योगिता यादव की कहानी क्लीन चिट



साम्प्रदायिक दंगे अपने साथ तमाम मुसीबतें ले कर आते हैं। इसकी सबसे अधिक मार स्त्रियाँ सहती हैं १९८४ के सिक्ख दंगे इसकी मिसाल हैं। इसी को आधार बना कर योगिता ने क्लीनचिट कहानी लिखी है जो दंगे के बाद के मुसीबतों को करीने से हमारे सामने रखती हैकहानी की नायिका दरअसल सिमरन कौर की माँ हैदंगे के दौरान सिमरन के पिता की हत्या कर दी जाती है। इसके बाद किस तरह तमाम मुसीबतों का सामना करते हुए सिमरन की माँ अपने दोनों बच्चियों को पालती-पोसती और बड़ा करती है, इसी कथ्य को आधार बना कर लिखी गयी यह कहानी इसलिए भी असाधारण बन जाती है कि यह उस स्त्री की संघर्ष-गाथा को रेखांकित करती है जिसकी कमजोरी का फायदा न केवल असामाजिक तत्व बल्कि घर-परिवार वाले भी उठाने से नहीं चूकते। तो आइए पढ़ते हैं योगिता की यह कहानी जो उनके नवीनतम कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी है 
        
क्लीन चिट

योगिता यादव


बंगला साहिब गुरुद्वारे में मत्था टेक कर सरोवर किनारे बैठना सिमरन कौर को इतनी शांति देता था कि घर-गृहस्थी और ऑफिस की महीने भर की थकान उतर जाया करती। इसलिए हर महीने के आखिरी ऐंतवार को वह इस गुरुद्वारे में मत्था टेकने जरूर आया करती। मम्मी और छोटी बहन के साथ ऐंतवार की कई पिकनिक उसने इसी सरोवर के किनारे मनाईं थीं। फिर स्कूल और कॉलेज बंक करके सहेलियों के साथ घूमने के लिए भी यही जगह उसे पसंद आती थी। लंगर का प्रशादा, सरोवर का पानी और ढेर सारी मस्ती।

सिमरत सिंह जब बैंगलोर से पहली बार दिल्ली आया, तो पहली-पहली डेट भी इसी सरोवर के किनारे पर थी।

मत्था टेक कर कड़ाह प्रसाद खाया और बचा हुआ घी दोनों हथेलियों पर मलते हुए सिमरन कौर सरोवर किनारे चल पड़ी। बरामदे में छांव देख कर वह वहीं चौकड़ी मार कर बैठ गई। चिनॉन के महीन दुपट्टे से सिर और माथे को ढांपते हुए दोनों कानों के पीछे से घुमा कर कंधे के चारों और लपेट लिया। सिर का पिछला हिस्सा दीवार से सटा कर मुंह ऊपर किए वह कुछ देर निश्चिंत भाव से आंखें मूंदे बैठी रही। लाउडस्पीकर पर हल्की सुरीली आवाज आ रही थी....''मेरे गोबिंद अपना नाम दियो....।‘’

            वह तीन साल की ही तो थी जब ताई जी की चिकचिक से तंग आ कर डैडी जी ने दिल्ली आने का मन बनाया था। खेत, ट्रेक्टर, कूलर सब था पर मां के लिए चैन नहीं था। डैडी जी भी चाहते थे कि पटियाले की पढ़ी-लिखी लड़की होशियारपुर की भैंसों और खेतों को पानी पिलाने में ही न खप जाए इसलिए उन्होंने अपना तबादला दिल्ली करवा लिया। दिल्ली आते ही ऑफिस और मकान देखने के बाद सबसे पहले मम्मी और डैडी जी इसी गुरुद्वारे में आए थे शुक्राना अदा करने। मम्मी-डैडी नन्हीं सिमरन को समझाने लगे थे, ''सुख वेले शुक्रानादुख वेले अरदासहर वेले सिमरन।‘’ इस बात का पूरा मतलब समझे बिना ही वह खुश हो गई थी कि उसके मम्मी जी डैडी जी हर वेले उसका नाम लेने की बात कर रहे हैं। मम्मी डैडी दिल्ली आ कर सचमुच खुश थे और मैं भी। तभी भगवान ने एक साल में ही हमारे घर में एक नया मेहमान भेज दिया। इस नए मेहमान के आने पर भी हम यहीं आए थे मत्था टेकने। फिर गुरुद्वारे में ही उसका नाम रखा गया मनु, मनजोत कौर। 

