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अखिलेश श्रीवास्तव चमन की कहानी 'सजग-प्रहरी'

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अखिलेश श्रीवास्तव चमन   आज की हमारी यह दुनिया बड़ी अजीब है । जिनसे हम मानवता की उम्मीद करते हैं, वही तरह-तरह से मानवता की भावना को आहत करते रहते हैं । यह सब उस धर्म के नाम पर होता है जो मानवीय-मूल्यों की रक्षा के लिए ही अस्तित्व में आया । दुनिया में हर जगह पूँजीवादी सत्ताधारियों द्वारा आम आदमी का तरह-तरह से शोषण और उत्पीड़न किया जाता रहा है । इनके द्वारा उत्पीड़न के तरह-तरह के हथियार इजाद किए जाते हैं और तरह तरह के तरीके गढ़े जाते हैं । चूंकि साहित्यकार अपने समय का सजग प्रहरी होता है इसलिए वह अपने समय कि इन चालाकियों को उजागर करने का काम करता रहा है । कहानीकार अखिलेश श्रीवास्तव चमन अपनी इस कहानी में  एक जगह कहते हैं  - ' मैं लगातार यही सोचता रहा कि मेहनत, मजदूरी कर के जैसे-तैसे जी रहे इस गरीब बेचारे से भला किसी को क्या दुश्मनी हो सकती है। भला इससे किसी को क्या खतरा हो सकता है। इसे कौन किसी की जमीन, जायदाद या संसाधनों पर कब्जा करना है। बांग्लादेश हो या कि हिन्दुस्तान गरीब की नियति तो एक ही है। उसे तो दो वक्त की रोटी की दरकार है बस। लेकिन वह भी चैन से नहीं खाने देते लोग।'

अलेसिया मकोव्स्काया का आलेख बेलारूस में मेरी हिन्दी : बचकानी अभिरूचि से लेकर व्यावसायिक कार्य तक

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अलेसिया मकोव्स्काया अपनी भाषा में रहते-जीते हुए हमें यह क्षणिक भी एहसास नहीं होता कि इसी भाषा को अगर ऐसा व्यक्ति सीखना चाहे जिसकी मातृभाषा ही नहीं बल्कि संस्कृति और परिवेश भी बिल्कुल अलग हो , तो उसे किस तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इसी को जानने के क्रम में मैंने बेला रूस की   अलेसिया मकोव्स्काया से पहली बार के लिए एक आलेख लिखने के लिए अनुरोध किया। (रेगीना से मेरा परिचय फेसबुक के जरिये हुआ।) रेगीना ने मेरे अनुरोध को स्वीकार कर यह आलेख लिखा है जिसमें उन्होंने हिन्दी भाषा को सीखने सिखाने के क्रम में आने वाली परेशानियों का तरतीबवार उल्लेख किया है। एक कहावत है ‘ जहाँ चाह वहाँ राह। ‘ अलेसिया मकोव्स्काया की चाहतों ने उन्हें प्रयासों की तरफ उन्मुख किया और आज वे न केवल हिन्दी अच्छी तरह लिख पढ़ लेती हैं बल्कि वे बेलारूस जैसे देश में हिन्दी को सिखाने का कठिन कार्य कर रही हैं। प्रस्तुत आलख का प्रथम प्रकाशन मॉरीशस स्थित विश्व हिंदी सचिवालय की वार्षिक पत्रिका “ विश्व हिंदी पत्रिका” में 2011हुआ था। तो आइए पढ़ते हैं अलेसिया मकोव्स्काया का यह दिलचस्प आलेख ‘ बेलारूस में मेरी