तुषार धवल की कविताएँ

तुषार धवल
जिन्दगी के चलने का ढर्रा बेतरतीब होता है अपनी बेतरतीबी में ही यह वह तरतीब रचती है जिसे कवि, चित्रकार और समाज विज्ञानी अपनी-अपनी तरह से उकेरने का प्रयास आजीवन करते रहते हैं। एक अर्थ में कलाकार जो ललित रचनाओं से जुड़े होते हैं समाज के सजग पहरेदार होते हैं। अपनी रचनाओं के द्वारा वे विसंगतियों का खुलेआम विरोध करते हुए वह प्रतिपक्ष रचते हैं जिस पर आम जनता को पूरा और पक्का भरोसा होता है। यह भरोसा ही किसी भी कृतिकार की कृति को कालजयी बनाता है। इसी भरोसे की रक्षा के लिए दुनिया के बर्बर आतंकवादी संगठन अल कायदा को निर्भीकता के साथ सीख देते हुए कवि तुषार धवल कहते हैं - 'अल-क़ायदा?/ तू भी आ यार/ इन्सान हो ले।'
  
तुषार धवल को पढ़ते हुए यह स्पष्ट तौर पर लगा कि वे अपनी तरह के अलग बनक के कवि हैं। आज जब कविताओं के कवि के पहचान के संकट की बात की जाने लगी है ऐसे में तुषार धवल की कविताएँ पढ़ कर हम उस में उनका अक्स अलहदा तौर पर पहचान सकते हैं। हमने जब 'पहली बार' ब्लॉग के लिए उनसे कविताएँ भेजने का आग्रह किया तो अरसे तक संकोच में पड़े रहे। मेरे बार-बार आग्रह के मद्देनजर तुषार धवल ने 'पहली बार' के लिए अपनी लम्बी कविता की सिरीज 'मरीन ड्राईव : मुम्बई' और कुछ अन्य कविताएँ भेजीं। साथ ही छोटा सा एक आत्म-कथ्य भी, जो इस प्रकार है - 'इधर कुछ दिनों से अपनी सामाजिक-राजनैतिक चिन्तन से हट कर भाव और अनन्त की तरफ मुड़ गया हूँ। दृश्यात्मकता और भाव-सहजता को कविता में जीने की कोशिश कर रहा हूँ।' यह आत्म-कथ्य अपनी संक्षिप्तता में ही जैसे सब कुछ कह देता है 'पहली बार' पर उनकी ये सारी कविताएँ एक साथ प्रस्तुत की जा रही हैं जिस से पाठक एक समग्रता में उनकी कविताओं का आस्वाद ले सकें और इस बारे में ख़ुद कोई निर्णय ले सकें। हमेशा की तरह हम आपकी अमूल्य और बेबाक टिप्पणियों का बेसब्री से इन्तजार करेंगे
   
तो आइए आज 'पहली बार' पर पढ़ते हैं कवि तुषार धवल की कुछ नयी कविताएँ                

तुषार धवल की कविताएँ



बदमाश हैं फ़ुहारें  (मरीन ड्राइव, मुम्बई)

बदमाश हैं फ़ुहारें

नशे का स्प्रे उड़ा कर होश माँगती हैं
गरम समोसे सी देह पर
छन्न्
उंगली धर देती है आवारा बूँद
जिसकी अल्हड़ हँसी में
होंठ दबते ही आकाशी दाँत चमक उठते हैं

हुक्के गुड़गुड़ाता है आसमानी
सरपंच
खाप की खाट पर
मत्त बूँदों की आवारा थिरकन
झम झम झनन ननन नन झन झनझन
नियम की किताबें गल रही हैं
हो रहे
क़ायदे बेक़ायदा!

अल-क़ायदा?
तू भी आ यार
इन्सान हो ले

और यह पेड़ जामुन का
फुटपाथ पर!  
बारिश की साँवली कमर पर
हाथ धर कर उसकी गर्दन पर
रक्त-नीलित चुम्बनों का दंश जड़ कर
झूमता है
कुढ़ा करिया कुलबुलाया बादल
गला खखारता फ्लैश चमका रहा है

क़ाफिया कैसे मिलाऊँ तुमसे
जब कि मुक्त-छन्द-मौसम गा रहा है
अपनी आज़ाद बहर में

चलो भाप बन कर उड़ जायें
मेघ छू आयें
घुमड़ जायें भटक जायें दिशायें भूल जायें
नियम गिरा आयें कहीं पर

