रचना. बहुत बहुत बधाई.

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  2. samkaleen yathrth se bharpur he kahani. pahlee kahani hone per bhe majboot kahan he. badhi . Manisha jain

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  3. sunil ji ki rachna rojmara ki jindgi ka hisa ka rup mai jo hum jita hai. grass lavel pa expression to lajab hai ha.ek sundar rachna ki surawat hai.hamari subhkamna ki ya prayas nirantar jari rahaga..................

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  4. बहुत ही अच्छी कहानी है।आज के हालात को उजागर करती है।
    कल मुझे और आपको भी कटेगा। यह अलग नस्ल का कुत्ता है एंटी रेबीज़ से काम नहीं चलेगा।
    बधाई हो आपको। शाहनाज़ इमरानी

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