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मुंशी प्रेमचन्द का आलेख 'साम्प्रदायिकता और संस्कृति'

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प्रेमचंद साम्प्रदायिकता अपने लिए खाद पानी जुटाने का काम हमेशा से संस्कृति के नाम पर करती आयी है । यह आज की समस्या नहीं है बल्कि नाजीवाद और फासीवाद के समय भी यह प्रवृत्ति जोर शोर से दिखायी पड़ी थी । मुंशी प्रेमचंद ने साम्प्रदायिकता और संस्कृति के इस सम्बन्ध को ले कर एक आलेख लिखा था । आज के समय में भी यह आलेख अत्यन्त प्रासंगिक है । तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं मुंशी प्रेमचंद का यह सामयिक निबंध ।       साम्प्रदायिकता और संस्कृति प्रेमचंद  साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढ़ कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़ कर आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहत है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गये हैं कि अब न कहीं हिन्दू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति। अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्कृति । मगर आज भी हि