मिथलेश शरण चौबे की कविताएँ


मिथलेश शरण चौबे


परिचय 

13 दिसम्बर 1976 को गढ़ाकोटा (जिला-सागर) मध्यप्रदेश में जन्म डॉ. हरी सिंह गौर विश्वविद्यालय सागर से हिंदी में स्नातकोत्तर व पी-एच. डी. वहीं हिंदी विभाग में दस वर्षों तक बतौर अस्थायी शिक्षक अध्यापन के पश्चात् इन दिनों इसी रूप में क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान (एन.सी.ई.आर.टी.) भोपाल में कार्यरत
रज़ा फाउंडेशन, नयी दिल्ली  से प्रकाशित साहित्य, कला व सभ्यता पर एकाग्र त्रैमासिक समासमें सम्पादन सहयोगी
1999 से कविताओं का प्रकाशन पहल, माध्यम, तद्भव, वागर्थ, साक्षात्कार, परस्पर, आकंठ, ईसुरी, अक्षर पर्व, जनसत्ता में लगभग अस्सी कविताएँ प्रकाशितयह पहला कविता संग्रह

कुछ आलेख व समीक्षाएँ पूर्वग्रह, समास, वसुधा, अनभै आदि में तथा एक आलोचना पुस्तक कुँवरनारायण का रचना संसार प्रकाशित

कविताओं के बारे में :

हर अच्छा कवि, बल्कि हर कवि भाषा की सीमा को पहचानता हैवह ऐसा इसलिए कर पाता है क्योंकि उसके अनुभव का विस्तार उसे बार-बार खींच कर भाषा के सीमान्त पर ला खड़ा करता हैवह जानता है कि इस सीमान्त के परे शब्द उसका साथ नहीं देंगेपर उसके पास अलावा शब्दों के कोई और सहारा भी नहींऐसे में वह शब्दों से ही शब्दातीत, भाषा से ही भाषातीत होने का उपक्रम करता हैवह कभी सफल होता है, कभी नहीं भी होता पर कविता लेखन में यह उपक्रम केन्द्रीय हैमिथलेश शरण चौबे की कविताएँ किसी न किसी तरह से इस उपक्रम में संलग्न हैंवे अपनी भाषा से इतना प्रेम इसलिए भी करते हैं कि वही है जो कवि को अपने पार जाने का अवसर जुटाती हैइसकी सबसे सघन अनुभूति मिथलेश की प्रेम कविताओं में होती हैउनकी उत्कंठा, उनकी चाहना मानो शब्दों का सहारा ले एक ही छलाँग में शब्दातीत के अवकाश में फ़ैल जाती हैशब्दों से परे इसलिए भी जाना है कि शब्द पहले के अर्थों से भरे हैं और कवि उनके रास्ते किन्हीं नए अर्थों तक जाना चाहता हैहमारे समय तक आते-आते हमारी दुनिया में व्याप्त अनिश्चय का सत्य सीधे-सीधे शब्दों में कहने से व्यक्त होता नहीं, उसे अनुभवगम्य बनाने के लिए कुछ और करने की आवश्यकता होती हैयही कुछ और करने की तरह-तरह की कोशिशें मिथलेश की कविताओं की शक्ति है 

मिथलेश की कविताएँ पढने का आनन्द यह है कि आपको यह महसूस होता है मानो सघन वन से गुज़रते हुए, उसकी समृद्धि को अनुभव करते हुए भी आप उसके पार की आवाज़ों के सूक्ष्म विन्यासों को अनायास ही सुन पा रहे हैं
-उदयन वाजपेयी


