वन्दना शुक्ला के उपन्यास ‘मगहर की सुबह’ का एक अंश




वन्दना शुक्ला ने थोड़े ही समय में कहानीकार के रूप में अपनी पहचान बना ली है। जीवन की उष्मा से भरी हुई उनकी कहानियाँ सहज ही हमारा ध्यान आकृष्ट करती रही हैं। आधार प्रकाशन से वन्दना का पहला उपन्यास ‘मगहर की सुबह’ आने वाला है। इस उपन्यास में भी ग्रामीण और कस्बाई जीवन के रंग अपनी पूरी आभा के साथ मौजूद हैं। इसी उपन्यास का एक अंश आपके लिए प्रस्तुत है।       

उपन्यास अंश 
                  

मगहर की सुबह


इस गांव में एक सरकारी विद्यालय हुआ करता थामिसिर जी की प्राथमिक शिक्षा दीक्षा इसी सरकारी विद्यालय में संपन्न हुईजाड़ों और गर्मियों के मौसम में कक्षाएं खुले मैदान में पेड़ों के नीचे या धूप में लगा करतीं धूप जो सीधी और कभी घूम फिर के नीम, बरगद, पीपल, कचनार, झडबेरी आदि पेड़ों के झुरमुट में से रास्ता बनाती हुई पत्तों के सायों को ओढ कर पेड़ों के नीचे बिछ जाती थी चार छः भद्रंग छोटे कमरे जिनके ऊपर एक जंग खाई लोहे की टीन पर उतना ही मैला कुचैला ‘’डा डी टोला ऊ. मा (उच्चतर माध्यमिक) विद्यालय ‘’लिखा था कमरे प्रायः बंद ही रहते कमरों में टाट पट्टियां अलबत्ता पक्तिबद्ध सुगढ़ता से बिछीं, कोने में एक मिट्टी का घडा जिसका पानी कमरा खुलने पर ही बदला जाता था और कमरे की छत पर लटकता वो सौ वाट का लट्टू भी जो अँधेरे में अलसाया ऊंघता सा लटका रहता और किवाड़ खुलने का ही मोहताज़ था जैसे ही द्वार खुलता काला खटका दब जाता और लट्टू ऑंखें झप झपाता हुआ जल उठता दीवार में जड़े एक श्यामपट पर गणित का कोई सवाल किया रहता ये कमरा किसी ऑडिट इन्स्पेक्टर के आने की खबर के साथ ही खुलता और पहन ओढ साफ़ सुथरा और आबाद हो जाताशेष दो तीन कमरे भी प्रायः बंद रहते और बारिश या किसी अन्य आपदा के वक़्त बरते जाते जिनमे से एक कमरा प्राचार्य जी का था जो गजोधर पांडे ही थे



