रवीन्द्र के दास की कविताएँ



रवीन्द्र के दास
जन्म तिथि: 28-4-1968
शिक्षा: पीएच. डी
संप्रति: अध्यापन 
प्रकाशन: 'जब उठ जाता हूँ सतह से'[कविता-संकलन]
'सुनो समय जो कहता है' [संपादन, कविता संकलन]
'सुनो मेघ तुम' [मेघदूत का हिंदी काव्य रूपांतरण] और
'शंकराचार्य का समाज दर्शन'
जयपुर से निकलने वाली साहित्यिक मासिक पत्रिका उत्पल  के लिएसब्दहि सबद भया उजियारा” नाम से कविता आलोचना विषय पर कॉलम लेखन.   
पत्रिकाओं आदि में कतिपय प्रकाशन. 
 आत्म-कथ्य
मैं मानता हूँ कि  सर्जनात्मक प्रतिक्रिया को कला कहते हैं. सत्य आदर्श है, जिसे हम चाहते हैं... जिसका मूर्त रूप हम देखना चाहते है, पर वह हमें कभी दीखता नहीं। हमें जब दीखता है तो मात्र तथ्य दिखता है... यानि हमारा साक्षात्कार हमेशा तथ्य से होता है। तथ्य क्या है? तथ्य और कुछ नहीं, बल्कि वास्तविकता है। सत्य हमें प्रिय है और तथ्य हमारी विवशता है। सत्य को नहीं छोड़ते, प्रेम के कारण ....और तथ्य हमें नहीं छोड़ता। इन दोनों में अनवरत एक संघर्ष चलता रहता है... एक द्वंद्व मचा रहता है। इस द्वंद्व का, इस संघर्ष का अधिष्ठान कहाँ होता है. जहाँ ये युद्ध होते हैंवह स्थान है, हमारा मन, अंतःकरण. व्यक्ति मन जब अपने आसपास की वास्तविकता से, अपनी यथार्थ परिस्थितियों से,  असहमत होता है, इसलिए असंतुष्ट होता है तो वह प्रतिक्रिया करता है. प्रतिक्रिया में वह विद्रोह कर बैठता है। इन प्रतिक्रियाओं में, लेकिन, एक सिसृक्षा भी अंतर्व्याप्त रहती है। इस कोटि की प्रतिक्रिया सहज प्रतिक्रिया नहीं होती, जैसाकि मच्छर काटने पर व्यक्ति करता है, बल्कि यह एक विशेष प्रकार की सर्जनात्मक प्रतिक्रिया होती है। इसी सर्जनात्मक प्रतिक्रिया को कला कहते हैं। कला प्रतिक्रिया है, इससे असहमत नहीं हुआ जा सकता। लेकिन प्रतिक्रियाओं की कतिपय सरणियाँ हैं- सहज और सुनियोजित। सुनियोजित प्रतिक्रिया की भी दो कोटियाँ हैं- सर्जनात्मक और विध्वंसात्मक। विध्वंसात्मक सुनियोजित प्रतिक्रिया ही षड़यंत्र कहलाती है और सर्जनात्मक कला । इन्हें सर्जनात्मक और विध्वंसात्मक होना इस बात पर निर्भर करता है कि इनका उद्देश्य क्या है किन्तु सुनियोजित प्रतिक्रियाएं... हमारे आस-पास की वास्तविकता और हमारे अन्दर के मूल्य बोध के परस्पर द्वंद्व से उत्पन्न होती हैं...और ये प्रतिक्रियाएं अनिवार्य हैं, इन्हें रोका भी नहीं जा सकता।

कविता रचकर हम मुक्त नहीं, प्रत्युत उदात्त हो जाते हैं, व्याप्त हो जाते है बहुमनःस्थ हो जाते हैं. यह मेरी दृष्टि में सृष्टि-मुक्ति है, आत्म का पुनःसृजन है.