मिथिलेश शरण चौबे की कविताएँ
विकल्पहीन

हमारे समय के एक बड़े कवि ने लिखा-
'
अगर मौन से कहा जा सकता तो शब्द की ईजाद क्यों'
मुश्किल यह है कि
मैं समूचा व्यक्त नहीं हो पाता
कह नहीं पाता लिख नहीं पाता
और अधूरे वाक्यों में घिसटता हूँ
और तलाशता हूँ मौन और शब्द से आगे का विकल्प
जहाँ फ़ौरी तौर पर सब कुछ प्रकट हो
अपने समूचेपन में
और यह आदमी की अभिव्यक्ति का संकट न हो
इस एक पागल तलाश में
ढेर सारे मौन और असंख्य शब्दों के अदृश्य में
प्रविष्ट हुआ मैं
जहाँ भयावह सन्नाटे और
आकाश तक को विचलित करने वाले भयंकर शोर के
दो द्वीप थे
सन्नाटे और शोर के द्वीपों पर कुछ दिन ठहरकर
मौन और शब्दों के आगे के विकल्प की तलाश
काग़ज़ की नाव को पानी में बहाकर फिर तुरन्त ही
सूखे काग़ज़ को पा लेने की तलाश थी
पर पूरी निराशा ही हो ऐसा नहीं है
जहाँ सन्नाटा था वहाँ कुछ शक्तियाँ थीं
जैसे कुछ वेद, उपनिषद् और प्राचीन ग्रन्थ
अपने अकारथ चले जाने पर लज्जित थे
कुछ ऋषि, क्रान्तिकारी, कलाकार
अधिक सार्थक न कर पाने के क्षोभ में सिर झुकाए थे
कुछ तपस्याएँ, ऋचाएँ, श्लोक, क्रान्तियाँ, क़ानून
अपनी श्रेष्ठ परिणति के न होने पर अविचलित
एक-एक कोने में ठिठके हुए थे
और इन सबसे मिलकर जो सन्नाटा उपजा था
उसमें क्षोभ, अवसाद, दुख, उल्लासहीनता के
ऊन की तरह के गोले थे जिनसे
समय की सलाइयों पर
मृत्यु के लिए एक स्वेटर बुनी जा रही थी
अनंत काल से
जहाँ शोर था वहाँ कुछ ऊर्जा थी
बहुत सारी आग राख के नीचे दब चुकी थी और इसलिए
उसके न होने का रुदन था
निरर्थक नारों का एक अटूट सिलसिला था
ख़ुद को छोड़कर दूसरों को अपनाने के लिए
आदर्शों पर कर्तव्यों की लम्बी फ़ेहरिस्त थी
सही और ग़लत मे फ़र्क़ न कर पाने के लिए
और झिलमिलाते शेष बचे सच के न उभर पाने के लिए
उन्माद का नगाड़ा निरन्तर बज रहा था
जिसे किसी गल्प पर सच्चाई बचाने का उपक्रम कह रहे थे
समवेत स्वर में
राजनीति कही जीने वाली दुर्नीति पर चल रहे कुछ लोग
हँसी और अट्टहास करता एक सुविधाभोगी वर्ग था जिसने
आनन्द का एक नयी रूपाकार निर्मित कर लिया था
इस समूचे शोर में विलाप की वे असली ध्वनियाँ
खो गयीं थीं जो सत्तर करोड़ के आस-पास
बताये जा रहे लोगों का मर्म उघाड़ती थीं
इस शोर में दिखावे का रुदन, हँसी, ठट्ठा, अट्टहास,
दंभ, अहंकार, नारे, सलाहें, चेतावनी,
जयघोष की मोटी चुभनशील रस्सी की तरह
बड़े-बड़े बंडल थे
जो लगातार दूसरे के गले में फंदे की तरह प्रयुक्त हो रहे थे
अब मेरी मुश्किल यह है कि
मृत्यु का स्वेटर पहनने और गले में फंदा लगाने के अलावा
मेरे पास कोई उपाय नहीं है
अन्यथा बाहर बचकर निकलने पर
पूरा व्यक्त न हो पाने की दमघोटू बेचैनी
वैसे ही मुझे मारने पर आमादा है।

