प्रियदर्शन का आलेख 'और अंत में उदय प्रकाश'.



उदय प्रकाश
उदय प्रकाश हमारे समय के चर्चित कवि-कथाकार हैं. वे अपनी हर रचना के साथ कुछ नया प्रयोग करने की कोशिश करते हैं. व्यक्तित्व को ले कर कई एक कहानियों का जो ताना-बाना उन्होंने बुना है उसमें बकौल उनके वे खुद भी गहराई से शामिल होते हैं. और रचना भी तो वही कालजयी होती है जो अपने में अपने समय के संदर्भ को समेटते हुए चले. हमारे प्रिय कहानीकार प्रियदर्शन ने उदय प्रकाश के व्यक्तित्व-कृतित्व को परखने का प्रयास किया है अपने इस आलेख में. पहली बार के पाठकों को नव वर्ष की शुभकामनाओं के साथ हम आज प्रस्तुत कर रहे हैं प्रियदर्शन का यह आलेख 'और अंत में उदय प्रकाश'.     

और अंत में उदय प्रकाश

प्रियदर्शन


उदय प्रकाश से मेरा व्यक्तिगत परिचय 1994 की गर्मियों में हुआ। तब तक एक बड़े लेखक के रूप में उनकी ख्याति नए क्षितिज छू रही थी। तिरिछ और टेपचू से लेकर छप्पन तोले का करघन और दरियाई घोड़ा तक दूसरी कई कहानियां उस दौर में धूम मचा चुकी थीं। और अंत में प्रार्थना कुछ ही दिन पहले प्रकाशित हुई थी। इन सारी कहानियों ने उदय प्रकाश को हिन्दी का स्टार कथाकार बना डाला था। यह कथा-कीर्ति इतनी चमकती हुई थी कि यह तथ्य अक्सर भुला दिया जाता था कि उदय प्रकाश प्राथमिक तौर पर या समानंतर एक कवि भी हैं। तब तक सुनो कारीगर और अबूतर कबूतर काव्य-संग्रह आ चुके थे और भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार भी उन्हें प्राप्त हो चुका था। सच तो यह है कि आज भी उदय प्रकाश पहले कथाकार के रूप में ध्यान में आते हैं और उसके बाद उनके कवि रूप का खयाल आता हैजबकि उनकी कई कविताएं मुझे उनकी कई कहानियों से ज़्यादा प्रिय हैं। यही नहीं, इस बीच उनके कुछ और कविता संग्रह, ताना-बाना और एक भाषा हुआ करती थी प्रकाशित हो चुके हैं। फिर कवि और कथाकार की यह साझा कीर्ति इतनी प्रबल है कि यह और भी कम याद रह जाता है कि उदय प्रकाश एक बीहड़ अध्येता भी हैं और समसामयिक संदर्भों और विचारों की दुनिया में भी उनका हस्तक्षेप काफी सक्रिय और समृद्ध है। यानी बाकी बात शुरू करने से पहलेमैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि उदय प्रकाश हिन्दी में अपनी तरह के अनूठे लेखक हैं जो जब भी कुछ भी लिखते हैं,  उसे ध्यान से पढ़ने की इच्छा और ज़रूरत दोनों महसूस होती है। 

अब उस पहली मुलाकात का ज़िक्र जो  एक मशहूर लेखक से एक अनजान पाठक के बीच हुई थी। मैं नया-नया दिल्ली आया था और फ्री-लांसिंग के नाम पर सांस्कृतिक समाचारों से ले कर आलेख तक लिखा करता था जो दिल्ली के अखबारों में कभी-कभी छपा करते थे। इसके अलावा परिचय के तौर पर मेरे पास बताने को मेरी रांची वाली पृष्ठभूमि थी जिसे मैं झारखंडी अस्मिता से जोड़ना कभी नहीं भूलता था। रांची के ज़िक्र ने भी उदय प्रकाश और मेरे बीच एक धागा सुलभ करा दिया। उदय प्रकाश ख़ुद छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके की पृष्ठभूमि से आए थे। इसके अलावा उनके भाई कुमार सुरेश सिंह झारखंड में काम कर रहे थे और उनका समाजशास्त्रीय अध्ययन झारखंड की संस्कृति को समझने में काफी सहायक हो रहा था।


 यह 1994 के आख़िरी महीनों की कोई शाम रही होगी जब मैं रोहिणी के तरुण अपार्टमेंट के उनके फ्लैट में पहुंचा।