मनजोत कौर के आते ही घर की खुशियों में चार चांद लग गए। डैडी जी हर रोज शाम को कुछ न कुछ ले कर घर लौटते और फिर रात को खाना खाने के बाद मनजोत कौर को बाबा गाड़ी में लिटा कर हम सब सैर को निकल पड़ते....।

मेरे चौथे जन्मदिन पर मम्मी ने मेरे लिया नया फ्रॉक सिआ और डैडी जी नीले रंग का बस्ता ले कर आए थे। अगले दिन पास के स्कूल में जा कर मेरा नाम लिखवाया गया और नीले रंग के बस्ते में ढेर सारी रंग-बिरंगी किताबें आ गईं थीं। मनु और नीले बस्ते ने कितने रंग भर दिए थे मेरी दुनिया में। उस बार गर्मियों की छुट्टियों में हम सब होशियारपुर गए। हमारे ठाठ-बाट देख कर सब हैरान थे। जिन ताई जी से तंग आ कर हम दिल्ली आए थे उन्होंने भी मम्मी को गले लगा कर कितना अपनापन दिखाया था। मनजोत कौर को देख कर भी सब खुश थे, ताई जी ने इतना जरूर कहा था 'कौर बड़ी हो गईं अगली बारी सिंह लेकर आना। सारा माहौल देख कर लगता था कि हमारे दिल्ली जाने से हम ही नहीं वे सब भी बहुत खुश हैं।

होशियारपुर से विदा ले कर हम फिर से दिल्ली की भागदौड़ भरी जिंदगी में लौट आए थे। नीले बस्ते के रंग दिनों दिन बढ़ते जा रहे थे। नई कविता सुनाने पर मम्मी खूब शाबाशी देती। फिर घर में आने वाले हर नए व्यक्ति के सामने वही कविता दोहराने को कहतीं। उनकी खुशियां और मेरी शाबाशियां बढ़ती जा रहीं थीं...। पर लोग कह रहे थे कि ऐसा कुछ हुआ है जिस पर ऊपर वाला दोषियों को कभी माफ नहीं करेगा। इसी माहौल में मोहल्ले की सारी आंटियों ने गुरद्वारे जा कर अरदास की। गुरद्वारे में ललकार भरी आवाज में सिंह सूरमाओं का आह्वान किया गया। डैडी जी को हालांकि इन सब बातों से ज्यादा कुछ लेना-देना नहीं था फिर भी मम्मी के कहने पर उन्होंने भी केसरिया पगड़ी पहनी।

            ....फिर न जाने रात में या दिन में ऐसा क्या हो गया कि केसरिया पगड़ी वाले अपनी जान बचा कर भागने लगे। पर आफत सिर्फ केसरिया पर ही नहीं तमाम पगडिय़ों पर आ चुकी थी। डैडी जी जब अगले दिन ऑफिस जाने के लिए निकले तो मम्मी ने उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की। दिन भर मम्मी हम दोनों बहनों को सीने से सटा कर रोती रहीं....।

और फिर शाम को.... डैडी जी नहीं लौटे।
हम पर कोई और आफत न आ जाए इसके लिए मकान मालिक अंकल जी ने दहशत भरी हिदायत दी थी, ''भाभी जी कुछ भी हो जाए आप दरवाजे की चटखनी मत खोलना। सारी बत्तियां बुझा दो और छोटी को खांसी की दवा पिला कर सुला दो। ये रोएगी तो लोगों को पता चल जाएगा कि अंदर कोई है।‘’

सारी रात चीख-पुकार मची रही।
सुबह को टेलीविजन पर लाशों के ढेर दिखाए जा रहे थे। तस्वीरों के बाद शिनाख्ती के लिए फोन नंबर दिए जा रहे थे। पगड़ी खुला, केश बिखरा, झुलसाया हुआ हर चेहरा मुझे डैडी जी जैसा लग रहा था। लाशों के पास ही उनके हाथ का सामान बिखरा पड़ा था। मां की सिसकियां नहीं टूट रहीं थीं। मकान मालिक आंटी उन्हें पानी पिलाने की कोशिश कर रही थी और अंकल जी शिनाख्ती के लिए पुलिस स्टेशन गए थे। इस बार शाम को डैडी जी लौटे! खाली हाथ.! सरकारी गाड़ी में!, सफेद कपड़े में लिपटे हुए!

