आनन्द प्रकाश का आलेख 'भैरव प्रसाद गुप्त : निर्भीक रचनाशीलता और प्रतिबद्ध विचार के समर्थक'

भैरव प्रसाद गुप्त 


हम जिस समय में रह रहे हैं उस समय की पीढ़ी में रचनाशीलता तो बहुत है लेकिन प्रतिबद्धता अक्सर नदारद दिखती है। वास्तव में यह प्रतिबद्धता ही आपके लेखन को वह धार प्रदान करती है जिससे किसी भी लेखक की रचना दूर तलक का सफर तय करती है और देर तक याद की जाती है। भैरव प्रसाद गुप्त का नाम साहित्य की दुनिया में वह नाम है जो इस प्रतिबद्धता के लिए जाना जाता है। संभव है कि आज शोरोगुल के जमाने में तमाम नए रचनाकार भैरव जी के रचना-संसार ही नहीं नाम से भी परिचित न हों। लेकिन भैरव प्रसाद गुप्त की महत्ता हिन्दी साहित्य में हमेशा बनी रहेगी। इसलिए भी, क्योंकि भैरव जी ने ‘नयी कहानी’ पत्रिका निकाल कर हिन्दी कहानी की दुनिया में एक ऐसा बदलाव ला दिया जिसे आज भी एक आन्दोलन के रूप में याद किया जाता है। समय के साथ हिन्दी कहानी आगे बढ़ी और प्रेमचंद की लीक को छोड़ कर अपनी एक नयी लीक और पहचान के साथ दृढ़ता से आगे बढ़ी। मन्नू भण्डारी, उषा प्रियम्बदा, राजेन्द्र यादव, मार्कंडेय, शेखर जोशी, अमरकांत जैसे उम्दा लेखकों को हिन्दी साहित्य के परिदृश्य में लाने का श्रेय बहुत कुछ भैरव जी को ही है। वर्ष 2017 भैरव जी का जन्म शताब्दी वर्ष भी है। इस विशेष अवसर पर आलोचक आनन्द प्रकाश का एक आलेख ‘भैरव प्रसाद गुप्त : निर्भीक रचनाशीलता और प्रतिबद्ध विचार के समर्थक’ हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। ज्ञातव्य है कि आज आनन्द प्रकाश जी कुछ उन लोगों में से एक हैं जिन्हें भैरव जी का स्नेह और सान्निध्य सहज ही प्राप्त था। तो आइए आज ‘पहली बार’ पर पढ़ते हैं आनन्द प्रकाश का यह महत्वपूर्ण आलेख।

             
भैरव प्रसाद गुप्त : निर्भीक रचनाशीलता और प्रतिबद्ध विचार के समर्थक

आनंद प्रकाश


पहले मैं एक अमूर्त विचार को अपनी समझ और सुविधा के लिए व्यक्त करना चाहता हूँ। मनुष्य-जीवन में याद्दाश्त के, स्मृति के महत्व को नकारना मुश्किल है। यह तक कहा जा सकता है कि अगर याद्दाश्त याने स्मृति नहीं तो मनुष्य के रूप में समझा जाने वाला प्राणी असल में मनुष्य नहीं। यह बात सुनने में किंचित अस्वाभाविक लग सकती है, लेकिन यदि रुक कर सोचा जाए तो इसके कुछ निहितार्थ स्पष्ट हो सकते हैं। कुछ अन्य क्षमताओं के साथ मस्तिष्क के केन्द्र में कहीं ज़रूरी जगह बनाने वाली एवं मनुष्य द्वारा याद्दाश्त के माध्यम से दिमाग़ में औकात बनाए रखने और बार बार वहाँ पहुँच जाने वाली मनुष्य की यह खासियत इतनी उपयोगी होती है कि इसके फैलाव और असर की कल्पना नहीं की जा सकती। स्मृति को समर्पित इस मस्तिष्कीय संयन्त्र को निकाल दिया जाए तो कुछ काम का न बच रहेगा। इसलिए, जब कोई कहता है कि वर्तमान में रहा जाए, वहाँ से जीवन और व्यवहार के लिए दिशा-निर्देश लिये जाएं, और गये कल को खारिज़ कर के या पीछे छोड़ कर सक्रिय हुआ जाए तो महसूस होता है कि कहीं किसी केन्द्र से एक बड़े सच से ध्यान हटाने और व्यक्ति को छोटी हदों में बांध रखने की सोची-समझी कोशिश की जा रही है। आज यह हो रहा है और प्रायः महसूस होता है कि किसी ऐसी योजना के अनुरूप घटित नज़र आता है जिसके तार किसी शक्ति केन्द्र में छिपे हैं।


साहित्य में चूंकि शब्दों का इस्तेमाल होता है, इसलिए वहाँ स्मृति की विशेष भूमिका है। एक लम्बी व्यवहार-परम्परा के अधीन शब्द बनते और विकसित होते हैं। समाज का हर व्यक्ति शब्दों के साथ उलझता है, उनसे लगभग हिंसक क्रिया की शक्ल में शामिल होता है ताकि व्यक्ति का अपना मंतव्य प्रभावी ढंग से संप्रेषित हो सके। यह करते वक्त वह व्यक्ति नहीं रहता, बल्कि जिम्मेदारी से दूसरे समूह की व्यवहार प्रक्रिया में जुड़ाव पाने वाला सम्मानित नागरिक बनता है, जिम्मेदार और इस तर्क के अधीन परम्परागत मूल्यों की जकड़ में कैद। उधर जल्द ही समाज में जी रहे इस व्यक्ति का शब्द-प्रयोग पूर्व में किये गए शब्द-प्रयोगों से पटरी बिठा लेता है, ताकि एक रीति कायम हो जाए और साहित्यिक अर्थ को व्यापकता मिले। पूरी प्रक्रिया में गतिशीलता और ठहराव साथ साथ और परस्पर उलझते हुए व्यक्ति को रोकते हैं और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित भी करते हैं।


यदि हम शब्द पर ज़ोर डाल कर सोचने लगें तो महसूस करेंगे कि असल में अपने इतिहास में प्रवेश कर रहे हैं। यह भी दिलचस्प है कि शब्द-प्रयोग निरन्तर बदलता है और इस अर्थ में समृद्ध होता रहता है, या फिर इस्तेमाल के दायरे से बाहर भी हो जाता है। इसे दिमाग़ में न रखा जाए तो हम विचार और अनुभव की विविधता एवं संपदा से महरूम रह जाएंगे, और सतही, अटपटी शोरगुल वाली क्रिया का शिकार बनेंगे। उस स्थिति में साहित्य के लिए बाधाएं पैदा होंगी जो रचना को सीमित तथा विकृत कर के उसके स्वाभाविक रास्ते से अलग कर सकें।  


      
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भैरव प्रसाद गुप्त की जन्म-शताब्दी का अवसर एक-साथ कई चीजों से मुखातिब होने का बायस बनता है। मसलन, कि उनकी सर्जनात्मक पहचान क्या है, वह किस व्यापक दृष्टिकोण और मूल्यों के वाहक हैं। साथ ही, ऐसी वे कौन सी चुनौतियां रहीं जिन्होंने भैरव को सामाजिक बदलाव के दायर में प्रवेश कराया और उन्हें लेखन-चिन्तन की राह पर एक-से-एक जोखम उठाने के लिए मजबूर किया। शुरू में ही इंगित करें कि रोज़ी-रोटी का मसला भैरव के लिए कभी सार्थक चीज़ों से जुड़ाव की शक्ल में दिखने वाला न रहा। मसलन, भैरव चाहते तो ऊंची नौकरी का जुगाड़ आसानी से बिठा सकते थे, यह उन्हें स्थायित्व के साथ-साथ सामान्य सुविधाएं जुटाने का माध्यम हो सकता था। उनके समकालीनों में कितने ही थे जिन्होंने परिचय और मेल-जोल का लाभ उठा कर सुख-सुविधाएं अर्जित की थीं, इसके विपरीत भैरव को सुविधाओं की दुनिया का गणित हमेशा गर्हित नहीं तो समस्यामूलक अवश्य जान पड़ा। आज़ादी के शुरू दिनों में ही उन्हें महसूस हुआ था कि नेहरू के नेतृत्व में सक्रिय कांग्रेस पार्टी का चरित्र लगातार बूर्ज्वा बना था, और ख़तरा था कि जल्द ही ऐसा दिन ऐसा आने वाला है जब मुक्ति संग्राम के लिए गतिमान कांग्रेस पार्टी अपने ज़रूरी रास्ते से हट कर असमानता के मूल्यों की प्रतिबद्ध वाहक होगी।

फिर, भैरव को पचास के दशक में यह चिन्ता भी हुई थी कि साहित्य की लड़ाई मात्र लेखन के क्षेत्र में कारगर सिद्ध न होगी, बल्कि रचनाशीलता को स्वतन्त्र विचार और व्यवसाय के लिए उपयोगी आयोजन का भी सहारा लेना होगा। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए, जैसा कि भैरव की सक्रियता में छुपी मंशाओं से प्रकट हुआ, सम्पादक, सामग्री-चयन और प्रस्तुति की दख़ल को समझना और उसे कार्य-रूप देना आवश्यक था। इसके परिणामस्वरूप भैरव को उपन्यास तथा छोटी कथा की दुनिया से किंचित बाहर पत्रिकाओं की सांस्कृतिक क्षमता पहचानने में दिलचस्पी लेनी उपयोगी नज़र आई। इससे भी आगे, भैरव को उद्देश्यों को कुछ बड़े स्तर पर अंजाम दे सकने में समर्थ अधिवेशनों पर भी नज़र डालनी पड़ी। यह अभियानकर्ता की भूमिका थी जो संसाधनों के साथ-साथ व्यापक दृष्टि की मांग करती थी। यह भैरव ही थे जिन्होंने अस्सी के दशक में जब वह उम्र के साठ वर्ष पार करने की राह पर थे, जनवादी लेखक संघ की स्थापना का सपना साकार किया था। पत्रिकाओं, अधिवेशनों और लेखक संघों की भूमिका में स्वयं को रखना और उनकी गतिशीलता में लेखन की प्रामाणिकता खोजना भैरव प्रसाद गुप्त की कार्य-क्षमता को सिद्ध करता था।


भैरव की सांस्कृतिक भूमिका तभी समझी जा सकती है जब हम लेखन में सजग हस्तक्षेप का महत्व जानें। मसलन, भैरव यह पहचानने में समर्थ थे कि स्वतःस्फूर्त रचना उपयोगी अवश्य है लेकिन उसमें हमेशा ग़लत यहाँ तक कि समाज-विरोधी दिशा में जाने की गुंजाइश रहती है। स्वतःस्फूर्त रचना का अपना आंतरिक गणित होता है, उसके मुताबिक मन में उठने वाली हर प्रतिक्रिया सही होती है क्योंकि वह एक स्थिति विशेष में और किसी वास्तविक दबाव में उभरी है। प्रायः ऐसा मानने वाला रचनाकार जल्द ही अपनी प्रतिक्रिया की गिरफ़्त में आ कर विवेक खो बैठता है, सोचता है कि तत्कालीन प्रतिक्रिया का कोई ताल्लुक अपने परिवेश से नहीं है, जो कुछ है वह प्रतिक्रिया ही है। इसके विपरीत यद्यपि सजगता और विवेकशीलता का फैलाव दूरगामी होता है—रचनाकार अपनी भाव-स्थिति को किंचित दूरस्थ हो कर उसके उद्गम और संभावित परिणाम की तरफ देखता है, और साथ ही ऐसी छोटी अथवा दीर्घ परम्परा के तारतम्य में अपनी कलात्मक कोशिश को परखता है।