सामने एक बड़ा मैदान था जो विद्यालय क्षेत्र में ही आता था बुजुर्ग और घनेरे पेड़ों से भरापूरास्कूल बाउंड्री की टूटी फूटी पलस्तर उधड़ी दीवारें देखकर लगता जैसे पुरातत्व विभाग की कोई खोजी खुदाई चल रही हो विद्यालय में प्रवेश व निकास के लिए यद्यपि एक लोहे के पौराणिक टूटे गेट वाला सांकेतिक द्वार था जिसके अधबने खम्बे पर नीले अक्षरों में ‘’प्रवेश द्वार’’ लिखा था लेकिन विद्यार्थी उन खंडहर दीवारों को कूद फांद कर आना ही पसंद करतेसांकेतिक प्रवेश द्वार, विद्यार्थियों के लिए अनुपयोगी होने के बावजूद अन्यान्य प्रयोगों में आताजैसे बहुधा छात्रों की उन माओं के जो यदा कदा चली आतीं चलती कक्षाओं के बीच में ‘बेटे को सेर भर सक्कर’ जैसी कोई चीज़ लेने बाज़ार भेजनेएक भंगी जात का बनोरी जो स्कूल में साफ़ सफाई के लिए नियुक्त था, अन्य कामों के अलावा उन चौपायों के गोबर उठा कर भी ले जाता था जो इसी ‘’प्रवेश द्वार’’ से आ कर स्कूल क्षेत्र के मैदान में मौसम के हिसाब से कभी धूप कभी पेड़ों की छांह के नीचे बिंदास बैठे पगुराते रहते यूँ तो विद्यालय की ध्वस्त ऊबड़ खाबड़ चौहद्दी की टूटी दीवारों पर काले टेढ़े मेढे अक्षरों में “यहाँ पिसाब करबे की सख्त मनाही है’’ लिखा हुआ था जिस पर निर्भयता और धृष्टता से राहगीर मूतते हुए दिखाई देतेकभी कभी संझा को कोई दारूखोर भूला भटका उन टूटी दीवारों की उघरी ईंटों पर आकर बैठ जाता और झूमता रहता निष्कर्ष के तौर पर कह सकते हैं कि विद्यालय की वो ‘’दयनीय’’ चौहद्दी गरीब की जोरू सी थी जिस पर जो चाहे जैसा चाहे सुलूक करने को आज़ाद था। 
   

छात्र अपना अपना ‘’बिठौना’’ घर से लेकर आते और उन ‘खुली कक्षाओं’’ में बैठे धूप के हिसाब से उन्हें इधर उधर खिसकाते रहतेछोटी कक्षाओं को लक्खूराम मास्टर पढाते जिनका समय सुबह सात से दस तक होता और बड़ी कक्षाओं को गजोधर उर्फ गज्जू मास्साब इनका समय दस से चार होताउक्त विद्यालय का टोटल स्टाफ यही था प्रधान अध्यापक, अध्यापक, लिपिक और चपरासी भी सब वहीनीम के घने पेड़ पर लटकी पीतल की थाली जैसी ठोस घंटी भी उन दौनों ‘मास्साबों’’ में से कोई एक बजा देता था धूप की ‘’चढन” के हिसाब से(कालांतर में जैसे जैसे आसपास का कोई शहर टहलता हुआ खेतों के रस्ते गांव में घुस जायेगा तब सिर्फ रस्सी लटकती रह जायेगी) खैर, बात हो रही थी गजोधर मास्साब कीगज्जू मासाब ‘’भय बिनु प्रीत ना होय’’ के प्रबल समर्थक यानी हद्द दर्जे के अनुशासन प्रिय मास्टर, लिहाजा स्कूल में प्रार्थना संपन्न होते ही वो सब सीनियर छात्रों को पंक्तिबद्ध खड़ा कर के उन की हथेली पर बिना किसी गलती के एक एक संटी जड़ते जो वो घर से आते बखत तालाब के बगल की कनेर से तोड़ कर अपनी सायकिल के केरियर में फंसा कर लाते(पाठकों को बता दें कि उन उजड्डों की गद्लियाँ लाल करना कनेर की हरी संटी के बस की ही बात थी) और फिर पढ़ाई शुरू होतीइस ‘’आयोजन” में कक्षा की शर्मीली छात्राएं मुहं छिपा कर खिल खिल करती रहतींछात्रों को अब प्रार्थना के पश्चात इस नियम की आदत हो गयी थी लिहाजा वो भी कक्षा में आते ही हाथ आगे करके खड़े हो जाते और मुस्कुराते रहते पर गजोधर मास्साब की त्योरियां हमेशा चढी रहतीं, उनके चेहरे पर हंसी एक ही बार नमूदार होती थी (ये ‘’वयस्क छात्र’’ भली प्रकार जानते थे) जब सुरेंदर सिंह की गोरी चिट्टी भरी पूरी अम्मा माथे तक ‘पर्दा’ किये कभी कभी चौदहवीं के चाँद की तरह अवतरित होतीं विद्यालय में, बेटे को रुमाल या छूटी हुई पेन-पेन्सिल देने के बहाने तब उनके सामने ना जाने क्यूँ मास्साब की रिरियाहट छूट जाती पर ये छोटी-मोटी कमजोरी उनकी दबंगियायी में आड़े नहीं आ पाती थी