मेरा मन कर रहा था कि मैं कहूं,  ''गुडिय़ा चाहें न लाना पर पापा जल्दी घर आना....’’ सुनते ही डैडी जी उठ कर मुझे गले से लगा लेंगे । पर वे नहीं उठे और मम्मी बिलख कर उनसे लिपट गई। नन्हीं सी मनु को मैंने अपनी गोदी में छुपा लिया।

डैडी जी जा चुके थे, उनके साथ हमारे घर का मुखिया, कमाने वाला इकलौता शख्स, नीले बस्ते और मां की चुन्नियों के गहरे सारे रंग चले गए। हालात ऐसे नहीं थे कि हम होशियारपुर जा सकते और वहां से कोई यहां आने वाला भी नहीं था। दुख के उस माहौल में अचानक मकान मालिक अंकल और आंटी बहुत अच्छे हो गए थे। खराब हालात में भी वह कहीं न कहीं से मनु के लिए दूध ले आते। टोफियां दे कर मुझे भी खुश करने की कोशिश करते रहते और मां को हिम्मत न हारने का दिलासा देते।

दिल्ली के हालात सुधरने लगे थे पर हमारे घर के अभी भी वैसे ही थे। मम्मी छोटी को गोद में लिए रोज दफ्तरों के चक्कर काटती। चूडिय़ों और गहनों से सुंदर सी दिखने वाली मम्मी जी अब वैसी सुंदर नहीं रह गई थी, एक दिन उन्हें डैडी जी की जगह नौकरी जरूर मिल जाएगीइसके इंतजार में एक-एक कर उनके सब गहने बिकने लगे थे। 

नौकरी मिलती इससे पहले ही अंकल जी ने बताया कि दिल्ली सरकार विधवाओं के लिए कॉलोनी बना रही है। हमें भी डैडी जी के कागज-पत्तर दिखा कर मकान मिल सकता है। 

मम्मी जी की भागदौड़ रंग लाई और उन्हें सरकारी स्कूल में नौकरी मिल गई। स्कूल सुबह का था, मनजोत अभी छोटी थी, मम्मी मुझे भी पढ़ाना चाहती थी, सब कुछ एक साथ होना मुश्किल हो रहा था। इस बार आंटी जी ने मम्मी की हिम्मत बढ़ाई और कहा ''भैन जी आप जाओ स्कूल, मैं संभाल लूंगी छोटी को’’। पर मम्मी और ज्यादा दिन उन पर बोझ नहीं बनना चाहती थी।

'मास्टरों के बीच में अकेली मास्टरनी, सबने मना किया पर मम्मी ने अर्जी दे ही दी और दोपहर बाद के लड़कों के स्कूल में अपनी ड्यूटी लगवा ली। स्कूल के स्टाफ में मम्मी का आना जवान विधवा के प्रति सहानुभूति से शुरू हुआ फिर धीरे-धीरे वहां से विधवा खत्म होकर सिर्फ जवान रह गया। न चाहते हुए भी मम्मी ने अपने आप को इस माहौल में ढाल ही लिया था।

एक महीने बाद मम्मी को तनख्वाह मिली और उन्होंने डेढ़ साल बाद एक बार फिर से अंकल जी के मकान का किराया दिया। इस एक साल में मम्मी कभी आंटी जी के सूट, कभी परदे, कभी तकियों के कवर सिल कर उनका बोझ कम करने की कोशिश किया करती। मम्मी के अपने सारे सूट पुराने और ढीले हो चुके थे पर पटियाले की पढ़ी-लिखी लड़की को अब सूटों की नहीं हम दोनों बहनों के भविष्य की चिंता थी।

            विधवाओं की कॉलोनी में भी मकान मुफ्त मिलने वाले नहीं थे। यह सोच कर मम्मी ने एक-एक पैसा जोडऩा शुरु कर दिया। शाम को मिलने वाले तोहफे, संडे की पिकनिक, रात की सैर डैडी जी के साथ ही चले गए थे। अब मैं उतनी नादान भी नहीं थी कि कुछ न समझ सकूं। मैं और बड़ी होना चाहती थी ताकि मम्मी की परेशानियों को बांट सकूं। पर मम्मी मुझे और मनजोत को खूब पढ़ाना चाहतीं थीं।