रवीन्द्र कुमार दास

कहने को तो भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है लेकिन इस लोकतन्त्र की असलियत कुछ और ही है. कवि रवीन्द्र इसकी जब पड़ताल करते हैं तो पाते हैं कि लोकतन्त्र की यह असल तस्वीर नहीं अपितु हताश जनतन्त्र की तस्वीर है. यहाँ सिर्फ और सिर्फ कुछ सरकारी आश्वासन और कुछ वादे ही हैं, जिन्हें कभी पूरा नहीं होना है. विकास और समुन्नत जीवन सिर्फ दिवास्वप्न बन कर रह गए हैं इस जनतान्त्रिक प्रणाली में. कुछ इसी अंदाज की कविताओं के साथ हम आज रु-ब-रु हैं रवीन्द्र के दास की कविताओं से. तो आइए पहली बार पर आज पढ़ते हैं रवीन्द्र के दास की कुछ नयी कविताएँ.


रवीन्द्र के. दास की कविताएँ  

महानगर की ओर जाता हुआ छोटा एक देहाती लड़का

महानगर की ओर जाता हुआ छोटा एक देहाती लडका
चला जा रहा है अपनी इच्छा और उत्साह के साथ
कि जैसे, महान संगीतज्ञ की उच्च श्रेणी की कोई संगीत रचना
मंद्र स्वर में व्याप्त हो रहा हो अखिल ब्रह्माण्ड में ...
ऐसा नहीं कि जिसे छोड कर आया है पीछे, वह
भूख, लाचारी अशिक्षा या बीमारी हो

सामान्य सी बात है कि शून्य में नहीं
उपजता संगीत
फिर भी संगीत सुनना, संगीत समझना और संगीत बनाना
गहरे तौर पर भिन्न स्थितियाँ हैं
प्राकृतिक रूप से देखें तो
संगीत और लोकतंत्र तक तो सबकी पहुँच है
सब की इच्छाओं में शामिल है साम्य की संवेदनाएँ
किन्तु जब कोई सूत्रधार नचाता है रस्सी में लपेट कर
सहज ही नाचने लगता है लट्टू की तरह गोल-गोल
वहीं का वहीं, जस का तस
और हाँफ़ते हुए अपने कारनामों के बखान से
करता है अपने पडोसियों को त्रस्त
राजपथों पर बेवज़ह मत निकालो जुलूस
मत करो नाहक अवरुद्ध यातायात को
जाने दो उस छोटे से देहाती लड़के को महानगर
होने दो महान संगीत की रचना
और रखो धैर्य
यह उच्च श्रेणी का संगीत अंततः जनतंत्र के पक्ष में होगा ..


यह हताश जनतंत्र का एक चित्र है

सडक पे उतरे लोग
क्रुद्ध है
वे इंसाफ़ चाहते हैं
एक प्रेमी युगल की स्त्री के साथ
नृशंस सामूहिक बलात्कार
और पुरुष के साथ क्रूर अत्याचार का
आगे आए सरकार
और करे त्वरित कार्रवाई

सरकार में भरे पडे हैं घाघ
उन्हें आदत है ऐसे प्रदर्शनों की
सो हर बार थकाती है सरकार
उत्तेजित भीड को
निढाल होने तक ..

इसी बीच में आ जाते हैं
कुछ धर्मनेता .. कुछ ब्लैकमेलर
इस उत्तेजित भीड को
रंग देते हैं एक नए रंग से
नए रंग चिढाती है पुलिस को
पुलिस दिखाती है अपनी औकात

क्रुद्ध भीड का एजेंडा बदल जाता है
सरकार लेती है साँस
थकी और निढाल जन समूह को
कुछ सरकारी आश्वासन, कुछ वादे

यह ध्यान देने योग्य है
सडक पर उतर कर भी लोग
सरकार से सिर्फ़ वादे ही पाते है
यह जनतंत्र का एक हताश चित्र है
जनता का चित्र
बहुत धुंधला होता है जिसमें



हम ऐसे निश्शंक समय में जी रहे हैं

हम ऐसे निश्शंक समय में जी रहे हैं
जहाँ पण्यवस्तु की गुणवत्ता का सम्बन्ध 
बनियों की साख से नहीं
रैपर पर छपे नाम से है
दुकान चाहे सुंघनी साहु का हो चाहे पंडित अलोपीदीन की

