जितेन्द्र कुमार सिंह (जे. के. सिंह) की कविताएँ

 
जे के सिंह


नाम - जितेन्द्र कुमार सिंह (जे0 के 0 सिंह) 
जन्मतिथि 15 /9/1946
स्थायी पता -ग्राम सोनबरसा, पोस्ट- मेंहदावल जिला संतकबीर नगर (उ. प्र.)
वर्तमान पता - मुकाम - बङा महादेवा, पोस्ट - पीरनगर जिला गाजीपुर (उ. प्र.)
सम्प्रति -पी. जी. कॉलेज गाजीपुर के समाजशास्त्र विभाग के रीडर पद से सेवानिवृत
'सृजन सन्दर्भ' आदि पत्र-पत्रिकाओं में लेख कविताएँ एवं समीक्षाएँ प्रकाशित
तीन काव्य संग्रह - 1. जो लोग अभी जिन्दा हैं, 2. पानी चुप और उदास है, 3. सोन बरसा की सोन चिरैया (बाल कविता )
आलोचना ग्रन्थ - 'साहित्य का समाज शास्त्र'
समकालीन सोच (त्रैमासिक ) के संपादक मंडल में


एक साहित्यकार इसीलिए औरों से अलग होता है कि उसकी चिन्ता के केन्द्र में वे आम लोग होते हैं जो बहुत हद तक मानवीय जीवन और मानवीयता को बचाए रखने का प्रयास करते हैं. वरिष्ठ कवि जितेन्द्र कुमार सिंह जो अपनों के बीच जे. के. सिंह के नाम से ख्यात हैं, की कविताओं में यही चिन्ता मुख्य रूप से दिखाई पड़ती है. इसीलिए तो वे बेबाकी से आम लोगों की आधारभूत जरूरतों रोटी, कपड़ा और मकान के पक्ष में बातें करते हुए कहते हैं -  'तुम कोई मंदिर बनाओ/ या करो रथ यात्रा/ भूखे लोगों को इससे क्या/ वे चाहते हैं रोटी/ रोटी जब हाथ पर जब आ जाती है/ वे पा जाते हैं/ सारा स्वर्ग अपवर्ग.' तो आइए पढ़ते हैं  जितेन्द्र कुमार सिंह की कुछ इसी  तरह की आस्वाद वाली नयी कविताएँ.   

जितेन्द्र कुमार सिंह (जे. के. सिंह) की कविताएँ 

यह सब 
तुम्हारे पास होने से
यह सब
उतर आता है तल में
अन्तर्कथा सा
रूप भी, रस भी,  गंध भी , गति भी
अंगङाई लेते
बादलों के केश गुच्छ में
हवा फेरती है अंगुलियां
मधुमालती की ओट में लरजती
एक कली लजा जाती है
बाहों में रूप का पहाड़ लिये
नाचने लगता है ऋतुराज
तितलियां सुनाने लगती हैं
फूलों को परीकथा
और होठों पर छलक आती है
एक मुस्कान
रातरानी के पांवों में
घुंघरू सी बंधी
गंध के छन्दों को सुन कर ठमक जाता है समय
चांदनी की अंगुलियां
सितारों पर थिरकती हैं
चांद के पास बैठे रहने पर
सुबह-सुबह
आसमान के पांव में
पुत जाती है
धुली हुई केशर
नदी बन जाती है
एक पांव
और बहकती पुरुवा की छुवन से लाल हो जाते हैं
किसी छुईमुई के गाल
सब कुछ अपना सा होते हुए
धूमिल संध्या
दौङकर दौङ कर रख आती है करोङों दिये
घरों के छज्जे पर
रंग रोगन होने तक

राह तो है 

राह के मुहाने को
वैश्विक विकल्पहीनता की धुन्ध में
धकेल कर लोग बजा रहे हैं
ढोल और नगाङा
कह रहे हैं कि
राह तो चुक गयी
आगे कोई राह ही नहीं
जहां हैं वही कदमताल करते रहिए
कर्ज लेकर घी पीते रहिए
या हिटलरी टोपियां पहन कर
बन जाइये जन सेवक
चलाते रहिए लाठियां
अपने ही भाइयों पर
या शामिल हो जाइए
फिदायनी दस्तों में
इधर गढे जा रहे उदार भाव से
तरह तरह के भगवान
पैदा हो रहे हैं
तरह-तरह के गुरू महाराज
चाहें तो उनमें से किसी का
गह लीजिए चरण
सुनिए स्वस्ति वाचन
चित्त की वृत्तियों को रोकिए
या अफीम खा कर
नींद में पड़े रहिए
चाहे किसी स्ट्रिप क्लब में
नंगा निर्वस्त्र हो
किराये की छोकरियों के साथ
रात-भर नंगा नाचिए
छोड़ दीजिए
सोचना समझना
आपके पास बहुत है
जंगल जमीन जल
इन्हें सौंप दीजिए
अमेरिका को
आपके सुख का इंतजाम कर देंगी
वैश्विक कंपनियां
कम्प्युटरी अंगुलियों से
लेकिन सवाल तो कुछ और है
लोग कर रहे हैं खुदकुशी
मर रहे हैं बच्चे
आप इसपर इसलिए बात नहीं कर रहे कि
यू एन ओ की मीटिंग में
यह सब नहीं है
लेकिन देखिए न
लोगों ने ढूंढ ली है इस हत्यारे
समय में भी राह
लोग देख रहे हैं
फिर हथेलियों पर दिन के उगने का सपना 


लोग चाहते हैं

तुम कोई मंदिर बनाओ
या करो रथ यात्रा
भूखे लोगों को इससे क्या
वे चाहते हैं रोटी
रोटी जब हाथ पर जब आ जाती है
वे पा जाते हैं
सारा स्वर्ग अपवर्ग
तुम कोई आश्वासन दो या न दो
बैठाओ जगह जगह मुर्तियां
नंगे लोगों को इससे क्या
तुम कोई समझौता वार्ता करो
या मंगवाओ परमाणु रियेक्टर
टूटे छप्पर वालों को इससे क्या
वे चाहते हैं
रहने को मकान
मकान पाने से वे पा जाते हैं इन्द्रपुरी
तुम ऊंची कुर्सी की शपथ लो या न लो
या बना दो किसी को माननीय
बीमार लोगों को इससे क्या
वे चाहते हैं दवा
तुम धर्म कर्म करो या न करो
या बतियाओ जांति पांत
निरक्षरों लोगो को इससे क्या
वे चाहते हैं ककहरे की किताब
किताब मिल जाने पर वे
उसे  बांचते हैं
वेद कुरान बाइबिल की तरह


सम्पर्क- 
मोबाईल- 09532731661

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'