गजोधर मास्साब वैसे पढ़ाते तो तल्लीनता से थे समझाने से ज्यादा रटाने में उनका भरोसा थाविद्यार्थियों को गणित के सवालों के उत्तर तक रटा डालते हांलाकि छात्रों का तो भला ही होता लेकिन इसके पीछे एक पोल थी उनकी या कह लो कमजोरी वो ये कि उन्हें बीडी की ज़बरदस्त लत थी लेकिन थे नैतिकतावादी और सभ्य... बच्चों के सामने बीडी पीना बुरा समझतेनीम के घने पेड़ के नीचे लकड़ी की छोटी मेज पर तने से टिके ब्लैक बोर्ड पर वो छात्रों को लघुत्तम महत्तम या औसत के सवाल निकालने को दे देते या फिर हिन्दी के पीरियड में महात्मा गांधी या गाय पर निबंध लिखकर छात्रों को उसकी नक़ल करने को दे खुद ब्लेक बोर्ड के पीछे कुर्सी डाल छात्रों से पीठ किये बीडी फूंकते रहतेपीरियड तब तक खिंचता रहता जब तक बीडी फुंक नहीं जातीबीडी खत्म होने से पहले यदि कोई बच्चा चिल्लाता ‘’मास्साब हे गओ” तो मास्साब खीझ कर कहते ‘’दस बेर लिखो जाए” ...और बच्चे लिखते रहते शैतान बच्चे मेज के पायों में झुक कर ब्लेक बोर्ड के नीचे से झांक कर देखते और कहते ‘’कौआ बीडी फूंक रा है।“ और मुँह पर हाथ रख कर खूब खी खी करके हँसते ‘’बोर्ड पीछे’’ उन्हें कौआ कहा जाता था नीम के पेड़ पर बैठे कई कौओं की शक्ल छात्रों को मास्साब से मिलती थीइस चमत्कार पर ध्यानाकर्षण का श्रेय मिसिर जी को ही जाता था, मिसिर जी उन शैतान बच्चों के द्रोणाचार्य थेस्कूल तो दसवीं तक था पर गाँव के ज्यादातर लड़के सात आठ कक्षा तक पढ़ने के बाद खेती गृहस्थी संभाल लेते और लड़कियां ससुराल की हो जातींगांव में ऐसी भी लडकियां थीं जो स्कूल का मुहं नहीं देख पाती थीं उन्हें पढाने की ज़रूरत नहीं समझी जाती थी क्यूँकि उन्हें पराया होना होता था और चौका बासन, कंडे थापना, झाडू बुहारू जैसे ‘’धंधों’’ के लिए  साक्षरता की ज़रूरत नहीं थीदसवीं से आगे पढ़ना हो तो निकटवर्ती कसबे रामपुर के स्कूल में भरती होना होता थापढ़ाई जारी रखने वाली लड़कियों की अधिकतम शिक्षा भी दसवीं तक ही हो पाती थी उसके पहले ही उनके लिए वर की खोज प्रारम्भ हो जाती और दसवीं होते ही वो दूसरे घर की हो जातींजो फेल हो जातीं दसवीं कक्षा में तो उनकी क्वालिफिकेशन मेट्रिक फेल कही जाती जिसे वर पक्ष दसवीं पास के समतुल्य ग्रहण करता


समय ने पलटी खाई....गांव हाट बाजारों का दायरा बढ़ने लगा और पूरा बाजार विश्वव्यापी मंडी में तब्दील होने का दौर शुरू हुआ एक अनोखी चमक-दमक, रंगीनियों और सपनों से भरा बाज़ार जहाँ इच्छाओं की खेती होनी थीअचानक “अन्नदाता” ‘’गांव की हरियाली, खाद्यान, रीति रिवाज, वार त्यौहार, सब बेरौनक प्रतीत होने लगे मानो साफ़ चमकती धूप में किसी ने मुठ्ठी भर सिंदूरी शाम भुरक दी हो इस धुंधलाहट में जो सबसे अधिक बैचेनी और उकताहट महसूस कर रहा था वो था ग्रामीण युवा वर्ग 