नहीं करनी पडती है दुकानदारों को चिरौरी
कि माल बढिया है बाऊ जी
नहीं करना होता है मोलभाव ग्राहकों को
इस निश्शंक समय में
तय है सबकुछ होना
होने से पहले
पिछडे हुए कुछ लोग फिर भी
महानगरों में ही चलाते हैं हाथ पैर
कि बदल देंगे दिशा
जो तय हो चुका उसकी भी

नारद के कपि मुख वाले अभिमान से
इन्दुमती की वरमाला
अपने गले में न पडने से क्रुद्ध कोई
भले ही करे
समय को श्राप देने की गलती
किन्तु मानव सृजित होकर भी वह नियति
छूट चुकी है मानव की पकड से

ठहरो जरा मानव!
भाग कर कहाँ जा सकते हो
अकेले तुम्ही नहीं हो प्रतिभावन
अपितु हो चुके पण्यवस्तु
किसी डिब्बे में बंद
हो चुके अपनी कीमतों में तय

कोई फ़र्क नहीं कि खडे कहाँ हो ..

अगर इस युद्ध के बाद बच गया

अगर इस युद्ध के बाद बच गया
तो तुम्हें सुनाऊँगा प्यार से सराबोर एक गीत
आज मैं घिर गया हूँ
सभ्यताओं के दलदल में
संस्कृतियों की चकाचौंध में
तब तक तुम कोशिश करते रहो मुस्कुराने की
गो कि सिसकने से कुछ नहीं बदलता
तुम्हारा मुस्कुराना ही सबसे बडा प्रतिकार है
आततायियों के




 तुम्हारी दारुण मृत्यु के बाद

तुम्हारी दारुण मृत्यु के बाद
हम विषण्ण थे, दुःखी थे
मोमबत्तियोँ जला रहे थे, कविताएँ लिख रहे थे
हम संवेदनशील लोग हैं
हम सभी किसी 'उसको' खोज रहे थे
जिस पर तुम्हारे साथ हुए
दानवी कृत्य के लिए जिम्मेदारी दे सकें
यह हमारी नैतिक जिम्मेदारी थी

हम कौन थे
और कौन है वे
इस असंबद्ध समीकरण पर हम कुछ नहीं बोलेंगे
हम उसे मनुष्य नहीं कहेंगे
उसे दरिंदा या राक्षस या ऐसा ही कुछ कहेंगे

किन्तु सच तो यह था
कि वे 'दरिंदा या राक्षस' कहे जाने वाले भी मनुष्य थे
हमारे ही आसपास खडे थे
पर उनसे हमारे संबन्ध का होना
ऐसा सच है
जिससे हम लगातार मुँह छिपाते रहेंगे
तुम्हारी दारुण मृत्यु के बाद

तुम्हारी दारुण मृत्यु के बाद
हम विषण्ण थे, दुःखी थे
मोमबत्तियोँ जला रहे थे, कविताएँ लिख रहे थे
दरअसल हम सच से मुँह छिपा रहे थे

चिड़िया जब पंख पसारने लगी

सुन्दर चिड़िया जब
अपने पंख पसारने लगी
तो उसे अपना कुनबा अलग बसाना पड़ा 
यह कोई वैमनस्य नहीं,
सनातन प्रबंधन है

चिड़िया को बहेलिया भी मिलेगा
और दाना डालने वाला भी
माँ कहाँ तक उड़ेगी साथ
कि न जाने कब कह दे चिड़िया
आज़ादी तो मुझे भी चाहिए न माँ!
अपना आकाश कि जहाँ आजमाऊँ ख़ुद को
स्वाभाविक है चिड़िया की इच्छा

आकाश बहुत बड़ा था
पहले बहुत भाया था आकाश का खुलापन
कि जी भर उड़ेगी
अपने वर्षों के संजोए सपने पूरे करेगी
नदी का पानी पिएगी
फलों में चोंच मारेगी
फुनगियों पर झूला करेगी
चहक उठी थी वह सुन्दर चिड़िया

देखी भोगी माँ ने समझाना तो चाहा था
पर ये सोच चुप लगा गई
जो अरमान रहे थे मेरे अधूरे
उन्हें पूरा करने से क्यों रोकूँ मैं