मैं आजकल’ के लिए महात्मा गांधी पर केंद्रित एक परिचर्चा कर रहा था- उन लेखकों से जो गांधी के निधन के बाद पैदा हुए। कई लेखकों से मेरी बात हो चुकी थी और फिर मैं उदय प्रकाश से बात कर रहा था। ब भी याद है कि यह बहुत सार्थक और सारगर्भित बातचीत थी। उदय प्रकाश बहुत एहतियात और सतर्कता के साथ गांधी की विचार-दृष्टि का विश्लेषण कर रहे थे- गांधी व्याख्या के जाने-पहचाने स्टीरियोटाइप्स से अलग उदय प्रकाश ने उस शाम गांधी को देखने की कई दृष्टियां सुलभ कराई थीं। आजकल के उस अंक में जो गया सो गया, लेकिन उस मुलाकात का बहुत कुछ मेरे भीतर बचा रह गया। उस शाम उदय प्रकाश से बहुत सारे मसलों पर बातचीत हुई। मशहूर लेखक और अनजान पाठक का फासला मिटने में बहुत वक़्त नहीं लगा। जब मैं वहां से निकलने लगा तब तक रात हो चुकी थी। उदय प्रकाश ने बाकायदा अपनी गाड़ी से मुझे बस स्टॉप तक छोड़ा। यही नहीं, उन्होंने बताया कि उनके पास बहुत सारा काम है और मैं चाहूं तो उनकी मदद कर सकता हूं। लेकिन दरअसल वे मदद मांग नहींकर रहे थे। रांची से बिल्कुल नए आए एक फ्री-लांसर को अपने काम का कुछ हिस्सा दे रहे थे। आने वाले दिनों में मैंने उनकी ही मदद से दो या तीन डॉक्युमेंटरीज़ पर काम किया।
  
इसी दौरान व्यक्ति उदय प्रकाश को भी समझने का मौका भी मिला, लेखक उदय प्रकाश को भी। ऐसा नहीं कि दोनों में कोई ज्यादा फर्क था- आखिर दोनों की बुनावट बिल्कुल एक थीकुछ मामलों में प्रतिक्रियाओं का ढंग- निजता और सार्वजनिकता के बीच- कुछ भले बदलता हो। उन की बहुत सारी कहानियों पर हमारी बात हुई। उन विवादास्पद कहानियों पर भीजिनको लेकर उदय प्रकाश पर आरोप लगे थे। मसलन, मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने गोरख पांडेय को ले कर ‘रामसजीवन की प्रेम कहानी’ क्यों लिखी। उदय प्रकाश का उत्तर बहुत साफ था। उनके मुताबिक इस कहानी में जितना गोरख पांडेय थे, उससे ज्यादा वे खुद थे। उनका कहना था कि दरअसल गांव से शहर आने पर जो सांस्कृतिक अपरिचय और आघात खुद उन्हें भी झेलना पड़ा, उसकी उन्होंने कहानी लिखी- कुछ अनुभव भले दूसरों के शामिल किए।

मैं जानता हूं कि बहुत सारे संदेहवादियों को इस सफ़ाई में शक की बहुत सारी गुंजाइश दिख रही होगी। लेकिन मेरी सीमा कहें या नासमझी, मेरे सोचने का अभ्यास किसी और ढंग से विकसित हुआ है। मैं लेखक पर भरोसा करता हूं- इसलिए नहीं कि वह सोच-समझ कर कोई ईमानदार जवाब दे रहा है, बल्कि इसलिए कि हमारे जाने-अनजाने हमारे लेखन में और हमारे वक्तव्यों में कहीं न कहीं हमारे व्यक्तित्व की छाप और छाया चली आती है। दूसरों पर लिखते हुए हम कई बार ख़ुद पर लिख रहे होते हैं और इसे पहचान भी नहीं पाते। उदय प्रकाश अगर इस बात को कई दूसरे लोगों से बेहतर और साफ ढंग से समझ या रख पाते हैं तो इसलिए भी कि अपने लेखन के तंतुओं से उनकी पहचान बहुत गहरी है।

इत्तिफाक से उन्हीं दिनों वे पाल गोमरा का स्कूटर लिख रहे थे। एक तरह से इस कहानी को विकसित होते मैंने देखा था, क्योंकि उसके अलग-अलग पाठ मेरे सामने खुले थे। एक लेखक किस तन्मयता के साथ अपनी कहानी लिखता है, आत्मीय तरलता और पेशेवर तराश को किस तरह फेंटता है और कैसे उसे अंतिम रूप देता है, यह मैं देख रहा था। फिर इस कहानी पर कुछ जाने-पहचाने किरदारों की छाया थी और फिर मेरे सवाल पर उदय प्रकाश की सयानी हँसी और मासूम सफाई थी कि वे तो ज़माने की कहानी लिख रहे हैं।