मिटा दें अपनी डिस्क की मेमोरी
अनन्त टैराबाइट्स की संभावना के
नैनो चिप के वामन बन
चलो कुकुरमुत्ते तले छुप जायें
बारिश को ओस के घर चूम आयें

शाम की आँख पर सनगॉग्स रख दें
बरगद के जूड़े में कनेर टाँक
चलो उड़ चलें
अनेकों आयाम में बह चलें
झमकती झनझनाहट के बेकाबूपन में
देह को बिजली सी चपल कर
चमक जायें कड़क जायें लरज़ जायें
बरस जायें प्रेम बन कर
रिक्त हो जायें

तुम इसे अमृत कहो
और मैं आसव
यहाँ पर सब एक है

बदमाश हैं फुहारें

मरीन ड्राइव पर
वाइट वाइन बरसाती हुईं।


जब सूरज सेल्फी लेता है
(मरीन ड्राइव, मुम्बई)

सँझियारे पानी के कैमरे से
सेल्फी लेता
तंदूरी सूरज
मुस्कान टिकाये रखने की जतन में
थोड़ा 'लुक-कौन्शियस' हुआ है
तमाशाई कोई मेघ
जाते जाते ठहर गया है
उसे देख कर
हवा ने हौले से खींचा है उसे,
"अब चल्लो ना!"

थोड़ी हरकत हुई वहाँ।

सड़क से गाड़ियों का धुआँ
अपने संग धूल भी ले उड़ा
आसमानी पिकनिक पर
जहाँ
उड़ती मैना की टोली ने छेड़ा उन्हें
लजाई धूल कणों का माँगटीका
सुनहरी छटा में दमक उठा

मकानों पर उग आये मोबाइल टावर्स पर
चढ़ कर एक पतंग टाँग दी जाये
कुछ कंदील रोशनी के लटका दिये जायें
पटाखे छोड़े जायें पैराशूट में लहराते हुए
अभी यही खयाल आया है
उस जोड़े को
जिसके
चुम्बन में सम्मोहित होंठ
पिघलते मक्खन पर
नरम शहद का स्वाद बन रहे हैं

हिंसा हवस होड़ की
अपच से अनसाई
उकताई उबकाई से
उबरने को आतुर दुनिया
दृश्य-गन्ध-स्पर्श-स्वाद-स्वप्न के
पंचकर्म से
काया-कल्प की ललक लिये
ऐसी ही मिलती है

जब कि
देखा जाये तो
हर एक दृश्य
हर एक चेहरे के पीछे
भीषण घमासान
विदारक हाहाकार
मचा होता है।

जीवन दर-रोज़ का कारोबार नहीं
प्रतिबद्धता बन जाता है, इसी जगह।


39*C
(मरीन ड्राइव, मुम्बई)

काई के सँवलाये गाढ़े हरे रंग का
अलसाया समन्दर
अनमने हाथों से
किनारे पर
आदिम पत्थरों के गंजे सिर की
सुस्त चम्पी करता हुआ
देखता है
किरणों से मिटमिटाई आँख से

धुल कर धूप में टँगे
बदन से पानी टपक रहा है
उमस ऐसी कि भरे नालों सा पसीना
उफनता है
सूरज को सर चढ़ा रखा है
प्रेमियों ने
समन्दर को मुँह लगा रखा है
दुनिया का स्वाद खारा इनकी जीभ पर
प्यार का नमक चख रखा है

धूप इन पर नहीं पड़ती
39*C की उमस भरी गर्मी
इनके लिये नहीं है
नहीं हैं समय के खाँचे
बहते बोध में
ये दुनिया पर पीठ किये
समन्दर को देखते हैं
खोजते अपनी लहर को

स्क्रीनशॉट सा यह दृश्य जिसमें
'इमॉटिकॉन' की तरह वे
रह-रह कर हँसते-हिलते हैं

एक अटकी हुई जम्हाई है यह
दोपहर, जिसमें
उनके ठीक पीछे
'जैज़ बाय द बे' के
शीशेदार एयरकन्डीशन्ड माहौल में
पिट्जा और लेजर बियर की चुस्कियों सा
मरीन ड्राइव थोड़ा 'हाई मूड' में चलता हुआ
लाल सिग्नल पर मन मार कर ठहर गया है

ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर वैतरणी की तरह सड़क पार करते
हड़बड़ाये लोगों का झुण्ड
अपनी बिखरी बिन्दुओं को समेट लेने की अकुलाहट में
उस पार लपका जा रहा है
मरे साँप सी सुस्त सड़क पर
व्यस्त चीटियों की दौड़ती लहर सा ट्रैफिक
उफ़न पड़ा है
और इस दौड़ते दृश्य में

सिर जोड़े जोड़ों के कन्धों से
नीचे की तरफ सरक आये हाथों में एक कम्पन
उग कर टिक गई है
बदन सिहरन का स्थाई पता है
न दर है, न डगर, न बसर
मछली की गंध उड़ाती
इस भीगी भारी हवा में
सब कुछ एक खिंची हुई अंगड़ाई है

आपसी नाभियों से उगे
इन सभी दृश्यों में
धूप उमस या 39*C का अर्थ नहीं है
और ना ही समन्दर पर सफेद पाल तानी
उन नौकाओं के लिये
जो लहरों पर थिरक रही हैं

इस सबसे अलग-थलग और उकताया हुआ
राग-रिक्त आदमी
उचाट आँखों से देखता है
इन प्रेमियों को
रेस्त्राँ में निथरती चुस्कियों को
सड़क पर व्यस्त भागते लोगों को।
वह मरीन ड्राइव पर छाँह खोजता
नारियल के पेड़ पर पंख खुजाते कौवे को देखता है
कॉलर ढीली कर
पसीना पोंछता आसमान देखता हुआ कहता है
उफ्फ! 39*C की यह उमस यह धूल यह धुआँ
जीना मुहाल हुआ जाता है
इस गर्मी में!


आधी रात का बुद्ध

यह मोरपंखी सजावट की  गुलाबी मवाद
जिसे तुम दुनिया कहते हो
नहीं खींच सकी उसे
उसने डुबकियाँ लगाई जिस्म-ओ-शराब में
मरक़ज़-ओ-माहताब में
मशरिक-ओ-मग़रिब में
लेकिन रात ढले उग आया वह
अपने पश्चिम से

वह अपने रीते में छलक रहा है
बह रहा है अपने उजाड़ में
वह अपने निर्जन का अकेला बाशिंदा
अपने एकान्त में षडज् का गंभीर गीत है
रात के चौथे आयाम की अकेली भीड़ है वह
अपने घावों में ज्ञान के बीज रोपता

रंगता है बेसुध
बड़े कैनवास के कालेपन को
काले पर रंग खूब निखरता है
वह जान चुका है

रिश्तों की खोखल में झाँक कर
वह जोर से "हुआऽऽहू" चिल्ला कर मुस्कुरा देता है
हट जाता है वहाँ से
असार के गहन सार में उतर कर
उभरता है वहाँ से
निश्चेष्ट निष्कपट निष्काम

दुख प्रहसन की तरह मिलते हैं उससे  इस पहर
पीड़ाएँ बहनों की तरह मुँहजोर
उसे मतलब में छुपा 'बे-मतलब'
मिल जाता है अचानक

लिखता है वह अपना सत्य
अपनी कविता उपेक्षित दिन हुए
वह कहता है सच्चे मन की अपनी बात
दिन चढ़े उसे गलत समझ लिया जाता है

दिन भर दोस्तों और दुनिया के हाथों ठगा जा कर
चोट खाया
आधी रात गये बुद्ध हुआ वह मुआफ़ कर देता है सबको।

जगत की लघुता पर मुस्कुराता है वह
और उसे भूल जाता है।


लौटता हूँ 

लौटता हूँ उसी ताले की तरफ
जिसके पीछे
एक मद्धिम अन्धेरा
मेरे उदास इन्तजार में बैठा है

परकटी रोशनी के पिंजरे में
जहाँ फड़फड़ाहट
एक संभावना है अभी

चीज-भरी इस जगह से लौटता हूँ
उसके खालीपन में
एक वयस्क स्थिरता
थकी हुई जहाँ
अस्थिर होना चाहती है

मकसद नहीं है कुछ भी
बस लौटना है सो लौटता हूँ
चिंतन के काठ हिस्से में

एक और भी पक्ष है जहाँ
सुने जाने की आस में
लौटता हूँ
लौटने में
इस खाली घर में

उतार कर सब कुछ अपना
यहीं रख-छोड़ कर
लौटता हूँ अपने बीज में
उगने के अनुभव को 'होता हुआ'
देखने