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भैरव प्रसाद गुप्त का रचनाकाल 1940 के दशक से शुरू हुआ। हम उस वक्त के वैचारिक माहौल पर नज़र डालें तो पाएंगे कि वैसी उथल-पुथल बीसवीं सदी के किसी अन्य दशक में मुश्किल से मिलेगी। यह न भूलें कि बीसवीं सदी में उत्तेजना, हिंसा, असफल आशा-आकांक्षा, निराशा और भयावहता के अनेक दौर आए—बल्कि पूरी सदी ही सामाजिक तहस-नहस और धीमे पुनर्निर्माण के अनवरत सिलसिले की जीवंत तस्वीर कही जा सकती है। फिर भी, तीस और चालीस के दशकों का नज़ारा अलग था। याद कीजिए, रूसी क्रान्ति की अनुगूंज का तीस के दशक में दबा-छिपा लेकिन फिर भी निर्णायक स्वर जिसके असर में गांधी-नेहरू के नेतृत्व वाली पूरी कांग्रेस पार्टी रंग बदल कर लाल होने लगी थी। तीस के दशक में ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ का उद्भव परिघटना की शक्ल में दिखलाई पड़ा और यद्यपि वह उद्भव प्रेमचंद सरीखे यथार्थवादी लेखक को अपनी तीखी प्रेरणा में शरीक न कर पाया, लेकिन सामान्य कांग्रेस कार्यकर्ता और उसके पीछे खड़े व्यापक बूर्ज्वा वर्ग की नींद हराम करने का कारण अवश्य बन गया था। एकबारगी हमारे ज़ेहन में मध्यमार्गी कांग्रेस-जन और दूसरी तरफ़ नेहरू-सुभाष के साथ सक्रिय समूचे स्वप्नदर्शी हुजूम का बिंब उभरता है।


भैरव से मेरा वैचारिक परिचय सन 1959 में हुआ। तब मैं हिन्दी साहित्य से एक महत्वपूर्ण अर्थ में जुड़ चुका था, और मेरी गहरी रुचि विशेषकर हिन्दी उपन्यास और कहानी में थी। मैं जिस छोटे शहर रोहतक में उस वक्त रहता था, वहाँ के समृद्ध पुस्तकालय में प्रेमचंद जैसे रचनाकार की सभी पुस्तकें मैंने दिन-रात का ख़याल किये बिना पढ़ी थीं। पत्रिकाओं में भी मैं दिलचस्पी लेने लगा था। इस सिलसिले में कुछ विज्ञापित पुस्तकें खरीदने के लिए मैं दिल्ली आया तो रेलवे स्टेशन से पूछते-पूछते दरियागंज में स्थित राजकमल प्रकाशन पहुँचा, जहाँ से मैंने कुछ अजिल्द उपन्यास खरीदे। यह उस समय प्रचारित बुक कल्ब के शुरू होने के साथ हुआ था। राजकमल प्रकाशन के एक कर्मचारी ने पुस्तकों की रसीद देते वक्त मेरा पता अपने रजिस्टर में नोट कर लिया था। उसके एक सप्ताह बाद ही एक छपा कार्ड मेरे पते पर आया जिसमें इस प्रकाशन द्वारा शुरु होने वाली पत्रिका नई कहानियां की खबर थी। जब मैंने वार्षिक चंदा भेजा तो अगले ही महीने नई कहानियां का प्रवेशांक मेरे घर पहुँचा और उसे देख कर मैं चमत्कृत हो गया। यह भैरव प्रसाद गुप्त द्वारा संपादित पत्रिका का ऐसा नमूना था जिसे मैंने आज तक याद रखा है। सम्पादक अपनी संपादकीय टिप्पणी में पाठकों से सीधे बात करते थे। यह टिप्पणी एक पृष्ठ की होती थी। उसकी भाषा सीधी और सपाट थी। अन्त में लिखा था—इस अंक की दस हजार प्रतियां छापी जा रही हैं। अगला अंक मैंने रेलवे बुक स्टाल से खरीदा और उसी सप्ताह मैं वार्षिक चंदा भेज कर पत्रिका का ग्राहक बन गया। दूसरे अंक में पाठकों को बतलाया गया कि अंक की पचीस हजार प्रतियां छापी गई हैं। तीन-चार अंकों के बाद यह गिनती जहाँ तक मुझे याद है, पचास हजार पहुंची थी। अचंभे की बात यह थी कि अंकों में छपी सभी कहानियां आला दर्जे की थीं और सम्पादक महोदय नये पुराने लेखकों का ख़याल किये बिना रचनाओं की पहचान इस तरह कराते थे कि अचानक प्राथमिकता के नये मानदंड अपने आप स्पष्ट होने लगते थे। मसलन, एक अंक में यह घोषणा की गई थी कि पाठक हर अंक में अपनी पसंदीदा एक कहानी का उल्लेख पत्र द्वारा करेंगे और पसंद संख्या के आधार पर सर्वाधिक लोकप्रिय कहानी का चुनाव सम्पादक द्वारा किया जाएगा जिसे आगामी अंक में घोषित किया जाएगा। बाद में यह सूचना भी दी गई कि बारह अंकों के बाद वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित होगी। अन्ततः जिस कहानी को सर्वश्रेष्ठ होने का गौरव प्राप्त हुआ वह थी वापसी और इसकी लेखिका उषा प्रियंवदा थी। यह कहानी आगे चल कर कहानी पर हुई कई बहसों के केन्द्र में रही। इसे भैरव की सम्पादन कला न कहा जाए, तो क्या कहा जाए? सन 1959-60 में बहुत कम लोग उषा प्रियंवदा के नाम से परिचित थे। कुछ अन्य लेखक भी इस श्रेणी में आते थे। मसलन, शेखर जोशी और मन्नू भंडारी। ये दोनों ही लेखक आगे चल कर हिन्दी कहानी के प्रतिमानी रचनाकार बने, जबकि पचास के दशक में वे नवोदित लेखक थे। रचना के अनोखे पारखी भैरव प्रसाद गुप्त ने सिद्ध किया था कि लोकप्रिय साहित्य और सार्थक साहित्य के बीच मौजूद खाई को पाट कर उन्हं संयुक्त एवं एकमेक बनाया जा सकता है। इधर जब मैंने मन्नू भंडारी का इस सन्दर्भ में उपयोगी कथन जुलाई 2017 के हंस में पढ़ा तो एक क्षण के लिए रोमांच हो आया। मन्नू भंडारी ने अपने साक्षात्कार में कहा है—


. . . . मैं हार गई मेरी पहली कहानी (थी)। . . . वो मैंने कहानी भेज दी और किसी को नहीं बताया कि मैंने कहानी लिखी है। मैंने कहा, अगर जवाब आया तो ठीक, और प्रतीक्षा करने लगी जवाब की। नहीं आया . . .  वहाँ सम्पादक बदल गए, भैरव प्रसाद गुप्त जी आ गए, तो उनको टाइम लगा कहानीकारों की सारी रचनाएं पढ़ने में, बाद में जब जवाब आया तो मैं ख़ुद चकित कि इतना प्रशंसात्मक। उन्होंने मेरी कहानी का विश्लेषण किया और कहा कि अगर ये आपकी पहली कहानी है तो बस आप लिखती चलिए। (यह बात 1955 की होगी), ऐसे बस शुरू हो गया लिखना।

(हंस, जुलाई, 2017, 12-13)


इसी तरह के उद्गार मैंने उन अन्य स्थापित लेखकों से भी सुने हैं जो पचास के दशक में लिखना शुरू कर रहे थे, और उनकी संख्या काफ़ी बड़ी है। इस उद्यम के पीछे वक्त की वास्तविक सचाई तो थी ही, व्यक्ति भैरव के आदर्श और उनकी कल्पनाशीलता भी थी। भैरव सोचते थे कि जो सांस्कृतिक काम तीस के दशक में शिद्दत से शुरू हुआ था, प्रगतिशील लेखक संघ की नज़र से, वह 1947 की गंभीर उथल-पुथल से, न केवल स्थगित-सा था बल्कि विद्यमान दौर में आँखों से हट रहा था। भैरव यह भी देख रहे थे कि आज़ादी के नए दशक में लेखन के भीतर एक ऐसी मध्यवर्गीय जमात आने लगी थी जो स्वाधीनता आन्दोलन की तपिश, उसके आवेग से अपेक्षाकृत अपरिचित थी।


लेकिन इस उभरती जमात की संभावित भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता था। नए दौर को देखते हुए लेखन की दुनिया में एक अलग किस्म का दृष्टिकोण अपनाना ज़रूरी हो गया था। क्या प्रगतिशील संघ के पुरोधा-प्रणेता ऐसा सोचते थे? उस वक्त के घटनाक्रम और तब चल रही बहसों के मद्देनज़र यह नहीं हो रहा था—वहाँ असल में सीमित सरोकारों से परिचालित जोड़तोड़ का बोलबाला था। पचास के दशक की शुरूआत में पैंतीस वर्ष के भैरव प्रगतिशील लेखक संघ की रीति-नीतियों से भिन्न अपने दौर की सामाजिक कशमशक में लेखन और संस्कृति का भविष्य तलाश रहे थे। वह उन सभी लेखकों से आलोचकीय दृष्टि और बेबाकी की उम्मीद करते थे जो बिल्कुल उसी क्षण सोचने, महसूस करने और लिखने की योजना बना रहे थे। मन्नू भंडारी एक उदाहरण है। मार्कंडेय, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, उषा प्रियंवदा और शेखर जोशी में भैरव को मामूली सी ही सही, वह चिंगारी दिखती थी जो आगे चल कर मशाल तो संभवतः नहीं, लेकिन तेज़-तीखी लौ बनने में समर्थ थी।


भैरव से एक बार हुई मेरी निजी बातचीत में यह सन्दर्भ आया तो मैंने युवा-सुलभ जिज्ञासा से पूछा—

भैरव भाई, आप नई कहानीके उभार को इतनी तरज़ीह क्यों दे रहे हैं? जहाँ तक मैं देख पाता हूँ, आप स्वयं नई कहानी के लेखक नहीं हैं। आप की छोटी कथा-रचना अथवा उपन्यासों में मध्य-वर्ग को केंद्रीय स्थान प्राप्त नहीं हैं, न ही आप टूटते हुए परिवार, मोह-भंग की कड़वाहट और निराशा की ओर बढ़ रही लेखकीय मानसिकता को अपनी रचना में प्रक्षेपण करते हैं।"


 सुन कर भैरव गंभीर हो गए और उनकी आँखों से लगा कि वह कहीं दूर कुछ होता देख रहे हैं। ज़रूर उनके दिमाग़ में वह पूरी उलझन फिर से लौट आई थी जिसने कई वर्षों तक उन्हें यह-और-वह के सवाल में फंसा रखा था। भैरव के संपर्क हिन्दी के अनेकानेक नये-पुराने लेखकों से तो थे ही, वह दूसरी भाषाओं के प्रमुख रचनाकारों से भी लगातार मुखातिब थे। धीमी आवाज़ में भैरव ने जो कहा वह बहुत आश्चर्यजनक तो न था लेकिन ऐसा ज़रूर था जो बिल्कुल अलग प्राथमिकता की तरफ़ इशारा करता था। उनका कहना था—

सवाल यही है। मैं स्वयं को प्रेमचंद के क़रीब पाता हूँ। वाक़ई हमें लगातार किसानों-मज़दूरों की बात करनी है, वहीं भारत के सार्थक भविष्य की डोर है। मध्य वर्ग भरोसे की चीज़ नहीं है, जल्द ही वह पासा पलट कर दूसरी दिशा में मुड़ सकता है और ऐसा सब कर सकता है जो समाज में भ्रांति फैलाए, उसे अपने मानवीय-सामाजिक रास्ते से भटका दे। यह एक मसला है। बल्कि एक साथ दो विपरीत दिशाओं में जाने वाला सवाल है।

लेकिन नई कहानी’? आपने उसे शुरू किया, बढ़ाया, ताकत दी उसे। आपकी पत्रिका का नाम भी यही था, यह दो  विपरीत दिशाओं में जाने वाला काम आपको क्यों इतना आकर्षक लगा?