लौटने के लिए जाना

हम जाकर, बहुधा
लौट आते हैं
नये प्रस्थान के साथ
फिर लौटते हुए
एक नये आरम्भ को लिए अकसर
अन्त के ठीक पहले तक जाते हैं
और अन्यत्र जाने की आतुरता के बीच
वहाँ से भी लौट आते हैं
हम बार-बार जा कर
लौटते हैं
कहीं और जाने के लिए
जहाँ से हम इसीलिए
लौट आएँगे।

 उस समय

समय से बाहर पहली बार
हमने क़दम रखे

पहली बार हमने जाना
जानने के बाहर को
हम अक्षत और कुंकुम के बिना
पवित्र हुए
हवा और पानी के बिना
जीवित रहे
हमने केवल आँखों की चमक से
सृष्टि का अँधेरा ठेला
पहली बार

पहली बार हम इतना सरके
कि इतिहास में हम नहीं थे
और किसी भूगोल पर नहीं थे
हमारे चिह्न

हम आमने सामने या आसपास नहीं थे
लेकिन अन्तराल पहली बार ख़त्म हुआ
पहली बार हम अथाह सागर में तैरे
बिना तिनके के

और हमने पहली बार
इस पहले को खींचकर
इतना लम्बा कर दिया
जहाँ दूसरा नहीं होता।

संकोच
फूल झरने के पहले
हल्का कर लेता है वजन

बहुत कम ताप और बेहद सुन्दर रक्ताभ
किरणों के साथ प्रविष्ट होता है सूर्य
पैरों से विनम्र शुरुआत करता है पानी
मुँह से ऊपर जाने के लिए

अनगढ़-से शब्दों में
उतरती है कविता
टूटे फूटे वाक्यों में घिसटता सच
धीमे आलाप में नाद
पसीने की बूंदों से
देहाकांक्षा

यह सब भव्य और उदात्त है
सरल नहीं

सरल है हिंसा
संकोच नहीं करती

 एक दिन हमें बहुत सुबह उठना होगा

एक दिन हमें बहुत सुबह उठना होगा

हरेपन से च्युत पृथ्वी का होना सोचने
भाप की तरह ऊपर उठती भाषा से
अपने कुछ शब्द रोकने
अकारण प्रिय के न मिलने पर
विलाप करने

पृथ्वी नहीं रुकेगी अपना उजाड़ दिखाने
भाषा लगभग विलुप्त हो चुके शब्द से
व्यक्त नहीं होगी
प्रिय नहीं मिलेगा
हमारी सांत्वना के लिए

पृथ्वी,भाषा और प्रिय
जब जा रहे होंगे
हमारी पहुँच से एकदम बाहर
उस दिन हमें इतनी सुबह उठना होगा
जब हम सोये ही न हों| 

हुसैन : एक आत्मकथा

स्वप्न में अटकती काया को ढँका
सच के निर्जन में फैले रंगों ने
सच की अलक्षित काया के बेरंग
किन्हीं रेखाओं में ओट की
तलाश में भटकते रहे

आकांक्षा के हिस्से आयी हताशा ने
शब्दों से उतारा उदासी को
हताशा ने रंगों के परिधान में
रेखाओं की आड़ में छुपाली
अपनी अनंतिम उम्मीद

बदरंग होती दुनिया ने जब तब
छोड़ा उम्मीद का तिनका
एक जाल में सिकुड़कर रेखाओं ने
आखिरी बार उपक्रम किया
बचने का

मिट्टी में पायी थी आत्मा
खेली बड़ी देह मिट्टी में
रंगों रेखाओं प्रेम दुनिया रिश्तों का
माकूल इल्म कराया मिट्टी ने

फूल अब भी खिलते हैं
बारिश के पानी को सोख लेती है
पहचान की गंध से भरी मिट्टी

देह को नहीं सोख पाने का दृश्य
बहुत सारे रंगों और रेखाओं से
खेलते रहने के बाद भी
चित्रित नहीं कर सका मैं