लौटता हूँ
इस हुए काल के भविष्य में




जीवन, मैं और तुम

यह रात बीतते हुए बीत जायेगी
इसमें छुपा बीता हुआ दिन भी मिट जायेगा
संवाद के घेरे में कहा सुना
सब मिट जायेगा

एक सूखी हुई छाप सा रह जायेगा
यह दिन
मेरी उमर की गिनती में ऐसे ही बढ़ता है
झुर्रियों की तरफ समय
वहाँ
जहाँ मृत्यु और प्रेम
तुम्हारा नाम ओढ़
अपना फ़र्क खो देते हैं

जीवन और मैं
अपने अन्त का अद्वैत
तुम्हें कहते हैं


असंग 

इस उजाड़ में भटकता
असंग का प्रेत कहता है
देखो मुझे
पहचानो खुद को
आई हुई रोशनी
लौट जाती है
मिली हुई नेमतें
खो जाती हैं

मिट्टी का ढेला पोखर में घुल जाता है
मरी मछली के नाम
कोई संदेसा नहीं आता

मैं ही हूँ तुम और तुम्हारी यात्रा
एकल
चलूँगा साथ तुम्हारे
तुम्हारी साँसों के उस पार तक

ढकोसलों का बाजार गिरा कर
बत्ती बुझा देता हूँ
ऐसे ही इस क्षण
रोशनी पर आँख स्थिर किये
मैं अपनी मृत्यु की घोषणा करता हूँ



समय बदला पर

यह ताकतवरों के हमलावर होने का समय है
और निशाना इस बार सिर पर नहीं
सोच पर है

मैं हमलों से घिरी हुई ज़ुबान का
कवि हूँ जिसके
पन्नों से घाव रिसते हैं
मेरी सोच का वर्तमान
अपनी ज़मीन पर अजनबी हो कर
अनजानी सरहदों में खो गया है
 उधार की भाषा नहीं समझ पाती है मेरी बात

सदी दर सदी
वे मारते ही जाते हैं
अलग-अलग तरीकों से मुझे
अपनी मुट्ठी में जकड़ लेना चाहते हैं
मेरा आकाश।

जिन्हें मिट जाने का भय है
उनकी प्यासी देवी
मेरी बलि माँगती है हर बार।

न मैं थकता हूँ
न वे
और यह खेल खेलते हुए हम
पिछली सदियों से निकल आये हैं
इस सदी में

समय बदला पर
न जीने की जिद्दी ज़ुबाँ बदली
न ताकत के तरीके।


कविता नहीं वह सीढ़ियाँ लिखता है

नाहक ही होती है कविता
नाहक ही छपती है
नाहक के इस उर्वर प्रदेश में जो बस गया
अकेला रह जाता है

मत बसो इस खतरनाक मौसम वाली जगह में
पर्यटक की तरह आओ और निकल जाओ
शिखर की तरफ
कविता के साधन पर सवार

मत लिखो
मत पढ़ो कवितायें
वह बड़ा कवि झूठा है
कविता नहीं वह सीढ़ियाँ लिखता है


इस यात्रा में

इस दूर तक पसरे बीहड़ में
रह-रह कर मेरी नदी उग आती है
तुमने नहीं देखा होगा

नमी से अघाई हवा का
बरसाती सम्वाद
बारिश नहीं लाता
उसके अघायेपन में
ऐंठी हुई मिठास होती है

अब तक जो चला हूँ
अपने भीतर ही चला हूँ
मीलों के छाले मेरे तलवों
मेरी जीभ पर भी हैं

मेरी चोटों का हिसाब
तुम्हारी अनगिनत जय कथाओं में जुड़ता होगा
इस यात्रा में लेकिन ये नक्शे हैं मेरी खातिर
उन गुफाओं तक जहाँ से निकला था मैं
इन छालों पर
मेरी शोध के निशान हैं
धूल हैं तुम्हारी यात्राओं की इनमें
सुख के दिनों में ढहने की
दास्तान है

जब पहुँचूँगा
खुद को लौटा हुआ पाऊँगा
सब कुछ गिरा कर

लौटना किसी पेड़ का
अपने बीज में
साधारण घटना नहीं
यह अजेय साहस है
पतन के विरुद्ध


सम्पर्क -
मोबाईल - 09769321331

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

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