जाहिर है, मेरा सवाल जानबूझ कर तंग करने वाला था। भैरव यह देख ही रहे थे। उनमें व्यंग्य ही नहीं, हास्य भावना भी प्रबल थी, इतनी कि वह प्रायः विरोधियों और साथियों दोनों को असमंजस में डाल देती थी। लेकिन मेरी जिज्ञासा के मद्देनज़र भैरव गंभीर हो गए। उनके पास हल सवाल का सामना करने के लिए एक नैरेटिव, एक आख्यान होता था। मूलतः वह कथाकार थे, बातचीत में भी यह तथ्य झलक जाता था। भैरव ने सोचती आवाज़ में कहा—


‘नई कहानी की अपनी कहानी है। जानते हो जी, आज़ादी के फौरन बाद कितना बड़ा शिक्षित तबका एक साथ साहित्य की तरफ़ लपका था। साहित्य में प्रसिद्धि जो थी। अंग्रेजों के शासन में साहित्य, और ख़ास तौर पर कथा गंभीर चुनौती देने का काम था। अंग्रेज़ शासक अपने हितों की हिफ़ाजत के मद्देनज़र साहित्यकार को भरपूर सन्देह से देखने में अपनी स्थिति पहचानते थे। चिन्तक को झेलना आसान है, उसे आसानी से पकड़ा और लटकाया जा सकता है। लेखक के साथ यह मुश्किल है। लेखक यह भी होता है, वह भी होता है। कोई न कोई अटकल उभर आती है, और लेखक विकट हालत से मुक्ति पा कर भाग सकता है। तभी, अंग्रेजों के शासन में लेखन कर्म ध्यान खींचता था, और व्यवस्था की भौंहें तन जाती थी। इसके विपरीत आज़ादी मिलने के बाद याने सन सैंतालीस के बाद लेखन का अर्थ था, विशिष्ट होकर घूमना, गली-मुहल्ले के लोगों और दूसरों को बतलाना कि आप कुछ हैं। तो फ़िर क्या था, सारे पढ़े-लिखे लोग रात-रात में रचनाकार बन गए। ज़ाहिर है, उनमें कुछ प्रतिभावान भी होंगे ही। उधर प्रगतिशीलों को अपनी चौधराहट बनाए रखना ज़रूरी लग रहा था। यह वक्त था जब मैंने नये रचनाकारों को सिरे से पढ़ना शुरू किया। सम्पादन का अनुभव शुरू हो ही चुका था। परिवार, शिक्षा, पहचान, और वह क्या कहते हैं मोह-भंग भी कुछ हद तक  सार्थक थे ही। लेकिन आप देखिए, मेरी कहानियों में आपको यह सब न मिलेगा।”


मैंने उन्हें रोकने की हिमाकत करते हुए कहा—

यह तो सही है लेकिन मोहन राकेश, अमरकांत . . .

अरे, ये कब से नयी कहानी के लेखक हो गए। मोहन राकेश तो सींग तुड़ा कर बछड़े बने थे। वह थोड़ी बहुत राजनीति, थोड़ा बहुत दुखड़ा, थोड़ी बहुत कड़वाहट पहले भी कहानियों में कहते लिखते रहते थे। बाद के वर्षों में जब बहस छिड़ी तो वह अचानक नयी कहानी के पुरोधा भी बन गए। लेकिन एक बात थी, मोहन राकेश में आत्म-सम्मान था, वह हमेशा रहा। वह अवसरवादी भी बाकी की निस्बत कम थे, लगभग नहीं के बराबर। हाँ, अमरकांत। अमरकांत प्रगतिशील थे, बाक़ायदा तर्कशील और समाज के सवालों का तल्ख़ी से सामना करने वाले। वह हमारे खेमे के आदमी थे, और हमेशा रहे।”


मैंने प्रायः पाया कि भैरव तेज़ी में आ कर भी आत्म-संयम बनाए रखते थे। रौ में भी जब वह कुछ कहते थे तो जानते थे कि तर्क किस तरफ़ और कितना जा रहा है। यह ख़ासियत उनके अनेक समकालीनों में न थी। अनेक अवसरों पर मैंने पाया कि स्थिति के दबाव में आ कर कितने ही मित्र और साथी वैचारिक राह से भटक जाते थे, और इस तरह विरोधियों के लिए आलोचना का द्वार खोल देते थे। भैरव में यह न था। लगता है कि उनके दिमाग़ में हमेशा एक ख़ाक़ा रहता था जिसे अंजाम देना वह ज़रूरी समझते थे, और जिसके तर्क से वे अपने लिए मार्गदर्शन पाते थे। यह विचारधारात्मक अनुशासन उनमें अन्त तक बना रहा।

भैरव का भाषा पर भी असाधारण अधिकार था। यह लगातार चलने वाली सोच का परिणाम था। जिस तरह वह सोचते थे, वैसे ही लिखते थे, और जिस तरह लिखते थे, वैसे ही बोलते भी थे। यह दिमाग़ी तारतम्य हमारे वक्त के कितने लेखकों में है? एक ही कोशिश में भैरव का वक्तव्य तैयार होता था, कहानी रूप ग्रहण करती थी, या उपन्यास का अध्याय लिखा जाता था। फिर यह सोचने का क्रम भी निरन्तर चलता था, उठते-बैठते, सोते-जागते।



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अन्तिम एक-दो अवसरों को छोड़ कर मैं जितनी बार इलाहाबाद गया, उनके घर पर ही ठहरा। गिनने लगूं तो क़रीब बीस-पचीस बार यह हुआ होगा। यह सभाओं, अधिवेशनों, गोष्ठियों के क्रम में हुआ। सत्तर के दशक में गोष्ठियों का यह सिलसिला नियमित था।  स्टेशन पहुँच कर जिस व्यक्ति को मुझ से मिलने और आवास तक पहुँचाने का जिम्मा दिया जाता था, उसे बस एक हिदायत दी जाती थी कि भैरव के घर जाना है। मैं पहुँचता तो भैरव सरलता से साथीनुमा अंदाज़ में कहते—आओ-आओ, सब ठीक रहा रास्ते में। और तभी बातचीत का वह प्रवाह शुरू हो जाता जो तीन-चार दिन बाद तब समाप्त होता जब मैं दिल्ली लौटने के लिए वापसी की ट्रेन पकड़ता। बाद में जब जनवादी लेखक संघ बना, जो 1982-83 में कभी हुआ, तब भैरव की आवाजाही इलाहाबाद और दिल्ली के बीच बढ़ गई थी। जब भी छोटी या बड़ी मीटिंग होती तो भैरव दिल्ली अवश्य आते। यह भी नियम की तरह था कि उनका दिल्ली आगमन, मेरे घर एक दिन ठहरने से शुरू होता था। कुछ लोगों को यह दिक़्क़त-तलब लगता था, इस पर एक-दो इसरार भी हुए, लेकिन भैरव को मोड़ना किसी के वश में न था। दिलचस्प यह भी था कि उन्हें बाधित करने के लिए एक-दो बार मीटिंग उसी दिन रखी गई जिस दिन उन्हें दिल्ली पहुँचना था। लेकिन भैरव खींचतान समझते थे और उसके बीच समाधान निकालने में भी माहिर थे। यह परिपक्वता, दूरगामी नज़र, बौद्धिक पैनापन और सक्रियता का व्यापक विस्तार भैरव को कैसे उपलब्ध हुआ, क्योंकर भैरव व्यक्तिबद्ध कशमकश और वैचारिक टकराहट के बीच अडिग और संकेंद्रित रहे, किस प्रकार उन्होंने लेखन, व्यावहारिकता, अभियान-नियोजन, आदि को इस तरह साधा कि वह पचास के दशक से शुरु हुए और नब्बे के दशक में सांस बंद होने के क्षण तक चले अपने लेखकीय क्रिया-व्यापार सफलतापूर्वक सक्रिय रहे। सवाल मौजूं है, और व्याख्या के लिए उस कुशलता के सन्दर्भ से जुड़ा है जिसे भैरव ने सामाजिक और राजनीतिक रूप से जागरूक रह कर लम्बी प्रक्रिया के तहत साधा। इन सब चीज़ों को भैरव अपनी सामान्य बातचीत का हिस्सा बनाने में सक्षम थे। उनके साथ बैठना और उनकी धीर-गंभीर आवाज़ में एक के बाद दूसरी घटना का वर्णन सुनना किसी बड़े उपन्यास के लम्बे अध्याय को मनोयोग से पढ़ने के समान था। तब उनकी आवाज़ इतनी धीमी हो जाती थी मानों वह लेखन क्रिया में ही प्रवेश कर गए हैं। जब व्यवधान आता, जो प्रायः किसी आगंतुक के कारण होता, तो भैरव मानो नींद  से उठते, कुछ औपचारिक बातें बोलते और चौंक कर कहते—चाय बनाता हूँ।


जब भी मैं भैरव के घर ठहरा तो प्रायः दिखा कि वह अपना रोज़ का लेखन-कार्य छह-साढ़े छह बजे तक कर चुके होते थे। उन्होंने स्वयं बतलाया कि सुबह साढ़े-तीन के आस-पास वह उठ कर चाय बनाते थे और लिखना शुरू करते थे। इसके लिए उन्हें मूड बनाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी, चूंकि वह हर रोज़ लिखते थे। गद्य लेखक थे ही, मुख्य रूप से उपन्यासकार थे। कहानियां भी ख़ूब लिखते थे, लेकिन वह वक्ती ज़रूरत के अधीन चलता था। मान लीजिए, किसी पत्रिका ने आग्रह से मांगा है, या उन्हें किंचित पैसे की जरूरत हो गई है, तब वह तुरत-फुरत किसी भी सामयिक विषय या ऐसे सवाल पर कहानी लिखते जहाँ समाज पर कोई टिप्पणी करने की गुंजाइश नज़र आए। लेकिन टिप्पणी का मतलब यह नहीं कि उनके मन में किसी किस्म का ख़ाका पहले से तैयार होता था। वह कहानी को अपने आंतरिक तर्क के सहारे बढ़ने देते थे। यह भी ध्यान रखते थे कि कहानी में अनावश्यक वर्णन या वैसा कोई फैलाव न हो। कहानी में घटनाओं का अंबार भी कभी न होता था। बल्कि मकसद की प्रधानता रहती थी। यह मकसद उनके लिए प्रेरणा का काम करता था, इसके इर्दगिर्द ही वह कथा का तानाबाना बुनते थे, इसी से निर्देश पा कर वह पात्रों और स्थितियों की कल्पना करते थे। मतलब यह कि उनकी कहानी में कथा तत्व, पात्र और स्थितियों की उपस्थिति आवश्यक थी। फिर, चूंकि पात्रों की प्रधान भूमिका होती थी, वह हर कल्पित व्यक्ति को उसके अनुरूप संवाद मुहैया कराते थे। लेकिन भैऱव को हमेशा आभास रहता था कि आसपास के लेखकों ने पात्रों और घटनाओं को दरकिनार करने का फैसला कर लिया है। जैसा पहले कहा है, भैरव पर तीस और चालीस के दशक में प्रचलित कथा का असर था। वहाँ भी पेंच था। दो तरह की यथार्थवादी कहानियां उस दौर में लिखी जा रही थीं, प्रेमचंद की शैली में जहाँ लोक, परम्परा और व्यक्तियों के अंदरूनी सच पर ज़ोर रहता था, और यशपाल की शैली में जहाँ आइडिया, याने एक ख़ास विचार को व्यक्त करने की सचेत कोशिश होती है। यह देखने में आता था कि यशपाल अपनी कहानी कला दिखाने में प्रायः दिलचस्पी दिखलाते थे, बारीक बातें खोज कर पाठक के लाभार्थ प्रस्तुत करना यशपाल की पसंदीदा कार्यशैली थी। यशपाल समाजवादी लेखक के रूप में अपनी छवि बना चुके थे, इसे दिमाग़ में रख कर ही उन्होंने लेखक बनने का, लेखकीय भूमिका अदा करने का फैसला किया था। प्रेमचंद में ऐसा कुछ न था, वह जो एक खास दिन दिमाग़ में आता उसे लिख डालते और फिर मुड़ कर न देखते। यशपाल सचेत लेखक थे, प्रेमचंद पैदायशी लेखक थे, लिखते न तो उन्हें रोटी हज़म न होती थी। जो लोग किस्सागोई को कला के विरुद्ध मानते हैं, या उसे सतही लेखन का उदाहरण कहते हैं वे प्रेमचंद के कायल न थे। मसलन, उस समय के युवा लेखक राजेंद्र यादव, जिन्हें गर्व था कि वह किस्सागोई से बचने के कारण ही उनकी अपनी राय में इतने लेखक बन सके थे, और जिस कारण वह प्रेमचंद को पीछे छोड़ने में सफल हुए थे। जाहिर है, राजेंद्र यादव पैदायशी लेखक न थे, एक वक्त ऐसा आ गया था जब राजेंद्र यादव ने कहानियां लिखने से मन मोड़ लिया। पैदायशी लेखक होते तो ऐसा न करते।