मैं पांचवी में हो गई थी और मनजोत ने भी स्कूल जाना शुरू कर दिया था। हमारे अधूरे परिवार में खुशियां सचमुच लौट आईं जब विधवाओं की उस कॉलोनी में हमें सस्ता सा मकान मिल गया। मम्मी की पांच साल की तपस्या रंग लाई। हमने अपने मकान में कदम रखा। कितने सालों बाद हमारे घर की कड़ाही ने पंजीरी की मिठास चखी। घर में सामान के नाम पर सब कुछ पुराना हो चुका था, कुछ नया ले कर दिखाना भी किसे था, इस नई कॉलोनी में सब हमारी ही बिरादरी के परिवार थे। सफेद चुन्नियों वाली मम्मी और बिना डैडी जी वाले परिवार।

हर साल एक दिन ऐसा भी आता जब सारी सफेद चुन्नियों वाली मम्मियां कॉलोनी के बीचों बीच बने स्मारक पर मोमबत्तियां जलातीं और ऊपर वाले से गुनाहगारों को कभी न बख्शने की अपील करतीं। जिंदगी धीरे-धीरे ढर्रे पर लौटने लगी थी। मनजोत पढऩे में मुझसे भी ज्यादा होशियार हो गई थी। दोनों बहनों के पास होने पर मम्मी हम दोनों बहनों को यहीं बंगला साहिब गुरुद्वारे में मत्था टिकवाने लाती। लंगर के बाद सरोवर किनारे बैठ कर छोटी-छोटी मछलियां देखना हमारे बचपन में रोमांच भर देता। फिर मम्मी खुश हो कर हम दोनों बहनों को लोहे के नए कड़े दिलवाती।

हमारी खुशियों में अब पटियाले और होशियारपुर के रिश्तेदार भी कभी-कभी शामिल हो जाया करते। फिर मम्मी को याद दिलाते कि अच्छा होता अगर मनजोत की जगह मेरा छोटा बीर आया होता, कम से कम घर में एक मर्द तो होता। आगे बच्चियों की शादियां भी करनी हैं। और फिर आखरी वक्त मे ..... मम्मी आस भरी नजरों से हम दोनों बहनों की तरफ देखती और हमें सीने से लगा लेती। उस वक्त मम्मी की सांसों में सरोवर की शांति महसूस होती।

12वीं के बाद नजदीक के कॉलेज में ही मैंने दाखिला ले लिया। मम्मी की मेहनत ने दिन फेर लिए थे। घर का एक-एक सामान मम्मी ने अलग-अलग बाजारों से खूब मोल भाव के बाद खरीदा था। घर के कोने-कोने में मम्मी की हर महीने की कोई न कोई बचत दिखाई देती। यही हाल हम दोनों बहनों की अलमारी का था। सिर की पिन से लेकर पांव की चप्पल तक सब पर मम्मी की मुहर। कोई हमें विधवा की बेटियां कह कर सहानुभूति दिखाए ये मम्मी को बिल्कुल पसंद नहीं था। इसलिए हमारा स्टैंडर्ड अब अकसर दूसरों से अच्छा ही हुआ करता था।

उस साल होशियारपुर गए थे ताई जी की बेटी की शादी में। तब बारातियों में से एक था सिमरत सिंह। शादी में खूब मजा आया। पहले पहल खुशी इस बात की हुई कि हम दोनों का नाम लगभग एक जैसा था। बैंगलोर में इंजीनियरिंग कर रहा था सिमरत। टेलीफोन नंबर मांगा तो मुझसे इनकार न हुआ। और दिल्ली लौटते ही घर पर उसके फोन आने शुरू हो गए। मुझे लगने लगा कि अब मैं सचमुच बड़ी हो गई हूं। कॉलेज की सहेलियों के साथ मिल कर सिमरत के लिए आए दिन कोई न कोई कार्ड खरीदने का बहाना ढूंढती। 


मैंने मम्मी को इतनी मेहनत और हम दोनों बहनों से इतना प्यार करते देखा था कि उनकी जगह कोई और ले ही नहीं सकता था। मम्मी का विश्वास तोडऩे का तो सवाल ही नहीं उठता था, इसलिए मैंने हिम्मत करके सिमरत के बारे में मम्मी को बताया। इस बार जब उसका फोन आया तो मम्मी ने भी सिमरत से बात की और दोनों को पहले अपनी पढ़ाई पूरी करने की सलाह दी फिर आशीर्वाद दिया कि हम दोनों हमेशा खुश रहें। 