कई दिनों तक निहारता रहा था बाज़ सरदार
चिड़िया की आज़ाद ख्याली को
सराहा भी इधर उधर
कि ज़माना बदल गया है अब
सबको मिलना चाहिए अपना आकाश

आज जब वो मरी पड़ी थी नुचे पंख
सब ने अफ़सोस जताया
कि यह तो अन्याय है
कब तक चिड़ियों के पंख नोच उसे मारा जाता रहेगा
बाज़ सरदार की ज़िम्मेदारी है
उसे उन आततायियों को सज़ा दिलवानी होगी
आततायियों को सज़ा दिलवानी होगी


मैं बचना चाहता हूँ इस बात से कि प्रेम भी एक मांग है

मैं बचना चाहता हूँ इस बात से कि प्रेम भी एक मांग है
वैसे ही जैसे रोज़गार
मैं पुरुष हूँ
नैसर्गिक परिपक्वता से संपन्न हूँ
सामाजिक अतिभाषायी अर्थों में जिनके प्रति योग्य हूँ
प्रेम दृष्टि से निहारता हूँ
सामने होती है स्त्री यौवन संपन्न
आँखों में राग, साँसों में उष्णता और हृदय में अहसास
जब तक कि, छू पाऊँ
निगल जाता है काल उसके हृदय को
कुन्द कर देता है मेरी बुद्धि को
उसकी बुद्धि प्रखर हो जाती है और मेरा हृदय विह्वल

यह कोई एक बार की घटना नहीं
बिस्तर पर पडी डायरी के कई पन्ने
रह जाते हैं कोरे
यूँ कि समा नहीं पातीं घटनाएँ अक्षरों में
और उसके बाद
कई दिनों तक जकडे रहती है लगातार
स्थिति जान कर मित्रों ने कई ठिकाने बताए
कि सौ दो सौ जाएंगे
पर मिलेगा अनवरोध प्रेम
मन भी बनाया कि चल पडूँ
कर आऊँ जरूरत पूरी
मगर नहीं उठे कदम
और समझाना पडा जी को
कि प्रेम मांग नहीं, अभिलाषा है

लेकिन किसी संपन्न व्यक्ति ने रख लिया है
मेरी प्रेयसी को!


हमें पसंद हैं बेहद

हमें पसंद हैं बेहद
बेकिनारा नदियाँ
टूटती चारदीवारियाँ
हमें बेहद पसंद है
हम समझाते है
वाज़िबन उकसाते हैं
गो कि हम
आज़ादीपसन्द लोग हैं
हमें पसंद हैं
बहकी हुई नदी भी
दिखती हैं खूबसूरत .


उस सभ्यता में नदियाँ
 

उस सभ्यता में नदियाँ
अक्सर अपना रास्ता बदल लेती थीं
नदियों के रास्ता बदल लेने से
नदियों के द्वारा
स्वयं रास्ता चुनने का अनुमान संभव है
किन्तु नदियों के रास्ता बदलने से
वीरान हो जाते थे बडे बडे क्षेत्र
पर इतिहासकारों ने
कभी नदियों को जिम्मेदार नहीं ठहराया
दीगर बात यह थी कि इतिहासकार
नदियों को जिम्मेदार होने योग्य मानते न थे
ऐसा न था
कि सभी इतिहासकार पुरुष थे
पर इतिहास-दृष्टि पर पुरुषवादी रवैये का दबदबा था

नदियाँ कई पीढियों तक आनन्दमग्न थीं
जो इन्हें सभ्यता के विघटन का
अथवा सांस्कृतिक पतन का उत्तरदायी नहीं माना जाता था
......
आज, अभी कुछ नदियों ने आत्ममंथन किया
और उन्होंने तय पाया कि जिम्मेदारी न लेना
उपेक्षित होने का सबब है
आओ! हम सब जिम्मेदारियाँ मानें भी, मांगें भी


अनुपस्थित आँखों वाले शब्द

अनुपस्थित आँखों वाले शब्द
तुम्हारे शब्दों से जब
अनुपस्थित हो चली थी तुम्हारी आँखें
अबूझ और बेजान होते चले गए वे
लगातार