लेकिन भैरव के सामने अपने समय की चल रही शैलियों में एक को चुनने की सुविधा थी। वह यादव या फिर मार्कंडेय की प्रयोगधर्मी कहानी का रूप अपना कर अपनी कहानियों को ख़ास शक्ल दे सकते थे, या फिर यशपाल और प्रेमचंद में से एक को चुन सकते थे। लेकिन ध्यान से देखने पर मिलेगा कि भैरव भी पैदायशी कथा लेखक थे। जब वह लिखते थे तो उस क्रिया में पूरी तरह रम जाते थे। लिखना भैरव के लिए खाने-पहनने जैसी आदत जैसा था।


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जहाँ तक उपन्यास लिखने का ताल्लुक है, भैरव प्रेमचंद से कुछ अलग नज़र आते थे। प्रेमचंद के उपन्यासों में फैलाव यद्यपि बहुत था, लेकिन साथ ही गहरा कसाव था, जो शायद इस कारण था कि प्रेमचंद कथा तत्व या कहानीपन के साथ कोई समझौता न करते थे। जो अनुशासन कहानी के वितान में होता है, न एक चीज़ ज़्यादा, न एक चीज़ कम, वह प्रेमचंद के लगभग सभी उपन्यासों का मूलमंत्र था। कर्म भूमि और किंचित पहले के उपन्यास प्रेमाश्रम में यह अनुशासन कुछ कम नज़र आता है, जबकि बाकी उपन्यासों में, चाहे वह सेवासदन, रंगभूमि या फिर गोदान हो कहानीपन से मुक्ति नहीं है, इस कारण वे सब अपने नपेतुले घटनाक्रम के कारण ध्यान खींचते हैं। प्रेमचंद का अपेक्षाकृत छोटा उपन्यास निर्मला तो इतना संतुलित और संकेंद्रित है कि लगभग औपन्यासिक है ही नहीं, मात्र एक लम्बी कहानी है, बहुत लम्बी और विषय पर एकाग्र। इसके विपरीत भैरव के उपन्यास, गंगा मैया को छोड़ कर, ढीले कथानक को अपने कलेवर में इस तरह समेटे होते है कि एक क्रिया व्यापार की सामान्य कड़ी जैसा लगते हैं।


भैरव के उपन्यासों में यथार्थवाद का नया स्वरूप उभरा था जिसके तहत वह पाठक से स्वाभाविक आदान-प्रदान का रिश्ता बनाते थे। वहाँ भैरव की ओर से सक्रिय वाचक (नैरेटर) उसी तरह अपने माहौल से मुखातिब होता था जिस तरह गाँव, कस्बे या शहर में घूमने वाला व्यक्ति होता है। आप एक जगह से चल कर दूसरी जगह पहुँच रहे हैं तो ज़रूर आने-जाने वालों पर नज़र डालेंगे, और यह भी ध्यान रखेंगे कि रास्ते पर स्वयं भी ठीक तरह मौजूद हैं। वहाँ रास्ता दो चीज़ों को एक-साथ प्रस्तुत करता है, भौगोलिक या शारीरिक रास्ता, और वैचारिक रास्ता। भौगोलिक की भी भैरव के उपन्यासों में अपनी व्याख्या है जिसके अन्तर्गत उनकी नज़र देश की अर्थनीति और राजनीतिक दिशा पर टिकती है, बल्कि इस तरह भैरव दिखा पाते हैं कि जो नीति में लिखा-कहा जाता है, और उसके नाम पर असल में जो किया जाता है उनके बीच कितना तारतम्य है, कितनी संगति है। लेकिन यह  मसला असल व्यवहार का अत्यंत विकट पहलू है। हमारे बीच हर दिन-हर क्षण यह देखा जाता है, कि रास्ते पर चल रहा व्यक्ति किस तरह सड़क पर नज़र सामान्य तौर पर आने वाले क्रिया-व्यापार को समझ रहा है, कैसी प्रतिक्रिया उस पर कर रहा है, और प्रश्नों को किस तरह दिमाग़ में उठा रहा है। यद्यपि ये अलग-अलग चीज़ें हैं लेकिन गहरे अर्थ में परस्पर जुड़ी हैं समाज की व्यापक गतिकी का हिस्सा हैं। कहने का तात्पर्य यह कि भैरव अपने उपन्यासों में यह दो स्तर वाली गतिशीलता निरन्तर उजागर करते हैं। हमारी कथा आलोचना का पर्याप्त ध्यान भैरव के उपन्यासों में प्रतिबिंबित इस सच की ओर जा पाता तो बिल्कुल नए तरह का सौंदर्य शास्त्र विकसित हो जाता। फिर भी जो हैं उस पर ग़ौर करें। ऊपर से देखने पर लगता है कि भैरव में पूर्वनिश्चित तर्क और निर्णय पर इतना बल है कि वह कभी अपनी बनी लीक से नहीं हटते, कि वह एक निश्चित विचार-बिंदु पर अडिग रहते हैं, और जो वह पाते हैं वह यान्त्रिक एवं सपाट है। लेकिन क्या ऐसा वास्तव में है? यह तभी जाना जा सकता है जब हम भैरव द्वारा अपनाई गई और हर नये कदम पर विकसित सर्जनात्मक रणनीति को नज़दीक से पहचानें।


मसलन, जंजीरें और नया आदमी तथा सत्ती मैया का चौरा पर विचार करें। इनमें से पहले उपन्यास का शीर्षक दिलचस्प है। जंजीरें तो समझ आता है, लेकिन नया आदमी से लेखक की क्या मुराद है? कौन नया आदमी? क्या समाज का नागरिक. या फिर खेत-खलिहान और फ़ैक्टरी में श्रम करता मनुष्य बदल कर नया हो गया है? मेरे खयाल से इस सवाल का जवाब हाँ में दिया जाना चाहिए। भैरव उन गिने चुने प्रगतिशीलों में से हैं, जिन्हें 1947 में मिली आज़ादी झूठी नज़र नहीं आई। भैरव ने यह न समझा कि किसान-मज़दूर के सन्दर्भ में हमें सदा वैसा ही रवैया रखना चाहिए जो परम्परा से चला आ रहा है और अपनी ओर से सोचते हुए हम कहें कि स्थिति तभी बदल गई समझी जाएगी जब समाजवाद स्थापित हो जाएगा। उनकी मान्यता थी कि इतिहास का हर पड़ाव उसकी अपनी वास्तविकता और अहमियत में समझा जाना और व्याख्यायित किया जाना चाहिए, और इस नाते 1947 के घटनाक्रम को निर्णायक मान कर उसके मद्देनज़र रणनीति-कार्यनीति तय की जानी चाहिए। भैरव की मान्यता हमेशा रही कि यह मसला राजनीतिक तो था ही, लेकिन संस्कृति के क्षेत्र में इसका असर और दबाव अलग से व्याख्या का विषय था। भैरव सिलसिलेवार चिन्तक न थे, लेकिन कल्पना और वैचारिक उड़ान के बल पर वह अत्यधिक सजग प्राणी थे। इस उपन्यास के भीतर समाज और उसमें कारगर संरचनाओं का चरित्र बेशक जकड़ बनाए रखने वाला था, लेकिन जिसे वे संरचनाएं जकड़े थी, वह पहले वाले व्यक्ति की निस्बत दूसरे किस्म का हो गया था। मसलन, अब वह अपने स्तर पर सोचने की स्थिति में था, शायद देश में नियमित अन्तराल से होने वाले चुनाव, और उनके अन्तर्गत सोचने-समझने का लम्बा विस्तार हर आदमी को ताकत देता था, यह अहसास प्रदान करता था कि अब वह वोट के बल पर देश की व्यवस्था के चरित्र का निर्धारक बना है। ज़ाहिर है, यह बात लेखक को जल्द समझ आती है, राजनीतिक कार्यकर्ता को किंचित बाद में। लेखन उस तरह का आयोजित क्रम नहीं होता है, जिस तरह का आयोजित क्रम राजनीति में देखने को मिलता है।


हम फिर से भैरव के उपन्यास लेखन की ओर लौटें। जैसा कहा, वहाँ उपन्यास विधा का नया रूप हमारा ध्यान खींचता है। इसके बीच लेखक जानबूझ कर मध्यवर्गीय पात्र को रखता है। यह पात्र अपने आसपास घट रहे जीवन क्रम का जायज़ा लेता है, उसकी शक्ल को अपने तईं समझना चाहता है और उस पर टिप्पणी करने को तैयार रहता है, चाहे वह टिप्पणी कितनी भी अनुपयुक्त या नाकाफ़ी क्यों न हो। बल्कि जितनी सीमित और सच से हट कर वह होगी, उतना ही अधिक वह लेखकीय उद्देश्य के दायरे में आ कर सार्थक भूमिका निभाएगी। कारण, कि इस पात्र के विचार और उसकी प्रतिक्रियाएं पाठक में जिज्ञासा या असंतोष पैदा करेंगी और ऐसी संभावित तस्वीर का बायस बनेंगी जिसमें चीज़ों को नई तरह से दॆखने का अवसर पैदा होगा। जंजीरें और नया आदमी में यह होता है। जैसे-जैसे पाठक उपन्यास के पन्नों से गुजरता है, अपने माहौल के सवालों से मुखातिब होता है और आलोचकीय क्रिया का हिस्सा बन जाता है। सोचें कि लेखकीय कल्पना के बल पर पाठक तस्वीर की रॆखाओं, उसके रंगों और विवरणों की अपने ढंग से संगति बिठाने लगता है, और फिर अन्त में अपनी वैचारिक सुविधा के लिए सामाजिक सच का बिल्कुल अलग पाठ गढ़ता है। साथ ही हम देखते हैं कि यह पाठ बाद में कुछ-कुछ लेखकीय मंशा से परिचालित होता लगता है, जिसके लिए उसे पूर्वनिश्चित पाठ की  संज्ञा दी जा सकती है। यह एक सार्थक समस्या है, जो जंजीरें और नया आदमी में मिलती है। याने उपन्यास के मध्य उभरने वाला यह आदमी यद्यपि नया है, लेकिन वह एक व्यक्ति जैसा कुछ है, और उसके माध्यम से उभरी तस्वीर ऐसा पक्ष नज़र आती है, जो संभवतः लेखक के वैचारिक पक्ष से मेल खाती है।         
   