अंकल जी के समझाने के बाद से आज तक हम रात को दरवाजे की चटखनी अच्छी तरह बंद करके ही सोते थे पर मुसीबतें न जाने किस खिड़की से हमारे घर का रास्ता ढूंढ ही लेती।

आधी रात को अचानक मम्मी की तबियत बहुत खराब हो गई। रात को ही अंकल जी को फोन किया और एंबुलेंस में डाल कर मम्मी को हॉस्पिटल लेकर गए। डॉक्टर ने बताया मम्मी का बीपी बहुत बड़ गया है उन्हें आराम की सख्त जरूरत है। लेकिन उससे भी बड़ी बात यह थी कि मम्मी को कैंसर हो गया था।

मेरे पांव तले से जमीन खिसक गई। अभी-अभी तो हमने खुश होना शुरू किया था। कैंसर की आखिरी स्टेज थी मम्मी हमारे पास छह महीने से ज्यादा की मेहमान नहीं थी। डॉक्टर उन्हें हॉस्पिटल में रख कर कुछ और टेस्ट करवाना चाहते थे पर मम्मी घर लौटना चाहती थी। वे इन छह महीनों में भी स्कूल जा कर हम दोनों बहनों के लिए कुछ और पैसा छोड़ जाना चाहती थीं। अब मम्मी एक दिन में कई दिनों का काम निपटाने की जल्दी में रहती। बैंक की पास बुक, मकान के कागज, घर में रखी नकदी सबके बारे में मम्मी मुझे कई-कई बार समझाने लगी थी। और मनजोत के बारे में भी। मनजोत और इस घर को लेकर मैं मम्मी की पहली और आखरी आस थी। मम्मी ने खास हिदायत दी कि हम मम्मी की बीमारी के बारे में किसी को कुछ न बताएं, होशियारपुर वालों को तो बिल्कुल भी नहीं।

सब कुछ जानते हुए भी मैं मम्मी को दोनों वक्त टाइम पर दवा खिलाती और सोचती एक-एक गोली अगर एक-एक दिन भी बढ़ा दे तो बहुत है। मम्मी मेरा अठारहवां जन्मदिन धूमधाम से मनाना चाहती थी। मम्मी ने मेरे लिए सोने की दो चूडिय़ां बनवाईं और मनजोत के लिए बालियां। शायद मनजोत के जन्म दिन तक मम्मी ठहर नहीं सकती थी। मेरी और मनजोत की सब सहेलियों और दोस्तों को मम्मी ने घर पर बुलाया। केक कटवाया और अपने हाथ से खाना बना कर सबको खिलाया। यह मेरी जिंदगी का सबसे यादगार जन्म दिन था। सिमरत का फोन आया और मम्मी ने हम दोनों को एक बार फिर से आशीर्वाद दिया। मम्मी को सिमरत पसंद है इसकी घोषणा मम्मी ने मेरी सारी सहेलियों के सामने की। अगले दिन जब कॉलेज लौटी तो सभी ने कहा, भगवान ऐसी मम्मी सभी को दे। इस बार मुझसे रहा नहीं गया और मैंने अपनी सहेलियों को मम्मी की बीमारी के बारे में बता दिया। पहली बार मैंने मम्मी का विश्वास तोड़ कर घर की कोई बात बाहर वालों को बताई थी।

शायद इसी की सजा मुझे मिली और मम्मी पांचवें महीने में ही जबरदस्त बीमार हो गई। अब मम्मी ने खुद ही अंकल जी, आंटी जी, होशियारपुर और पटियाले फोन करने को कहा। अगले ही दिन हमारे छोटे से घर में दोस्तों और रिश्तेदारों का हुजूम उमड़ पड़ा। और इसी हुजूम के बीच मम्मी मनजोत का हाथ मेरे हाथ में थमा कर चुप हो गई। इस घर के कोने-कोने से जिसने डैडी जी का खालीपन दूर किया था आज वो भी इस घर से हमेशा के लिए दूर चली गई।

इतनी भीड़ के बीच हम दोनों बहनें बिल्कुल अकेली हो गईं। ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने हमारे जिस्म से कपड़े उतार कर हमें नंगा कर दिया हो। हमारे पांव की जमीन, सिर के ऊपर का आसमान सब एक ही झटके में उजड़ गया।