बची रहे

कभी इस तरह भी
घूरना चाहिए सच को
झूठ की किरचें टूट कर गिरें तो
झपकना चाहिए पलकों को
बेतरतीब स्वप्न चटक जाएँ

इतना बेसुरा गाने का
दुस्साहस होना चाहिए कि
खुद के क्षीण से स्वर पता तो चलें

कभी छोड़ देना चाहिए
समय के साथ खुद को
समय में खुद की व्याप्ति की
क्षीण संभावना दिखे झिलमिलाती

एक बार ही सही
अपनी गढ़ी हुई अडिग सी
छवि तार-तार करनी चाहिए
ताकि एक नए बनने और
शायद बचे रहने की
शाश्वत आकांक्षा बची रहे।

काया

अनगिनत चलती फिरती कायाओं को देखती
आँखों को संभाले एक हर मनुष्य के होने की
अद्वितीयता की तरह और निपट साधारण सी
दिखती एक खूबसूरत काया के होने के
असंख्य दुखों से बनता टूटता सिमटता
मौजूद हूँ
काया जिसे कुछ लोग आत्मा का घर
कहते हैं
होने न होने की शाश्वत पहचान
सुख-दुःख के बेमानी अनुभवों का
बहीखाता
निरुपाय दुनिया से विमुख होती
नश्वरता
अनश्वर के छल को तिरोहित करता विलाप

जिसे गलना है खपना है
एक अदद काया-स्वप्न के साथ
  
दुनिया

जब दुनिया इतनी सरल नहीं बची
कि अपने होने भर से
सारे अर्थ प्रकट हो सकें
तो कुछ होने के अर्थ का अभिनय चुना मैंने
एक होने की तरह की दुनिया बुनी
रोज़-रोज़
होने भर का प्यार किया
होने के लिए कुछ जाना
कुछ भूलें कि कुछ आदतें बनायीं
होने मात्र का जीवन पोत लिया देह पर
कुछ चमत्कृत मुद्राएँ और रहस्य
कपड़ों की तरह पहने और बदले
एक मज़बूत एक लिजलिजा व्यक्तित्व साथ-साथ हुआ
चार-छह शब्द होंठों के नीचे रखे
ताकि कोई संदेह न हो होने पर
अच्छा-बुरा सफल या असफल
से कोई ज़्यादा वास्ता नहीं रहा
नैतिक-अनैतिक का प्रश्न उठता ही कैसे
तो कुछ कठिन-सा हुआ
आदमी-सा नहीं
मेरे होने का अभिनय
जिसमें मेरा सचमुच का होना कहीं लुप्त हो गया
जब दुनिया सरल नहीं बची।

कहना है

शब्दों से ज़्यादा
अर्थों से अधिक
पात्र-भर से ज़्यादा
मिट्टी से ज़्यादा
हिलती टहनियों से अधिक
विस्तार से अधिक
व्यापक से ज़्यादा
ज़्यादा से बहुत अधिक ज़्यादा
कविताओं के समूह से ज़्यादा
कथाओं की सहस्रों घटनाओं से कई गुना ज़्यादा
दुनिया भर की भाषाओं से अधिक
जीवन के आशय से ज़्यादा
मृत्यु के रहस्य से ज़्यादा
प्रेम के विन्यास से अधिक
सुख के चीथड़ों से ज़्यादा
दुख के साबुत चिह्नों से ज़्यादा
आँसुओं की नमी से बहुत अधिक
कहना है
कहने से अधिक

संपर्क :   
 द्वारा - श्री सुरेश कुमार मिश्र
        महाकाली मंदिर के पास,  
        इंदिरा कालौनी, 5 सिविल लाइंस,
        सागर, मध्यप्रदेश, पिन- 470001
        ई मेल : sharan_mc@rediffmail.com
        मोबाइल : 9300687422


 (इस पोस्ट में प्रयुक्त समस्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)


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