भैरव इस समस्या का समाधान सत्ती मैया का चौरा में लेखकीय कोशिश के दम पर कुछ इस तरह करते हैं कि आश्चर्य होता है। वहाँ विविधता भी है, और सामाजिक सच का वह विकट सच भी है, जिससे समय के किसी बिंदु पर आगे शायद उलझने का मौका मिले। इस समाधान में वाचन को एक व्यक्ति के माध्यम से व्यक्त न करके दो-तीन पात्रों की मदद से विविधता के वाचन में बदलना शामिल है। मसलन, सत्ती मैया का चौरा में दो मित्र देखने को मिलते हैं जिनकी उस समय के मसलों पर पूरी सहमित नहीं है। जब वह असहमति गंभीर बहस का कारण बनती है तो पाठक के सामने संश्लिष्ट समाज का मुश्किल ख़ाका बनता है। सत्ती मैया का चौरा में एक नया आयाम तब जुड़ता है जब दोनों मित्रों के बीच एक की पत्नी अपने नये वैचारिक आयाम के साथ शामिल होती है। सोचें कि इस ताने-बाने के पीछे लेखक की मंशा क्या है। क्या पत्नी जो स्त्री है, अपने पक्ष से कुछ ऐसा न कहेगी जो पुरुष की नज़र से प्रायः ओझल रहता है? साथ ही, उसके संवाद और कथन में भावना और दैहिकता का ऐसा रूप उजागर होगा जो पुरुष-सुलभ नज़रिये के सामने संबंधों की बहुरंगी छवि प्रस्तुत करेगा और उन्हें बिल्कुल अलग तरह से देखने-समझने में सहायक होगा। ग़ौर करें कि यह सत्ती मैया का चौरा के रूप विधान की रीढ़ की तरह उसके लगभग अन्त तक मौजूद रहता है। फिर, असल में यह रूप विधान है, न कि विषय से जुड़ा अर्थात वर्ग संघर्ष का केंद्रीय संकट। वह कहीं और है। सोचें कि आज़ादी के बाद बन रहे भारत की तस्वीर में परम्परा और नयापन का युग्म आना है और वह किस तरह से आएगा, उसका तर्क पूरी तरह नकारात्मक या सकारात्मक होगा, यह तय नहीं है। सत्ती मैया जो एक मिथकीय निर्मिति है किस तरह नये यथार्थ का वहन करने में सक्षम है या वह केवल अलग से हटाई जा कर किसी अन्य उपस्थिति, मसलन सभा भवन या पंडाल, को जगह देने का साधन भर है? इस उपन्यास में कई ऐसे जीवन स्थल हैं जिनमें साम्प्रदायिकता के बीज देखे जा सकते हैं। साठ तथा सत्तर या फिर नब्बे के दशक की झांकी आश्चर्यजनक रूप से यहाँ झलक जाती है। मसलन, सत्ती मैया का उपयोग वामपंथी ताकतों द्वारा समाज को आगे ले जाने के लिए किया जा सकता है, और दूसरी तरफ़ दक्षिणपंथी समाज-हित उसे विकृत करके कुछ का कुछ बना सकते हैं।


अगर उपरोक्त को ध्यान में रखें तो कह सकते हैं कि भैरव समाज और संस्कृति के मसलों का हल वैचारिक टकराहट में खोजते हैं। इसका तीखा अहसास मुझे उनके बाद में लिखे एक छोटी सी शुरूआत शीर्षक उपन्यास को पढ़ कर हुआ। शुरूआत छोटी होगी लेकिन उपन्यास की पृष्ठसंख्या 500 से ऊपर थी, वह भी किंचित बड़े साइज़ के पृष्ठ पर छोटे अक्षरों के मुद्रण के साथ थी। पढ़ने के दौरान मैंने महसूस किया कि अनायास लेखक ने शहर का वातावरण प्रस्तुत करने के बहाने कुछ बिल्कुल अद्यतन पहलुओं को छूने का फैसला किया है। इस उपन्यास का बड़ा उद्देश्य तो ज़ाहिर है निर्णायक बदलाव की तरफ़ इशारा करना था, लेकिन साथ में यह कहना था कि बदलाव का बोझ, यदि उसे बोझ कहा जाए तो युवा वर्ग को वहन करना होगा। चूंकि यह प्रौढ़ावस्था में लिखा गया उपन्यास था, मसलन भैरव ने इसे अस्सी के दशक में कभी लिखा था, इसलिए पाठक की जिज्ञासा यह हो सकती थी कि लेखक की नज़र किन चीज़ों पर पड़ेगी। शुरूआत शब्द के इस्तेमाल से पता चलता था कि लेखक की राय में अभी बहुत कुछ होना बाकी था, क्योंकि अपेक्षित अथवा इच्छित को अभी शुरू किया जाना था। मेरा ध्यान अचानक सत्तर के दशक में भैरव द्वारा निकाली गई पत्रिका के नाम पर गया, जिसे समारंभ कहा गया था। उसका मात्र एक अंक निकला। बाद में जब उस नाम पर सरकारी मुहर न लग पाई तो भैरब ने अगला नाम प्रारंभ चुना था। प्रारंभ की नियति भी वही हुई, उसका भी संभवतः एक ही अंक निकल सका। कारण आर्थिक से अधिक दूसरे साधनों की कमी से जुड़े थे। जैसे कि पत्रिका के लिए काम कौन करता। इसके कुछ वर्ष बाद एक छोटी सी शुरूआत का इस्तेमाल करते हुए भैरव ने उपन्यास लिखा। मैं इसे पैनी यथार्थवादी दृष्टि का परिचायक मानता था कि उम्र के आखिरी वर्षों में भैरव शुरूआत पर ज़ोर दे रहे थे।


छोटी सी शुरूआत राजनीतिक अभियान को केन्द्र में रखे था। एक दल है जो समाज में सक्रियता का संचार करके बदलाव के क्रम को ज़रूरी दिशा देना चाहता है। साथ ही, जो लोग बदलाव को अंजाम देना चाहते हैं वे आदर्शवादिता के साथ-साथ साधारण आजीविका के सवाल का भी सामना करते हैं, बल्कि कुछ तो इस कारण बदलाव को समर्पित दल में शामिल भी नहीं हो पा रहे हैं। फिर, कुछ अन्य नौकरी इसलिए कर रहे हैं कि इस तरह वे बाकी के नौकरी-पेशा लोगों के संपर्क में आएंगे और अन्य युवा लोगों को संघर्ष के लिए तैयार कर पाएंगे। ऊपर से ये पहलू मामूली थे, लेकिन इन पहलुओं में वे पात्र मिल कर वैकल्पिक व्यवहार का ख़ाक़ा बना रहे थे। इस उपन्यास में कई पृष्ठ नौकरी का मूल चरित्र उजागर करने के लिए लिखे गए थे, जहाँ कहा गया था कि नौकरी जीवन का बेहद आवश्यक अध्याय है और उस पर हमें पूरी गंभीरता से सोचना होगा।


इसी तरह भैरव ने छोटी सी शुरूआत के माध्यम से युवा पुरुषों और स्त्रियों के पारस्परिक रिश्तों पर सोचते हुए दिखलाया था कि शिक्षित महिलाओं को वैवाहिक जीवन के नए नियम बनाने होंगे, और पति-पत्नी को अलग शहरों में नौकरी मिलने पर उस स्थिति को स्वीकार करके आगे बढ़ना होगा—वे महीनों बाद भी एक दो दिन के लिए मिल पाएं या तब भी न मिल पाएं तो सामाजिक चिन्ताओं और सरोकारों का वहन ही उनके लिए मार्गदर्शक होगा। उपन्यास के एक अन्य अध्याय में कुछ युवा लोग परस्पर असहमत होते हुए एक बड़ी मीटिंग आयोजित करते हैं और बोलते वक्त विपरीत तर्कों की मदद से अपना विचार पुष्ट करते हैं। दिलचस्प यह था कि सभी युवकों के तर्क में सचाई और व्यावहारिकता झलकती थी और टकराव से स्थिति की जीवंतता पार रौशनी पड़ती थी। जो लोग आज इक्कीसवीं सदी में राजनीतिक सक्रियता और सचेत दृष्टिकोण के सहारे बदलाव का मार्ग प्रशस्त करने की बात सोचते हैं, उन्हें भैरव के छोटी सी शुरूआत और भाग्यदेवता जैसे बाद के वर्षों में लिखे उपन्यास पढ़ने चाहिए।    


उनका गंगा मैया उपन्यास मैंने उनके घर में बैठ कर ही एक शाम पढ़ डाला। छोटा, लगभग छोटे साइज़ के डेढ़-सौ पन्नों का उपन्यास था। वह भैरव के अपने धारा प्रकाशन से ही छपा था। मैंने नोट किया कि उसके मुखपृष्ठ पर भैरव की कोई आरंभिक तस्वीर दी गई थी। उसमें भैरव ने कांग्रेस मार्का गांधी टोपी पहन रखी थी। मैंने जिज्ञासावश पूछा—यह टोपी क्यों? उनका उत्तर था—शुरू में मैं कांग्रेस पार्टी का सदस्य बना था, यह ज़रूर था कि मैं कांग्रेस पार्टी के समाजवादी धड़े से जुड़ा था। सुन कर मैंने सोचा कि असल में यह भैरव द्वारा अपनी जड़ों की पहचान को पुख़्ता याद का विषय बनाने हेतु लिया गया कदम था। तीस के दशक में, विशेषकर प्रेमचंद की मृत्यु के आसपास जब भैरव लगभग बीस के हो चले थे समाजवादी खेमा उतना ही महत्वपूर्ण था जितना भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का अपना अस्तित्व। बाद में जब मैंने नंबूदिरीपाद की प्रसिद्ध पुस्तक गांधी और उनका वाद पढ़ी तो मुझे पता चला था कि उन्होंने भी अपनी मार्क्सवादी यात्रा कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की सदस्यता से शुरु की थी।


तीस के दशक का वह बिल्कुल अलग किस्म का दौर था, जिसके स्मरण मात्र से रोमांच हो उठता है। बहरहाल, भैरव से मेरा दूसरा सवाल गंगा मैया के विषय और उसकी प्रासंगिकता से था। मैंने पूछा था कि किसान संघर्ष पर आधारित कथानक की नये भारत की शुरूआत के समय कितनी प्रासंगिकता थी? भैरव अपनी अनेक सामान्य टिप्पणियों में लेखक द्वारा रचना के लिए चुने गए विषय का मसला प्रायः उठाते थे। रचनाकार के विषय की पहुँच और उसकी गंभीरता का एक पैमाना वह विषय के चुनाव को मानते थे। मैं सीधे यह पूछ रहा था कि समाजवाद से जुड़ा लेखक किसान जीवन को इतनी तरजीह क्यों दे रहा था,जबकि स्थितियों का तकाज़ा हर संवेदनशील और विचारवान व्यक्ति को सर्वहारा की तरफ़ खींचता था? अब सोचता हूँ तो लगता है कि विषय के चुनाव को इस तरह खींचना मेरी अपनी संकीर्णता का परिचायक था। जवाब में भैरव ने यह तो नहीं कहा, लेकिन अपना मत व्यक्त करते हुए किसान आन्दोलन की अहमियत रेखांकित की। भैरव ने वास्तव में इस सवाल का जवाब उपन्यास के भीतर ही दे दिया था। मसलन, तिरवाही किसानों के गुणों की चर्चा के दौरान उन्होंने लिखा था कि