संस्कार से लौटते ही लोगों ने पूछा, ''अब आगे क्या करना है?’’ आगे क्या करना है, मुझे लगा जैसे किसी ने एनेस्थीसिया दे दिया हो और मैं बेहोश हो गई।

होश आया तो मैं बिस्तर पर थी और मनजोत मेरे सिराहने बैठी मेरे होश में आने का इंतजार कर रही थी। तब तक ये फैसला हो चुका था कि मामी जी का कोई रिश्तेदार है इंगलैंड में। उम्र थोड़ी ज्यादा है पर खाता-कमाता अच्छा है। इतना बड़ा घर है फिर भी मामी जी उसे राजी कर ही लेंगी मुझसे शादी करने के लिए। वे लोग कुछ नहीं मांगेंगे पर शादी के लिए खर्चा तो चाहिए ही न, इसके लिए अंकल जी को कहा गया कोई अच्छा सा ग्राहक बुला कर मकान का सौदा करवाने के लिए। और मनजोज.... मनजोत को अमृतसर हॉस्टल में डाल देंगे। अच्छा हॉस्टल है, पढ़ाई भी करेगी और रहेगी भी। जब मैं इंगलैंड में सेटल हो जाऊंगी तो मैं भी उसे वहीं बुला लूंगी नहीं तो होशियारपुर तो है ही। कभी-कभी छुट्टियों में वहां चली जाया करेगी।

मेरी नन्हीं सी मनजोत, मनु जिसका हाथ मम्मी मेरे हाथ में सौंप कर गई है वो ऐसे दर-दर की ठोकरें खाएगी और हमारी मम्मी की आखरी निशानी ये घर, इसके भी सौदे की तैयारी.... मैंने साफ इनकार कर दिया.... कुछ भी हो जाए मेरी बहन सिर्फ मेरे पास रहेगी और अपने जीते जी हम दोनों बहनें अपनी मम्मी जी की आखरी निशानी को बिकने नहीं देंगे।

सभी को अपने-अपने घर में जरूरी काम थे, सो हमें सोचने के लिए कह कर वे सभी अपने-अपने घर चले गए। जाते-जाते कह गए बड़ी निर्भाग हैं दोनों। पहले डैडी, फिर मम्मी और ऊपर वाले ने एक बीर दिया होता तो संभाल लेता दोनों को।

ऊपर वाले शायद अंकल जी और आंटी जी को हमारे लिए ही बनाया था। हमारे सिर पर उन्हीं दोनों हाथ था पर कितनी देर तक। अंकल जी और मम्मी के स्कूल से आए कुछ लोगों ने समझाया कि मैं मम्मी की जगह नौकरी के लिए कोशिश करूं। पर अभी तो मेरा ग्रेजुएशन का दूसरा ही साल था। पर घर में जो तूफान आया था उसके देखे मेरा पढ़ाई का मसला बहुत छोटा था।

मनजोत ने फोन करके सिमरत को सब कुछ बता दिया। वो बिचारा भी क्या करता, पढ़ाई कर रहा था, जब तक घर से पैसे नहीं मिल जाते तब तक ट्रेन की टिकट भी नहीं करवा सकता था और फिर बैंगलोर से दिल्ली पहुंचने में भी तो वक्त लगता।

सिमरत से पहले ही मामी जी अपने उस रिश्तेदार की तस्वीर और उसकी मां को ले कर हमारे घर पहुंच गई। मामी जी फूली नहीं समा रहीं थीं यह बताते हुए कि वो मुझे चुन्नी चढ़ाने आईं हैं। मेरा दिमाग घूमने लगा मामी जी के साथ आई उस औरत ने मिठाई के डिब्बे के ऊपर कुछ पैेसे रख कर मेरे हाथ में पकड़ा दिए। मेरा वश चलता तो यही डिब्बा उठा कर उसके सिर में दे मारती और दोनों घर से बाहर निकाल देती। पर अनाथ बच्चियां किसके सहारे नाराजगी दिखाएं। मकान का सौदा अभी पटा नहीं था इसलिए दोनों अगले महीने आने की बात कह कर चली गईं। अब मुझसे रहा नहीं गया। मैंने सिमरत को फोन करके जल्द से जल्द कोई फैसला लेने को कहा।

सिमरत ने सिर्फ इतना कहा कि कुछ भी हो जाए तुम दोनों बहनें एक साथ रहना और अपना घर छोड़ कर कहीं नहीं जाना। मैं अपने हाथ मजबूत करना चाहती थी। इसलिए नौकरी के लिए कोशिश करना शुरू कर दिया।