कब तक अपनी स्मृतियों से
तुम्हारे बचे कटाक्ष कर पाता
आरोपित उन पर
जब कि मैं उन्हें चाहता था
जीवित और सार्थक

बडी ही विचित्र दुनिया है लफ़्ज़ों की
वे पैदा ही होते हैं
बेजान और जानदार
पर तुम इतने उन्मत्त रहे
कि इसका ख्याल ही न आया

तुम्हें, मुझे या उनको .. किसी को भी
रहना होता है साथ
अपने शब्दों के .. सतत
यह सातत्य सार्थकता का नहीं
प्रत्युत उनके खोते वज़ूद के लिए
ज़रूरी है निहायत

अभी जब
तुम्हारे शब्दों में खोज रहा था तुम्हारी आँखें
वहीं पडा था यह रुक्का
कभी जब खुद से बतियाना
इसे पढ ज़रूर लेना ..



चिड़िया से कहा लड़की ने

चिड़िया से कहा लड़की ने
पंख दोगी मुझे!
उड़ना चाहती हूँ मैं भी
खुले आकाश में
चिड़िया ने कहा
क्यों नहीं, ये लो मेरे पंख
घूम आओ अनंत आकाश में!
सकपका गयी लड़की
बोली-नहीं, नहीं,
अभी नहीं ले सकती मैं पंख,
मम्मी डाटेंगी
मैं ठीक हूँ ऐसे ही
फिर भी प्रार्थना करुँगी भगवान् से
अगले जन्म में
पंखों वाली चिड़िया बना दे मुझे!!


अचानक हो जाती थी बारिश

अचानक हो जाती थी बारिश
शहर के लोग
नहीं हो पाते थे अभ्यस्त,..... कि अनायास
कोसने लगते थे सरकार को।
दूर देश के सैलानियों को
नहीं दिखती थी जो दरिद्रता, जो
ढंकी छुपी थी चकाचौंध
अंग्रेज़ी भाषा स्वस्थ लोग
और चमचमाती कारों की ओट में
वहीं कहीं बडी बडी इमारतों में....
अपनी वफ़ादारी की नुमाइश करते देसी नस्ल के लोग
छोटी छोटी तनख्वाह को समझते
ईश्वर की कृपा
जानते हुए हाइब्रिड लोगों की कारस्तानियाँ...
जी तोड़ मेहनत से पाए ज्ञान से
बढी हुई पदवी लेकर
छुप जाते शामों को
पाव भर सस्ती... पर अंग्रेज़ी शराब पी कर
घरों में बन जाते 'वह'
दिन भर जिनके मुंह से अपना बद नाम
सुनने को तरसते।
गीली हो जाती उनकी ज़िन्दगी
अचानक हो गई बारिश से
अकसर, खयालों में, हो जाते अमीर
गीलेपन से निकल कर
पहुँच जाते अमेरिका... यूरोप.. वहाँ...
जहाँ न काम करना
न सीलन में ज़िन्दगी काटना
बस्स... ऐश करना....
और सितम ढा कर बगल में लेटी सन्न मादा पर
मर जाते सुबह तक....
और सुबह,
कौआ के बोलने से
बिल्ली के रास्ता काटने से
बीबी के कुछ कहने से ... झल्लाते हुए लोग
अचानक हो गई बारिश से
किस्मत
और सरकार को दोष देते हुए
कीचडों, गाडियों और सुख-दुःख के साथियों से बचते हुए
शहर के लोग
नहीं हो पाते अभ्यस्त
अपनी वास्तविक ज़िन्दगी के
गोया हो जाते हैं व्यस्त
अपनी ही बस्ती से बन संवर कर निकली हुई
औरतों के गोश्त को देखने में
अपने आप अकेले अकेले।


संपर्क: 

77 डी, डी.डी.ए. फ्लैट्स,  
पॉकेट-1, सैक्टर-10, 
 द्वारका, नई दिल्ली- 110075

मोबाईल: 08447545320      

ई-मेल : dasravindrak@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त सभी पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)  

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'