खुले हुए कोसों फैले मैदान, झाऊ और सरकंडे के जंगल और नदी से उनका लड़कपन में ही संबंध हो जाता है। निडर होकर जंगलों में गाय-भैंस चराने, घास-लकड़ी काटने, नदी में नहाने, अखाड़े में लड़ने, भैंस का दूध पीने से ही उनकी ज़िंदगी शुरू होती है और इन्हीं के बीच बीत भी जाती है . . . . फिर ज़मीदारों की बस्ती वहाँ से कहीं दूर होती है। वहाँ वे इन पर वह ज़ोर-ज़बरदस्ती की चांड नही चढ़ा पाते जो आसपास के किसानों को गुलाम बना देती है।


यह जिस तरह की व्याख्या थी, उसमें किसान जीवन का प्रसंग सामाजिक बदलाव से संपृक्त था। इसमें सिद्धांत पर अनावश्यक ज़ोर न था, बल्कि उस ख़ास ज़मीन का हवाला था जो हर वर्ष गंगा के पानी का बहाव झेलती हुई पुनर्नवा होती है, गंगा की धारा का बदलाव किसानों को स्वामित्व के बंधन से मुक्त करता है और साथ ही उन्हें एकता का पाठ भी पढ़ाता है। इसी के मद्देनज़र आगे चलकर उपन्यास का पात्र पूजन कहता है कि


जिस तरह ग़ुज़रा ज़माना फिर नहीं आता, उसी तरह ज़मींदारों के उखड़े पैर वहाँ फिर नहीं जम पाएंगे। हमारा ज़ोर दिन-रात बढ़ता जा रहा है। हमारे साथी बढ़ते जा रहे हैं। ज़माना आगे बढ़ रहा है।


भैरव के उत्तर में ऐसा ही कुछ कहा गया था। साथ ही यह इशारा था कि लेखक का काम अपनी ओर से अधिक न कह कर पात्रों की सोच के माध्यम से जीवन के अपेक्षित पक्ष को उभारना होता है। यह समाजवादी कथा के चरित्र को भी पहचानने की कोशिश जैसा था।    




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सांस्कृतिक जीवन की जो रवायत भैरव ने अपने उपन्यासों में शुरू की, उनकी असली कड़ी उनके साहित्यिक पत्रकार-व्यवहार में अधिक गंभीर प्रासंगिकता के साथ उभरी। इससे भी ज़्यादा दिलचस्प यह है कि पत्रकारिता को भैरव ने वह महत्वपूर्ण स्थान दिलाया, जो स्वाधीनता आन्दोलन के बीच उस समय के शीर्ष राजनेताओं ने व्यापक सामाजिक क्षेत्र में दिलाया था। उस वक्त गांधी और गणेष शंकर विद्यार्थी द्वारा शुरू किये गए हिन्दी अखबारों से ले कर अन्य उर्दू अखबारों मे राजनीति के गहन विषयों को जगह मिली और वहाँ से कितने ही निर्णायक सवाल व्याख्यायित हो कर भारत के अवाम तक पहुँचे। दूसरी तरफ़, हिन्दी साहित्य के लिए पत्रकारिता की नींव महावीर प्रसाद द्विवेदी और चंद्रधर शर्मा गुलेरी से लेकर निराला और माखन लाल चतुर्वेदी ने डाल दी थी। यह पत्रकारिता साम्राज्यवाद-विरोध का परचम थामे थी और साहित्य को समाज के यथार्थ से जोड़ने का काम करती थी। आज़ादी मिलने तक यह ज़रूरी भूमिका सक्रिय और प्रतिबद्ध व्यक्तियों के हाथों परवान चढ़ कर आवश्यक विश्लेषण और टिप्पणियां मुहैया कराती थीं। लेकिन आज़ादी मिलने के बाद अचानक इसे भारत की पूंजी ने अपने नियन्त्रण में लेने का उपक्रम किया था। नई स्थिति में यह फ़ायदे का सौदा था। इसमें आर्थिक लाभ तो ज़ाहिर है था ही, लेकिन उससे ज़्यादा इसकी भूमिका व्यवस्था द्वारा अपनाई जाने वाली और क्रिया-रूप पाने वाली नीतियों के सन्दर्भ में हो गई थी। जब बड़ी पूंजी ने साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया तो व्यक्ति साहित्यकारों के लिए इसमें विशेष रुचि या फिर अहमियत न रह गई। अलग से, पचास का दशक कुछ नए सवालों के घेरे में आ गया था और वे अचानक साहित्य एवं संस्कृति व्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण हो गए थे। संक्षेप में कहें कि यह व्यक्ति साहित्यकारों के लिए घाटे का सौदा हो गया था, उसकी अहमियत भी घट गई थी। लेकिन क्या साहित्यिक पत्रकारिता वास्तव में ज़रूरी न थी?


अभियान-कर्ता की शक्ल में भैरव की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका पत्रिका सम्पादन में दिखलाई पड़ी। साहित्य के बहुत से सामान्य पाठक भैरव को सक्रियताधर्मी सम्पादन के लिए याद करते हैं। इस सन्दर्भ में पहला हिन्दी सम्पादक महावीर प्रसाद द्विवेदी को कहा जाता है। द्विवेदी की भूमिका हिन्दी भाषा के निर्माताओं और साथ ही अनेक संवेदनशील व्यक्तियों को लेखक बनाने में रही है। स्वयं द्विवेदी आलोचक और विचारक तो थे ही, लेख और बहुत कुशल अनुवादक भी थे। जिन दिनों पत्र-पत्रिका निकालने को जोखम का काम समझा जाता था, तब द्विवेदी ने पत्रकारिता को अपना कार्य-क्षेत्र बनाया था, और लोगों को पढ़ना, लिखना एवं सोचना सिखाया था। गौर किया जा सकता है कि आज़ादी के तुरंत बाद सम्पादन के काम को अपनाना कैसा रहा होगा। यह नई स्थिति में विकट और कठिन काम था, कारण कि स्थापित विधाओं में से किसी एक को चुन कर और उसके रूप-रंग को पहचान कर संस्कृति की दुनिया में प्रवेश करना बड़े संकटों को न्यौता देना था। पत्रिका के लिए संस्थान में घुसना लाज़िमी हो चला था, और अब यह व्यापार की श्रेणी में आता था। बीसवीं सदी की शुरूआत में परिश्रम और निष्ठा की ज़रूरत थी, आज़ादी के बाद इन ज़रूरतों में आयोजित लोकप्रियता का ध्यान रखते हुए एक मिश्रित संस्कृति में हिस्सेदारी करना जुड़ गया था। फिर, पचास के दशक में भारत के विकसित शासक वर्ग की नज़र अचानक ही साहित्य और संस्कृति के समृद्ध माहौल को पहचान रही थी। सोचें, पचास के दशक में जब नेहरू प्रधान मंत्री थे, किस तरह का दबाव हमारा शासक वर्ग लोकतांत्रिक सरकार पर बनाने में लगा था। दो बड़े उद्योगपति घराने बिड़ला और डालमियां हिन्दी जगत में छा जाने की मंशा से ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ और ‘धर्मयुग’ जैसे साप्ताहिकों को  शुरु कर चुके थे, जिनका एकमात्र काम संस्कृति को साधना था। ये दोनों पत्र कविता, कहानी, उपन्यास, लेख, टिप्पणी, समीक्षा और फिल्म एवं चित्रकारी जैसे स्थलों पर भी सामग्री जुटाते थे, और अन्तरराष्ट्रीय मसलों पर भी कुछ न कुछ हमेशा छापते थे। जाहिर है, इनमें कहीं भी प्रगतिशील  सोच अथवा मार्क्सवादी नज़रिये से स्थितियों को परखना असंभव था। प्रेमचंद और यशपाल की रचनाओं से हिल रही हिन्दी की ज़मीन अचानक बूर्ज्वा कल्पनाशीलता और वैचारिक अनुशासन की गिरफ़्त में आ रही थी। हिन्दी के शिक्षित तबके के सामने उस समय प्रेरणा का विषय सामाजिक बदलाव था, लेकिन भारत में जैसे ही पहला ऐतिहासिक आम चुनाव 1952 में सम्पन्न हुआ, समूचे हिन्दी प्रदेश की नज़र मार्क्सवादी दृष्टिकोण पर टिक गई। यह अच्छा संकेत न था। कारण कि इस सन्दर्भ में अजीबोगरीब ढंग से पश्चिमी समाजों में साधनों की ताकत से पनपाई जा रही शीतयुद्धीय सोच और मूल्य व्यवस्था बिना किसी पूर्वसंकेत के भारत के संस्कृति पटल पर काबिज होने लगी। उस समय पैंतीस-चालीस की उम्र के भैरव देश के एक अपेक्षाकृत छोटे शहर इलाहाबाद में एक छोटी पूंजी से सहारा ले रही पत्रिका के सह सम्पादक थे, और अपने ढंग से इस संकट भरे आलम का जायज़ा ले रहे थे।


इतिहास के इस मोड़ पर भैरव ने पत्रिका जगत में यह जान कर प्रवेश किया कि रचनाकारों के लिए विशेष परिप्रेक्ष्य विकसित करना ज़रूरी हो गया है। आज़ादी के बारह वर्ष बाद 1959 में भैरव को नई कहानियां के सम्पादन का अवसर मिला। इसका संकेत ऊपर आया है। उस समय भैरव अकेले थे जिन्होंने नई कविता के समकक्ष कथा में ऐसा दौर शुरू करने की सूझी जो हिन्दी में  शिक्षित नई पीढ़ी के लिए लेखन के नज़रिये से उपयुक्त होता। नया कहानी आन्दोलन उसी का परिणाम था। जिन युवा चिन्तकों और आलोचकों ने इस आन्दोलन के मूल्यों और  सरोकारों को शिद्दत से बढ़ाया, उनमें प्रमुख नाम मार्कंडेय का था। बाद में इस प्रक्रिया में देवी शंकर अवस्थी और नामवर सिंह भी जुड़े। कुछ समय बाद राजेंद्र यादव ने एक दुनिया समानांतर शीर्षक पुस्तक की लम्बी भूमिका लिख कर नई कहानी की बहस को आगे बढ़ाया। लेकिन असल काम के केन्द्र में सम्पादक भैरव रहे, जिन्होंने अपनी पत्रिका में नया शब्द पर ज़ोर दे कर उसे आकर्षक और प्रेरणादायी विचार की संज्ञा दी। नई कहानियां पत्रिका में अमृत लाल नागर, यशपाल, ख़्वाज़ा अहमद अब्बास, मंटो, आदि के शुरु हुए कालम इस बात के गवाह थे, कि रचना के क्षेत्र में साहित्यिक पत्रकारिता का सार्थक योगदान संभव है। बाद में यह कड़ी मार्कंडेय और नामवर सिंह के कालमों से तीखे वैचारिक संघर्ष का कारण बनी।