एक हफ्ते बाद सिमरत सिंह हमारे घर पर था। उसके पहली बार गले लग कर मैं खूब रोई। एक महीने के बचाए हुए आंसू सब उसी पर उड़ेल दिए। मैं और मनजोत दोनों के लिए सिमरत आखिरी सहारा था। तब तक मामी जी का फोन आ गया। इंगलैंड वाला लड़का परसों आ रहा है रिंग सेरेमनी के लिए। सिमरत ने फैसला किया हम कल ही शादी कर लेंगे। मैंने अपनी सहेलियों को साथ लिया और सब हिम्मत कर के अगले दिन सुबह-सुबह आर्य समाज मंदिर पहुंच गए। न चूड़ा, न चुन्नी शादी क्या की, ऐसा लगा कोई जंग लड़ी है, बॉन्ड साईन किया, तस्वीर खिंचवाई और अपने घर लौट आए।

सिमरत ने आज की रात गुरुद्वारे में ही बिताई। ज्यादा पैसे न उसके पास थे न मेरे। पढ़ाई भी अभी हम दोनों की अधूरी थी। अगली सुबह मामी जी के आने से पहले ही मैं कॉलेज के लिए निकल आई। एजुकेशन के दफ्तर जाकर नौकरी की अर्जी कहां तक पहुंची इसका भी पता करना था। सिमरत भी इस शहर में नया-नया था उसका भी ख्याल मुझे ही रखना था। सहेलियों ने इस दौरान बहुत साथ दिया। शादी के बाद पहले दिन, पहली बार हम दोनों ने एक साथ इसी गुरुद्वारे में मत्था टेका। सरोवर किनारे बैठ कर एक-दूसरे का हालचाल पूछा। सिमरत ने शादी के तोहफे के तौर पर मेरे लिए ग्रीटिंग कार्ड खरीदा था। सिमरत ने फैसला किया कि अब वह बैंगलोर वापस नहीं जाएगा और यही रह कर कोई नौकरी करेगा।

देर शाम घर लौटी तो मामी जी का चेहरा तमतमाया हुआ था। इंगलैंड वाला लड़का तीन चार घंटे इंतजार करने के बाद अपने किसी रिश्तेदार के यहां चला गया था। मामी जी और वो लड़का शादी के लिए कमर कस कर आए थे। अब बचना मुश्किल लग रहा था। मैंने बैंक की पासबुक, घर के कागजात इकट्ठे किए और अगली सुबह फिर कॉलेज के लिए निकल गई। मनजोत ने घर पर रहना ठीक समझा। जब तक हम दोनों को कोई अच्छी नौकरी नहीं मिल जाती। मामी जी के रहते घर में क्या-क्या हो रहा है यह बताने वाला भी तो कोई होना चाहिए था। यह सोच कर मैं भी मान गई।

उस रात से मेरा ठिकाना भी गुरद्वारा ही था। मेरे घर न लौटने पर सबसे पहले शक सहेलियों पर ही जाएगा यह सोच कर किसी के घर ठहरने की बजाए मैंने भी गुरद्वारे में ही रहना ठीक समझा और सिमरत तो वहां था ही। शादी के बाद भी बस एक दूरी थी, तीन रातें उसने मर्दाना हॉल में और मैंने जनाना हॉल में बिताईं। तब तक मैंने किराए का एक कमरा ढूंढ लिया था।

घर पर फोन किया तो पता चला कि मामी जी ने ताई जी को भी होशियारपुर से यहां बुला लिया है और छातियां पीटी जा रही हैं कि मां की आग ठंडी भी नहीं हुई थी और लड़की घर से भाग गई। दोनों ने मिल कर पूरे घर की तलाशी ली, जब कुछ नहीं मिला तो बैंक का खाता सील करवाने की भी कोशिश की। मैं तो चली पर मेरी नन्हीं मनू उन के ताने सुनने के लिए अकेली रह गई थी। अब वे एक पल के लिए भी मनजोत को चैन से नहीं बैठने देती थीं।