बहरहाल, यह कहानी उदय प्रकाश की कई दूसरी कहानियों की तरह काफी लोकप्रिय हुई। लेकिन मेरे लिए इसका आलोचनात्मक महत्त्व कुछ दूसरा है। मैं इस कहानी को उदय प्रकाश की पुरानी और नई कहानियों की बीच की कड़ी की तरह देखता हूं। शायद यह पहली कहानी थी जिसमें उदय प्रकाश समकालीन ब्योरों और प्रवृत्तियों को मूल कथा के समानांतर रख रहे थे और यह काम वे कुछ इस कौशल से कर रहे थे कि कहानी पढ़ते हुए कहीं बाधा नहीं होती थी, बल्कि एक पूरी पृष्ठभूमि में चीजों के घटित होने का भान होता था। बाद में वारेन हेस्टिंग्स का सांड़ और मैंगोसिल से लेकर मोहन दास तक में उदय प्रकाश यह युक्ति बड़ी सहजता के साथ इस्तेमाल करते दिखाई पड़ते हैं।


दरअसल यह जो कुछ मैं लिख रहा हूं, वह उदय प्रकाश के कथा संसार के सम्यक मूल्यांकन की कोशिश नहीं है। यह उदय प्रकाश से निजी और लेखकीय मुठभेड़ों के दौरान मेरे भीतर बनने वाले प्रभावों और प्रश्नों का सिलसिला भर है। इन में से जो सबसे बडा प्रश्न मुझे घेरता है, वह ये कि आखिर उदय प्रकाश की लोकप्रियता का राज़ क्या है। ऐसे आलोचकों की कमी नहीं है जो उदय प्रकाश में कृत्रिमता, सपाटपन और दूसरों की नकल तक ढूढ़ने की कोशिश करते हैं। दुर्भाग्य से ज़्यादातर ऐसे आलोचक ख़ुद एक सपाट और अनुकरणशील दृष्टि के अभ्यस्त हैं, क्योंकि वे कहानी के बने-बनाए खांचे के बाहर जाकर देखने को तैयार नहीं हैं।


दरअसल जिसे उदय प्रकाश की कमज़ोरी बताया जाता है, वही उनके कथा-लेखन की ताकत है। वह बहुत सहज ढंग से कहानियां लिखते हैं - कई बार लगता है कहानी नहीं लिख रहे, अपने या दूसरों के बारे में कोई बात बता रहे हैं। पाठकों को भरोसा दिलाने या उन्हें भरोसे में लेने की यह शैली उनके यहां बिल्कुल प्रारंभ से दिखाई पड़ती है। वे लिखते नहीं, जैसे बात करते हैं या कोई बीता हुआ किस्सा सुनाते हैं। किसी किस्से तक पहुंचने के लिए पहले कुछ और सुनने और समझने की शर्त लगाते हैं। कहानी भी किसी शास्त्रीय ढंग से नहीं कहते, बिल्कुल ब्योरों में कहते हैं। तिरिछ शुरू ही होती है एक घटना के बयान से, जिसका वास्ता पिता जी से है। पिता जी भी बिल्कुल ऐसे हैं जिनकी उपस्थिति को कई लोग पहचानते होंगे। फिर पिता जी को तिरिछ काटता है जिसे वे मार डालते हैं, लेकिन जला नहीं पाते, इसके बाद वे शहर के लिए निकलते हैं, रामऔतार पंडित के कहे में आ जाते हैं और उसके बाद शहर में जो कुछ घटता है, उसे झेलते हैं। ये जो कुछ घट रहा है, उसके तमाम अंशों को हम अपने अलग-अलग अनुभव संसार में पहचानते हैं। वे सारी घटनाएं हम सबके जीवन में न जाने कितनी बार गुज़री हैं। लेकिन नितांत मामूली और जाने-पहचाने ब्योरों को जोड़ते हुए, उनके बीच की खोई हुई संगति की तलाश करते हुए, या फिर इन सबके बीच घट रही त्रासदी को बिल्कुल क्लोज़ अप में दिखाते हुए, उदय प्रकाश जो रचते और साझा करते हैं, वह एक सिहरा देने वाली कहानी होती है जो हमारे सपनों तक में दाखिल हो जाती है, जो हमारी स्मृति से जाने का नाम नहीं लेती।