यह अचानक न हुआ था, बल्कि इसके पीछे भैरव की पुख़्ता सोच काम कर रही थी। मसलन, सम्पादक भैरव की ख़ूबी यह थी कि वह साहित्य, राजनीतिक विचार और सामाजिक मूल्यों को मिला कर बनाई गई काकटेल को बेहद आकर्षक तरीके से पेश करते थे। भैरव वैचारिक क्रम को अपनी ओर से भी अतिरिक्त आग देने का काम भी पूरी गंभीरता से करते थे। उनके संपादकीय का साइज़ महज़ एक पृष्ठ यद्यपि था, लेकिन उसी में वह कुछ उत्तेजक सवाल सीधी-सच्ची भाषा में उठा देते थे। जैसे-जैसे भैरव का वैचारिक अभियान बढ़ता गया, वह सहज ही साहित्यिक क्षेत्र के बेताज़ बादशाह बने। इस क्रम में उनकी भाषा पहले की निस्बत अधिक सीधी और सम्प्रेषणीय बनती गई। ऩई कहानियां के तीसवें अंक का संपादकीय इतना तीखा और प्रभावी था कि वह उनकी कलम का चरम प्रतीत होता था। फिर यह भी था कि उनका तीखापन शायद जल्द ही न्यस्त स्वार्थों के लिए चुनौती बन रहा था। हुआ भी यही। शायद दिल्ली के किन्हीं कोनों में प्रतियोजना बन रही थी और कभी भी सतह पर प्रकट हो सकती थी। इस संपादकीय का स्वर आर-पार जाने का था, और बहुत कम सम्पादक ऐसे थे जो साहस से अपनी आवाज़ बुलंद कर के सत्ता के केन्द्र से टक्कर ले सकते थे। नई कहानियां के तीसवें अंक के बाद, जो दीपावली विशेषांक था और नवंबर 1962 में निकला था, भैरव द्वारा संपादित दो ही और अंक निकल पाए, और भैरव छुट्टी कर दी गई। चौंतीसवें अंक के संपादकीय की शुरूआत इस प्रकार थी—आरंभ से अब तक के तेंतीस अंकों का सुयोग्यतापूर्वक सम्पादन करने के बाद श्री भैरव प्रसाद गुप्त गत मास हमसे अलग हो गए। गुप्त जी के सहयोग के लिए उनक प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन न करना ग़ुस्ताख़ी होगी। जो संपादकीय उनके अपदस्थ होने का अन्तिम कारण बना, वह निम्नलिखित है—


हमने कहीं पढ़ा है कि जब प्रेमी के पास कुछ बोलने को नहीं रह जाता, तो वह अपनी प्रेमिका को चूमना शुरू कर देता है और जब किसी वक्ता को बोलेत-बोलते यह लगता है कि आगे कुछ बोलने को सूझ नहीं रहा है तो वह खांसने लगता है और जब किसी बहस करने वाले के पास कोई ठोस तर्क नहीं रह जाता तो वह क्षुब्ध हो कर या तो कुतर्क पर उतर आता है, या गाली बकने लगता है या लट्ठ उठा लेता है।


हमारे देश में अंग्रेजी के हिमायती कदाचित इस कहावत की तीसरी स्थिति से गुज़र रहे हैं और हमारे प्रधान मंत्री उनमें सबसे आगे हैं। पिछले कुछ हफ्तों से वह बड़े ही गर्म और क्षोभ-भरे शब्दों में जगह-कुजगह अंग्रेज़ी की हिमायत कर रहे हैं और उन लोगों पर, जो देश के संविधान के अनुसार 1965 तक राष्ट्रभाषा हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं को अंग्रेज़ों द्वारा लादी गयी भाषा अंग्रेज़ी की जगह राज-काज की भाषा बना देने के पक्ष में हैं, सहस्र धाराओं में बरस रहे हैं—ये रूढ़िवादी लोग हैं . . . इसी ज़ेहनियत के कारण पिछले चार सौ बरसों तक भारत का  संबंध बाहर के देशों से टूट गया था और यह पिछड़ गया था . . .इसी नज़रिये की वजह से भारत गुलाम बना रहा . . .ये लोग मूर्ख हैं . . .ये रूढ़िवादी लोग हैं, हम मान लेते हैं और उन सारे विशेषणों को भी हम अभी से मान लेते हैं, जिनका उपयोग पंडित जी आगे चल कर इस सिलसिले में ऐसे लोगों के लिए करेंगे। लेकिन पंडित जी से हम यह जानना चाहते हैं कि वह उन विधायकों के लिए किन विशेषणों का उपयोग करेंगे जिन्होंने विधान की रचना की थी, जिनमें पंडित जी भी शामिल थे, और महात्मा गांधी के विषय में उनका क्या विचार है जिन्होंने एक नहीं, हज़ार बार कहा था कि . . .लेकिन रुकिये, यह गांधी-जयंती का अवसर नहीं है। यह अवसर उस विधेयक का मसौदा लोकसभा में प्रस्तुत करने का है, जिसे पंडित जी अपने दल पर कोड़ा लगा कर पारित करा लेंगे और अंग्रेज़ी को सदा के लिए सहकारी राजकीय भाषा के रूप में देश पर लाद देंगे। यह विधेयक लोकसभा के पिछले अधिवेशन में ही प्रस्तुत किया जाने वाला था, लेकिन बिना किसी स्पष्टीकरण के रोक लिया गया और तब से यह मसौदा सरकार और कांग्रेस-दल की मेज़ों पर घूम रहा है और पंडित जी ने ज़िहाद छेड़ दिया है। यह-सब कह के और कर के ये लोग जनता और लोकसभा के सदस्यों का ध्यान संविधान की पवित्र प्रतिज्ञा से  हटाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन शायद यह कार्य उन्हें कठिन मालूम होता है, तभी तो अब संविधान में परिवर्तन करने की बात न कह कर एक साधारण विधेयक ही लोकसभा में प्रस्तुत करने की बात कही जाने लगी है। संविधान के  साथ यह कैसा खेल होगा, हम और आप जल्दी ही देखेंगे।

इस सिलसिले में हमारा अनुरोध है कि आप इसी अंक में प्रकाशित हमारे स्तंभ सुनें तो कहूँ के अन्तर्गत प्रकाशित यशपाल का लेख अवश्य पढ़ें।  


यह स्वर उस अभियानकर्ता का था, जो यद्यपि लेखक था लेकिन फिर भी देश और समाज के मसलों पर गंभीर रुख़ अपनाता था और पूरी तीव्रता एवं ईमानदारी से अपना पक्ष रखता था। वहाँ कोई रू-रियायत नहीं बरती जाती थी, लेकिन माध्यम तर्क बना था, न कि कोई आग्रह। फिर इसके समर्थन में जिस लेखक ने स्तंभ लिख कर अपना रुख़ साफ तरह और बेबाकी से रखा था वह कोई और न हो कर उस समय के शीर्षस्थ उपन्यासकार यशपाल थे। साहित्यिक पत्रकारिता का यह प्रतिमान आज़ाद भारत के इतिहास के पन्नों में मुश्किल से मिलेगा।    

आज कहें कि जहाँ तक भैरव के लेखकीय व्यक्तित्व का  सवाल था यह टिप्पणी उनकी भूमिका को रेखांकित करने वाली चरम अभिव्यक्ति कही जा सकती छी। यह उनके लेखकीय व्यवहार का ऐसा मोड़ भी बनी जिससे आगे जाना उनके लिए साहित्यिक पत्रकारिता की दृष्टि से संभव न था। भैरव ने समझ-बूझ कर अपना रुख़ तय किया था और इसके पीछे कुछ बड़े कारण थे। अपनी निजी बातचीत ने उन्होंने कहा भी था कि अक्तूबर-नवंबर 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध की पृष्ठभूमि में घटनाओं ने जो स्थिति पैदा की थी उनके चलते विचार और लेखन की भूमिका निर्णायक अर्थ में बदली थी, और अनेक अन्य चीज़ों के साथ वाम राजनीति में भी अन्दर से चुनौतियां खड़ी हो गई थीं। जितने लोग बूर्ज्वा राजनीति के खेमे से उनका विरोध करते थे, लगभग उतने ही वाम राजनीति के अन्दर से भी करने लगे थे। इस निर्णायक क्षण में भैरव ने सक्रिय वैचारिक भूमिका से बाहर आने और मात्र लेखन में शिरकत करने का फैसला किया और फरवरी 1963 में दिल्ली छोड़ने की ठानी। सदा के लिए।


यह ऐसा वक्त था जब भैरव पर अचानक आर्थिक विपत्ति का पहाड़ भी टूटा। कहीं जाने का अवसर न बचा था, और सम्मानजनक स्थिति असंभव हो गई थी। कहाँ तो उस वक्त के वाइस चांसलर के समकक्ष तन्खाह, गाड़ी और मकान, और कहाँ क्षण भर बाद सड़क पर आ खड़े होने का आलम। भैरव ने निजी बातचीत में यह रहस्य बतलाया कि एक प्रकाशक मित्र ने कहा, चलिए आप कुछ स्वीकार न करेंगे इसलिए मेरा प्रस्ताव है कि आप कुछ लोकप्रिय शैली के उपन्यास लिखें और हर उपन्यास की पांडुलिपि मिलने पर मैं एकमुश्त दो हज़ार रुपये आपको दूंगा। भैरव ने तुरत-फुरत पांच उपन्यास दो महीने के वक्फ़े में लिखे और 25 हज़ार की राशि तथा नौकरी के दौरान मिलने वाले तीन वर्ष का संचित धन ले कर इलाहाबाद पहुँचे। इस पूंजी से उन्होंने वहाँ से अपना धारा प्रकाशन लांच किया और परिवार सहित अपने लिए विपन्न किस्म की जिन्दगी बसर करनी शुरू की।


यह पूंजी भैरव के लिए हर दृष्टि से नाकाफ़ी थी। चलाने और बनाए रखने के लिए परिवार तो था ही, वह रचनात्मक काम भी आगे वढ़ाना था जो अब तक सम्पादन के बोझ का वहन करने के कारण छूटा था। सत्तर के दशक में जब मैं उनसे पहली बार मिला तो पाया कि वह विपन्नता की लगभग सभी हदों को पार कर समाज के हाशिये पर आ गए थे। घर पर ढंग की मेज़-कुर्सी तक न थी। चारपाइयां लगभग टूटी थीं। एक बेंच याद आती है, जिस पर बैठ कर मैंने और मेरे कुछ युवा साथियों ने उस व्यक्ति का सामना किया जिसे मैंने मन के ऊंचे आसन पर बिठा रखा था, जहाँ संभवतः अन्य दूसरा कोई न था। उपन्यासकार, विचारक, और समकालीन लेखन के भाग्यविधाता सम्पादक भैरव सामने थे—बेलाग, बेलौस, पूरी तरह जागरूक और मानो किसी ज़रूरी काम में डूबे। जैसे हम लोग उन्हें देख रहे थे, लगभग उसी तरह उनकी नज़र भी हम पर टिकी थी। घर में उनके अलावा कोई न था, परिवार को उन्होंने शायद गाँव भेज दिया था ताकि आए मेहमानों को दिक्कत न हो। हम लोग वहाँ तीन-चार दिन ठहर कर विचार-विमर्श में शामिल होने के लिए पहुँचे थे। बाद में देखा कि लगभग यही स्थिति अमरकांत की भी थी, जहाँ हम उस बार न जा पाए, लेकिन अगली बार मैं उनके घर गया तो वहाँ भी यही आलम था। इसी तरह शेखर जोशी भी बिल्कुल सादा ढंग से घर में रहते नज़र आए थे—उन के यहाँ हम जा सके थे क्योंकि वह भैरव के घर से पांच मिनट के रास्ते पर रहते थे। हिन्दी प्रतिबद्ध खेमे के चौथे स्तंभ मार्कंडेय दूर मिंटो रोड रहते थे, वहाँ भी विपन्नता यद्यपि न थी, लेकिन जो था वह बहुत उत्साहवर्धक या प्रेरणादायी न था। लेकिन भैरव तो भैरव थे, सरल और सहज। अपनी दमदार और स्नेहपूर्ण आवाज़ में उन्होंने हमारा स्वागत किया। एक-एक का नाम पूछा, दिल्ली के बारे में कुछ सामान्य बातें कीं, अमरकांत और मार्कंडेय की ओर देखते हुए भंगिमाओं का आदना-प्रदान हुआ और जल्द ही हम उस  वातावरण का हिस्सा बन गए। बेहद गर्मी थी उस समय। जून का महीना था। हम लोग दस-ग्यारह के पास कभी पहुँचे थे, और भैरव की आयोजन-क्षमता इतनी अद्भुत थी कि शायद तीन-बजे हम नीचे दरी पर बैठ कर अपना औपचारिक-अनौपचारिक वार्तालाप शुरू कर चुके थे। यह कोई औपचारिक आयोजन यद्यपि न था। भैरव ने दस-पंद्रह दिन पहले एक कार्ड लिख कर हम में से एक को कहा था कि यहाँ आ जाओ, मिल लेंगे और बातें हो जाएंगी। लेकिन सामान्य को गंभीर बनाने मैं भैरव को महारत थी। हमें महसूस होने लगा कि यह कोई पार्टी मीटिंग जैसा है। लेकिन था नहीं।