किसी तरह उन्होंने हमारे ठिकाने का पता लगा ही लिया। ताई जी क्योंकि सिमरत के घर वालों को जानती थीं इसलिए उन्होंने उन्हें भी फोन करके दिल्ली बुलवा लिया। सबने मिल कर हमारे नए घरौंदे पर डेरा डाल दिया। चारों तरफ से गालियां पड़ रहीं थीं। सभी हम दोनों को अलग करना चाहते थे पर हम तो शादी कर चुके थे। इस पर मामी जी ने कहा भी, ''दो चार दिन ही तो साथ रहे हो, फिर क्या हो गया हम किसी को नहीं बताएंगे चलो बड़ों के आगे माफी मांग लो।‘’ अपने मम्मी जी-डैडी जी को देख कर सिमरत पिघल गया। घंटो रोता रहा पर हिम्मत नहीं हारी। मैंने जब पुलिस को बुलाने की धमकी दी तब जाकर सब वहां से उठे। जाते-जाते सिमरत की मम्मी जी कह ही गए, ''जादूगरनी है, मेरे भोले-भाले बेटे पर जादू कर दिया है।‘’

इस बार मामी जी और ताई जी घर से निकले तो मनजोत भी घर को ताला मार कर वहां से भाग खड़ी हुई। बड़ा ढंूढा तब पता चला कि वो अपनी एक सहेली के घर पर है। अब हर रोज कोई न कोई हमें समझाने हमारे घर आ धमकता। यह सब देखकर पड़ोसियों ने भी हमें शक की निगाह से देखना शुरू कर दिया है। मैंने नए मकान की तलाश शुरू कर दी। मनजोत को बुलाया और सिमरत के साथ जो भी थोड़ा सा सामान था चुपके से नए मकान में चले गए। मकान मालिक को जो तीन महीने का एडवांस दिया था उस पर भी बात नहीं की।

मनजोत के घर को ताला मारने के बाद से ही मामी जी ने पटियाले की और ताई जी  ने होशियारपुर की गाड़ी पकड़ ली। सिमरत के मम्मी जी-डैडी जी भी थक हारकर अपने घर लौट गए।

खुशियां कितनी देर हमसे रूठी रहतीं। सिमरत को गाडिय़ों पर बार कोडिंग करने वाली एक कंपनी में नौकरी मिल गई थी और अच्छा यह हुआ कि कुछ दिनों बाद मेरी भी नौकरी का लेटर आ गया। अब हमें किसी का डर नहीं था, हम अपने घर लौटे, अपने असली घर, मम्मी जी की आखरी निशानी के पास। आज रविवार था मनजोत ने मेरे हाथों में लाल चूड़ा चढ़ाया और हम चल पड़े बंगला साहिब गुरुरद्वारे शुक्राना अदा करने। हमारी जिंदगी में लाली लौट आई थी। शादी के कई महीनों बाद मैं और सिमरत पहली बार एक बिस्तर पर आए।

            जिंदगी ने सब कुछ दिया, सुख भी और दुख भी। मनजोत डॉक्टर बन गई। सिमरत ने बड़ी सादगी से अपने एक इंजीनियर दोस्त से उसकी शादी करवाई। मेरी और सिमरत की नन्हीं कंवल कौर भी अब स्कूल जाने लगी है। सबसे ज्यादा खुशी की बात यह कि मां की निशानी अब भी सलामत है....।

            वक्त काफी बीत चुका था। सिमरन ने पर्स उठाया, सरोवर की परिक्रमा की और मत्था टेक कर घर के लिए निकल पड़ी। घर पहुंची तो देखा कॉलोनी के स्मारक पर लोगों का हुजूम उमड़ा हुआ है। इसी मोहल्ले की मम्मी की कुछ पुरानी सहेलियां आज फिर से छाती पीट-पीट कर हाय-हाय के नारे लगा रहीं हैं और कह रहीं हैं कि ऊपर वाले गुनाहगारों को कभी बख्शेगा नहीं है। एक अखबार जो सब पढ़ रहे हैं उस पर छपा है ''84 के दंगों में दो और को क्लीन चिट।‘’






सम्पर्क-

Yogita yadav

911, subhash nagar

jammu – (j&k)



ई-मेल: yyvidyarthi@yahoo.co.in

(कहानी में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है)

टिप्पणियाँ

  1. योगिता जी की कहानी बहुत मार्मिक है, ये संयोग ही है कि कल शाम ही एक मित्र से इस कहानी को पढ़ने के विषय में अपनी इच्छा का जिक्र किया और आज सुबह देखा तो यह सामने थी....योगिता जी को बधाई और संतोष जी का शुक्रिया

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  2. bahut bahut aabhar anju sharma ji

    Regards
    Yogita

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