दरअसल उदय प्रकाश जीवन के इन ब्योरों को बहुत करीब से देखते हैं और उनके भीतर के विद्रूप और उसकी त्रासदी को पकड़ते हैं। जीवन से संग्राम करते उनके पात्र अक्सर ऐसी विडंबनाओं से घिर जाते हैं जो उनका बहुत सख्त इम्तिहान लेती हैं- वे विक्षिप्त हो जाते हैं, वे मारे जाते हैं, वे खो जाते हैं। उदय प्रकाश की कई बड़ी और महत्त्वपूर्ण कहानियों के नायकों का अंत ऐसा क्यों होता है? क्या इसलिए कि वे इस आपाधापी भरे जीवन में, इस तनाव के बीच ख़ुद को बचाए रखने में असमर्थ हैं? फिर वह सामर्थ्य कहां से आती है जो दूसरों को अवेध्य बनाती है? यहां इन कहानियों की मार्फत समझ में आता है कि बचे रहने की युक्ति के नाम पर जो सयानापन, जो समझौतापरस्ती, जो संवेदनविहीन सपाटपन चाहिए, अपने कम मनुष्य होने की जो शर्त चाहिए, उसे नकार कर ही ये पात्र अपनी नियति का वरण करते हैं। वे प्रोफेसर वाकणकर की तरह अपने वक़्त का सही और सच्चा पोस्टमार्टम करने को मजबूर ऐसे पात्र होते हैं जिन्हें उन्हें नतीजे मालूम होते हैं।


अपनी काया और अपने वितान में लगभग औपन्यासिकता को छूने वाली उनकी ऐसी लंबी कहानियां शेक्सपियर की शोकांतिकाओं की याद दिलाती हैं- इस फर्क के साथ कि आधुनिक समय से मुठभेड़ करते उदय प्रकाश के नायक मामूली लोग हैं जिनकी सांघातिक कमज़ोरी- फेटल फ्लॉ- बस यह है कि वे बहुत संवेदनशील हैं और जीवन को बहुत गहराई से लेते हैं। इसी एक कमज़ोरी की वजह से उन्हें मारा जाना है।

मारे जाने से पहले ये किरदार निहायत कोमलता से नितांत क्रूरता के बीच कई बार आवाजाही को मज़बूर होते हैं। पीली छतरी वाली लड़की और छतरियां जैसी कहानियों में इस सफर को बहुत करीब से महसूस किया जा सकता है। छतरियां में कहानी जैसे ख़त्म होने को होती है, लेखक अपने समकालीन हस्तक्षेपके साथ अंत बदल डालता है। शायद उसे लगता है कि बलात्कार और छलात्कार से आहत हमारे समय में किसी रचना का ऐसा कोमल पाठ संभव नहीं है।

लेकिन फिर भी उदय प्रकाश कोमलता को बचाए रखते हैं। समकालीनता के उनके पाठ-उप पाठ- अपनी तरह के सरलीकरण भी रचते हैं और जटिलीकरण भी- इसमें उनकी राजनीति पर भी सवाल उठते हैं और उनके सरोकारों पर भी, लेकिन सारी चीज़ों के बावजूद पाठक इन कहानियों से बहुत गहराई से जुड़ता है, वह अपनी छीन ली गई पहचान को नए सिरे से हासिल करता है- कभी ख़ुद को ‘मोहन दास’ के साथ खड़ा पाता है और कभी पाल गोमरा के साथ।

प्रियदर्शन
तो हम पाते हैं कि जो बात यथार्थ के सूक्ष्म रूपों के प्रति बहुत स्थूल किस्म का आकर्षण रखने वाली आलोचना दृष्टि को सतही और सपाट, फिल्मी और रोमानी, सुनियोजित और कृत्रिम जान पड़ती है, पाठक उसे सहर्ष स्वीकार ही नहीं करता, उसमें साझा भी करता है। इस लिहाज से उदय प्रकाश हिन्दी के उन विरलतम लेखकों में हैं जो सीधे पाठकों से अपनी मान्यता हासिल करते हैं। उनकी एक छोटी सी कहानी है- डिबिया। इस डिबिया में उन्होंने धूप का टुकड़ा बचा कर रखा है जिसे वे कभी खोलते नहीं। एक स्तर पर उदय प्रकाश यह डिबिया अपने पाठकों को भी पकड़ाते चलते हैं- सबको मालूम है कि शायद इसके अंदर कोई ठोस चीज़ न बची हो। लेकिन इस डिबिया में उनके सपने हैं, उनका भरोसा है और उनकी कहानी है। आलोचक ऐसी ही डिबिया खोल कर साबित करना चाहते हैं कि यह तो खाली है- उन्हें उनका यह यथार्थ-बोध मुबारक हो। हिन्दी कहानी को उदय प्रकाश की कहीं ज़्यादा ज़रूरत है।
                                                                                                     

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