परिचय के इस क्षण को किंचित विस्तार देने का कारण यह है कि यह कालांतर में लगातार लम्बी गोष्ठियों और अधिवेशनों का आधार बन गया। आने वाले दो-तीन वर्षों में ही ऐसी गोष्ठियां इलाहाबाद में हुईं कि हिन्दी साहित्य के एस्टेब्लिश्मेंट की चूलें हिल उठीं। एक अधिवेशन में मैंने महादेवी वर्मा और सुमित्रानंदन पंत को देखा-सुना, और दूसरे अधिवेशन में यशपाल और हरिशंकर परसाई को। उनमें जगदीश गुप्त और रामस्वरूप चतुर्वेदी एवं गिरि राज किशोर भी नज़र आए। आरा से चंद्र भूषण तिवारी, कलकत्ते से इसराइल और विमल वर्मा, रांची से श्रीराम तिवारी, चंडीगढ़ से कुमार विकल पहुँचे, और आश्चर्य, बंबई तथा दूसरे बिहार के शहरों से वह पूरा जत्था पहुँचा जिसे उन दिनों समांतर ग्रुप कहा जाता था। समांतर ग्रुप परेशान था, लगभग बदहवास और किसी तरह अधिवेशन में बन रही आयोजन-समिति पर कब्जा करने की फ़िराक में था। यह न हो पाया और इसमें मार्कंडेय की भूमिका अविस्मरणीय रही। उस समय मैंने भैरव की ओर देखा, वह सरल और प्रसन्नमना यहाँ-वहाँ टहलते हुए सूरते-हाल का जायज़ा ले रहे थे। यह याद कर रहा हूँ, और याद दिला रहा हूँ कि यह सत्तर का दशक था जब अचानक हिन्दी का प्रतिबद्ध दौर पूरे दमख़म के साथ दृश्यपटल पर आया था और बतलाता था कि वह न केवल टिकेगा बल्कि विकसित भी करेगा। कहने की ज़रूरत नहीं कि इसके केन्द्र में सिर्फ़ भैरव थे, वही भैरव जिन्होंने साठ दशक के प्रारंभिक वर्षों में ऊपर दिया संपादकीय लिखा था। यह लम्बी और तीव्र प्रक्रिया कुछ वर्षों बाद ही जनवादी लेखक संघ की ले जाने वाली मुहिम थी।


अब लगता है कि एक तरह से यह अच्छा ही हुआ कि दिल्ली की मारामारी और आपाधापी के माहौल से मुक्त होकर भैरव ने स्वतन्त्र उपन्यास लेखन का अवसर पाया। सन पैंसठ से सदी के अन्तिम दशक तक चलने वाली लेखन यात्रा में उन लम्बे उपन्यासों की रचना भैरव ने की जिनका क्रम जंजीरें और सत्ती मैया का चौरा से शुरू हुआ था। यह ज़रूर है कि उनकी औपन्यासिक भूमिका की ओर पाठक का ध्यान पर्याप्त ध्यान जाना अभी बाकी है।


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लेकिन इसके साथ ही भैरव ने लेखकों की दुनिया में अलग से सक्रिय होने की बात अस्सी के दशक में फिर से सोची। सक्रिय होना उनकी फितरत का हिस्सा था। नियमित लिखने और छोटे  स्केल पर पुस्तकें प्रकाशित करने का काम यद्यपि चलता था, लेकिन वह अपनी नज़र लगातार समसामयिक माहौल पर टिकाए रहते थे। सत्तर के दशक का बांदा सम्मेलन फिर से भैरव की रुचि का विषय बना और उन्होंने लेखक-साथी अमरकांत को इलाहावाद से वहाँ इसलिए भेजा कि देखें और आ कर बतलाएं कि वहाँ उपस्थित नए लेखकों की जमात व्यवहार और परिप्रेक्ष्य में कुछ उम्मीद दिलाती है कि नहीं। वापस आ कर अमरकांत ने जो रिपोर्ट दी उससे भैरव में फिर से पुरानी सक्रियताबद्ध शक्ति का संचार हुआ। जैसा ऊपर इंगित है, भैरव ने इस समय फिर से दो छोटी पत्रिकाओं को विचारधारा के स्तर पर आज़माने की सोची। यह भी उन्हें महसूस हुआ कि ऐसे लेखक संगठन की स्थापना होनी चाहिए जो अभिव्यक्ति और सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा के लिए संघर्ष करे, और जिसमें वे विचारधारात्मक सीमाएं न हों, मसलन बूर्ज्वा दलों में काम कर रहे सांस्कृतिक मूल्यों के समर्थन की, जिनके कारण प्रगतिशील लेखक संघ शोषित समाज के मूल मुद्दों से लगातार भटकता चला गया।


जनवादी लेखक संघ की स्थापना का प्रसंग पहले आ चुका है, लेकिन यह फिर से पहचानना लाज़िमी है कि लेखक मात्र लिखते नहीं हैं बल्कि सीधे वैचारिक आदान-प्रदान के माध्यम से समाज के बारे में व्यापक समझ अर्जित भी करते हैं। संगठन में शामिल हो कर लेखक व्यवस्था की उन चालों का पर्दाफ़ाश भी करते हैं जिनके आधार पर समाज के बलशाली तबके अभिव्यक्ति पर प्रहार करते हैं और यह बतलाना शुरू करते हैं कि आलोचना से बचते हुए मात्र सामंजस्य और समरसता की बात करनी चाहिए। अनेक बार पुस्तकों पर प्रतिबंध लगते हैं और असहनशीलता के ऐसे दौर भी आते हैं जब लेखकों को हर झूठी-सच्ची बात पर सहमति व्यक्त करने के लिए कहा जाता है। भैरव व्यवस्था के इन पैतरों से वाकिफ़ थे। वह सही अर्थों में लोकतांत्रिक मूल्यों का पालन करते हुए लेखकों को अपना मंतव्य खुल कर कहने की वकालत करते थे। जनवादी लेखक संघ बनने के बाद एकाध बार यह भी देखने को मिला कि वाम पक्ष के नेता और उनके कुछ समर्थक रचनाधर्मिता को निर्देशित करने की सोचने लगे। यह ऐलानिया ढंग से तो न हुआ लेकिन प्रवृत्ति के स्तर पर कई बार महसूस होने लगा। भैरव जनवादी लेखक संघ के संस्थापक अध्यक्ष थे और इस प्रवृत्ति की आलोचना करते थे। यह करते समय वह किसी को न बख्शते थे। एकाध बार जब बड़े टकराव के मौके आए तो भैरव ने अपना दो-टूक मंतव्य ज़ाहिर करते हुए ईमानदार अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बल दिया। उनके इस व्यवहार से यह भी साफ हुआ कि बहस और विमर्श में वैज्ञानिक सोच और तर्कपूर्ण रवैया ही आवश्यक प्रतिमान बनता है।

           
यहाँ एक दो चीज़ें विचारधारा के स्तर पर कहें। मसलन, यह कि भैरव की पीढ़ी तेज़ होते आज़ादी के आन्दोलन के बीच उभरी। उसके लिए सादगी, ईमानदारी  और आदर्शवादिता चिन्तन में इस्तेमाल होने वाले अवधारणा शब्द न हो कर एक भरी-पूरी मूल्य व्यवस्था और जीवन पद्धति का हिस्सा थे। उसके लिए देश और समाज की आज़ादी वह प्राथमिक शर्त थी जिसके सहारे एक न्यायपरक समाज की नींव पड़ सकती थी। साथ ही वह पीढ़ी गांधी और नेहरू की सार्थकता यद्यपि मानती थी लेकिन उनके चिन्तन की सीमाओं से भी कमोबेश वाकिफ़ होने लगी थी। उसके लिए यदि त्याग और अनुशासन की अहमियत थी तो धीरे धीरे समय के विकास के बरक्स नये संदर्भों में संघर्ष की प्रासंगिकता भी उजागर होने लगी थी। यह तब था जब गांधी ने देश में विद्यमान साम्राज्यवाद विरोधी सच को व्यापक बना कर आम लोगों तक पहुँचा दिया था। यह काम गांधी ने व्यक्ति रूप में न कर के एक राजनीतिक दल की बागडोर संभालते हुए, उसके रोजमर्रा उठने वाले वाद विवाद का सामना करते हुए पूरी समझदारी से किया था। गांधी के हाथों राजनीति के नियम-कानून और तरीके जनता के अनुभवों से ताकत पा कर प्रभावशाली बन पाए थे। गांधी के पास बाकी लोगों के लिए सीखने को काफ़ी था। इस प्रक्रिया के गवाह भैरव ने अपनी सामाजिक भूमिका नये तरीके से तैयार की थी—


उसमें कला और साहित्य का मकसद आम जनता की पीड़ा व्यक्त करना था। लेखन पत्रिका के विशेषांक में भैरव के आत्मकथ्य ने यह स्पष्ट किया था कि शुरुआती दौर में उनके लिए साहित्य-सृजन कोई विशिष्ट गौरवपूर्ण क्रिया नहीं थी, बल्कि एक स्वाभाविक तथा सामान्य क्रिया थी, मसलन वह अध्यापक होते होते साहित्यकार बन गए—यह भी संभव था कि वह अध्यापक बने रहते या राजनीति में चले जाते। साहित्य में आ कर भी वह शुद्ध साहित्यकार कहाँ रह पाए!


निष्कर्षतः भैरव पर कुछ भी कहने का मतलब है अपने संपूर्ण सांस्कृतिक माहौल पर शिद्दत से सोचना। विचारधारा, साहित्य और राजनीति के विविध पक्ष—मात्र अमूर्त रूप में नहीं, बल्कि असल सवालों के रूप में—तब टिप्पणी और विश्लेषण के लिए ज़रूरी हो जाते हैं। धरती, सत्ती मैया, जंजीरें और नया आदमी शीर्षक उपन्यासों की परिस्थितियां, चाय का प्याला, मंगली की टिकुली, ज्योतिष, चुपचापकहानियों के पात्र, माया, कहानी की बहसें, नई कहानियां के कालम, पत्रिकाओं और पुस्तकों का अनुशासन, पोलेमिक्स और सेमिनार, और संगठन और इनकी संपूर्णता में झलकता एक तार्किक, बेचैन, बेहद संवेदनशील और निर्भीक व्यक्ति—यही तो हैं भैरव, अपनी शक्तियों और अर्थवत्ताओं के साथ
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(इस पोस्ट की समस्त तस्वीरें गूगल से ली गयी हैं.)
     

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (07-03-2018) को ) "फसलें हैं तैयार" (चर्चा अंक-2902) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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