उधर, देश में खेतिहर हाथ कम और खाने वाले मुहं ज्यादा होने लगे, लोभ अन्याय बेईमानी का वर्चस्व होने लगा ‘’पढ़े लिखे चतुर’’ बढ़ रहे थे और सीधे साधे मेहनती किसान ठगा सा महसूस करने लगे थे लिहाज़ा खेती किसानी में उचित सरकारी मूल्य निर्धारण ना होने या थोक खरीद व्यापारी द्वारा उचित मूल्य ना मिल पाने का मलाल और मौसम की मार जैसी विपदा से व्यथित हो कुछ दूरदर्शी व प्रगतिशील किसानों ने अपने लड़कों को नौकरी की गरज़ से निकटवर्ती रामपुर में आगे पढ़ने भेजना शुरू कर दिया थागांव के वो दो चार बच्चे शहर के स्कूल कॉलेज से गाँव लौटते बखत अपने खीसे में शहर के फैशन, सोच, सपने भी भर लाते और उसे गाँव की नई रोप के आसपास छिडक देते देखते ही देखते बच्चों की एक ऐसी नस्ल तैयार हो गई जिसने शहरों का रुख करने का मन बना लिया जिनमे मिसिर जी भी एक थेमिसिर जी ने दसवीं की परीक्षा दी थीउनकी योजना अगले बरस रामपुर के इंटर कालेज में एडमीशन लेने की थी मिसिर जी को शहर लुभाते थे अब सिनेमा की दीवानगी भी धीरे धीरे बढ़ रही थी उनकीइधर मिसिर जी शहरों, बड़ी पक्की सड़कों, शानदार घरों, सिनेमाओ, सिनेमा की हीरोइनों के सपने देखने लगे और उधर उनके सयाने बाप दादा उनकी अधूरी नींद को तोड़ने का उपाय खोजने लगे। हांलाकि मिसिर जी अपने दादा और पिता के रौब दाब व योजनाओं से बखूबी परिचित थे पर उन्हें अपनी जिद्द और धमकियों पर भी कम भरोसा नहीं था


तब बड़े बुजुर्ग ना सिर्फ रोबीले बल्कि सयाने भी होते थे बच्चों की नज़र ‘’टिकने’’’ के पहले वो उनके कंधे पर गृहस्थी टिका देतेसीधे साधे लड़के ‘’ब्याह के लिए’’ हुए इस रिश्ते को प्रेम जैसा कुछ मान कर अपना वंश वर्धन करते रहते वहीं कुछ असंतुष्ट नौजवान ब्याह के बाद ‘’जाने कहाँ गए वो दिन’’ या ‘’चाहूँगा मै तुझे सांझ सवेरे” जैसे उदासी से लथपथ सिनेमाई गीत खेत में ट्रेक्टर चलाते, घर के कुन्नों, दीवारों की ओट में सुबकते गाते फिरतेपर मिसिर जी इन दोनों प्रकारों से अलग थे अनोखे


गांव में एक मात्र सिनेमा घर जिसकी बदरंग ज़र्ज़र दीवारों ने अब तो गिनना भी छोड़ दिया था कि उन्होंने कितनी और कैसी-कैसी बारिशें झेलीं कितने बगलगीर घने पेड़ों ने उन की छतों पर अपनी पुरानी पत्तियां झाड़ी कितनी झड़ीदार बारिशों के पानी को उसकी छतों की बंद मोरियों ने उधड़े फर्श को पिला दियाअब तो उनकी सूरत ऐसी हो गई थी मानों दीवारों पर गाँव डाडीटोला का इतिहास लिखा हो ...दुःख भरा इतिहास। हांलाकि उस पौराणिक सिनेमाघर का नाम उसके मालिक स्वर्गीय सेठ सुन्दरलाल के नाम पर “सुन्दर सिनेमा हाल’’ था जिसका ‘सुं’ बारिश में धुल गया था उसकी जगह किसी ने ‘बं’ लिख दिया था अब उसके ऊपर ‘’बंदर सिनेमा हाल’’ लिखा था और उसका प्रचलित और लोकप्रिय नाम ‘’बंदर’ हो गया थाकल बंदर में ‘देबदास’ फिलिम देखी क्या भेरंट फिलिम थी गुरु मजा आ गया’’ नौजवानों में ऐसी चर्चाएं सहज ओर आम होतीं जो लड़के शहर के विद्यालयों में नहीं जा पाते वो शहर में पढ़ने वाले गांव के बच्चों से वहां की रंगीनियाँ, फिल्मों के किस्से, हीरों हीरोइनों की देह-गाथाएं आदि उनकी मुँह  जबानी रस ले लेकर सुनते और सुनकर बैचेन हो हो जाते स्कूल से पीरियड गोल करके या आधी छुट्टी में पनवाड़ी शम्भु चौरसिया की दूकान जो ‘बंदर’ सिनेमाघर की दीवार से सटी हुई थी में ‘’लौट कर सिगरेट खरीदने का लालच दे कर ‘’अपना बस्ता दूकान पर खोखे के नीचे पटक चुपचाप घुस जाते ‘’बंदर’’ मेंउस सिनेमा घर में सात आठ साल पुरानी रोमांटिक और कभी कभी मारधाड वाली फ़िल्में लगतीं देवानंद और युसूफ भाई उर्फ दिलीप कुमार की फिल्मों में हाउसफुल होतालकड़ी की प्राचीनकालीन आधे टूटे हुए हत्थों और दरारों वाली कुर्सियों जिनमे उनकी हाफ पेंट में से भी कुर्सी ‘’काट‘’ लेती थी पता नहीं चलता था कि जिसने खाल खींची वो कुर्सी की दरार थी या खटमलों की कारिस्तानी ...पर ‘’देवानंद और उनकी हीरोइनों ‘के आगे सब क़ुबूल ‘बंदर’ में एक विशेष सुविधा थी जो शहरी टॉकीज़ में भी नहीं थी जब कोई गाना या डायलोग किसी दर्शक को पसंद आ जाता तो ‘’अबे रोक” ’वो वहीं से चिल्लाता या जाकर ‘’मशीन’’ चलाने वाले से रिवाइंड करवाता बाज बखत कई गाने कई बार रिवाइंड होते






सम्पर्क

ई-मेल: shuklavandana46@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. इस अंश को पढ़कर बेहतरीन लेखन की झलक मिली ------अच्छा महसूस हुआ -----ग्रामीण एवं कस्बाई जीवन का प्रभावशाली चित्रण करता प्रतीत होता है वन्दना शुक्ला का उपन्यास ''मगहर की सुबह'' ---वंदना शुक्ला और सन्तोष चतुर्वेदी को इस ब्लॉग पोस्ट के लिए साधुवाद

    जवाब देंहटाएं
  2. इस अंश को पढ़कर बेहतरीन लेखन की झलक मिली ------अच्छा महसूस हुआ -----ग्रामीण एवं कस्बाई जीवन का प्रभावशाली चित्रण करता प्रतीत होता है वन्दना शुक्ला का उपन्यास ''मगहर की सुबह'' ---वंदना शुक्ला और सन्तोष चतुर्वेदी को इस ब्लॉग पोस्ट के लिए साधुवाद

    जवाब देंहटाएं
  3. maghar ki subah-ka yah ansh padhane ke bad mujhe o maghar ka purana kazipur mohalle ki praimari pathshala ki yad aane lagi.achha laga.

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'